Thursday, October 20, 2011

गट्ठे भावनाओं के

जब भी कभी होती थी
संवेदनाओं की आंच तीव्र
तो उसपर 
अंतर्मन की कढाही चढ़ा
कलछी से कुछ शब्दों को 
हिला हिला कर
भावों का हलवा सा 
बना लिया करती थी
और फिर परोस दिया करती थी
अपनों के सम्मुख
और वे भी उसे 
सराह दिया करते थे
शायद  मिठास से 
अभिभूत हो कर ,
पर अब उसी कढाही में 
वही बनाने लगती हूँ
तो ना जाने क्यों
आंच ही नहीं लगती
थक जाती हूँ 
कलछी चला चला कर
पर  लुगदी भी नहीं बनती अब
और बन जाते हैं 
गट्ठे भावनाओं के
जिन्हें किसी को  परोसने की 
हिम्मत नहीं होती मेरी
इंतज़ार में हूँ कि 
कोई झोंका आकर बढ़ा जाये
कम होती आंच को
तो इन गट्ठों  को गला कर
परोस सकूँ अपनों के समक्ष

Thursday, October 13, 2011

कहाँ जा रहे हैं हम ???


तीन मध्यम वर्गीय १६- १७ वर्षीय  बालाएं आधुनिक पश्चिमी पोशाक , एक हाथ में स्टाइलिस्ट बैग्स और दूसरे में ब्लेक बेरी.इस काले बेरी  ने बाकी सभी मोबाइल को छुट्टी पर भेज दिया है आजकल. स्थान -महानगर की मेट्रो . शायद किसी कोचिंग क्लास में जा रहीं थीं या फिर आ रहीं थीं.पर उनकी बातों में कहीं भी लेश मात्र भी पढाई या उससे सम्बंधित किसी भी विषय का कोई सूत्र नहीं था.सीट पर बैठी एक बाला ने ही बात छेड़ी- 
ए सुन – हूम  आर यू गोइंग आउट विथ? नाओ अ डेज ?
जबाब दूसरी वाली ने दिया – अरे इसका मत पूछ यार ..शी इज सो लकी. गोट अ हैंडसम फैलो दिस टाइम 
पहली – अच्छा..पर तेरा वो पहले वाला भी तो अच्छा था यार. रिच भी था.
अब जबाब तीसरी ने दिया – हाँ अच्छा था .पर अजीब था यार. उसे कहीं चलने को कहो तो मना कर देता था .फिर मैं किसी ओर के साथ डिस्क चली जाती थी तो वहां पहुँच जाता है .देयर वाज नो प्रायवेसी एट ऑल .मैं तो नहीं रह सकती ऐसे.
दूसरी – मेरा वाला तो मस्त है.
पहली – हाँ यार समझ में नहीं आता ये लोग इतने पज़ेसिव क्यों हो जाते हैं? कौन सा इनसे शादी करनी है यार. 
आस पास इतनी भीड़ में कोई उनकी बात सुन भी सकता है इससे बेखबर बिंदास वे तीनो अपनी चर्चा में मशगूल थीं.
आप सोच रहे होंगे कि किसी नाटक का किस्सा आपको सुना रही हूँ .मुझे भी एक पल को यही लगा था कि शायद कोई नाटक या सपना देख रही हूँ.यहाँ वहां देखा भी सभी अपनी अपनी बातों में मशगूल थे. और मेट्रो की आवाज़ में ज्यादा दूर तक तो बात सुनाई भी नही दे सकती थी .तभी मेरी नजर मेरी बराबर की सीट पर बैठी महिला पर पड़ी वो मंद मंद मुस्करा रही थी अब वह उन लड़कियों की बात पर मुस्करा रही थी या मेरे चेहरे के हाव भाव पर ये मुझे नहीं पता .पर मुझे एहसास हुआ कि मैं कोई कल्पना नहीं कर रही ये वार्ता साक्षात मेरे सामने चल रही है.
और मैं सोच रही थी सच में समय बदल गया है. और ये लडकियां व्यावहारिक हैं.क्यों करें शादी ? आखिर क्या मिलेगा शादी करके? एक जिम्मेदारी भरा परिवार, कैरियर की श्रधांजलि, और एक पज़ेसिव पति.फिर जरुरत ही क्या इस झंझट की.अपना कमाएंगे, खायेंगे , और मस्त जिन्दगी जियेंगे ,कोई रोकने टोकने वाला नहीं. आखिर क्यों वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारें.शादी के बाद की  जिन्दगी उनके वर्तमान स्टाइल से तो मैच करने से रही, फिर क्यों बिना वजह ओखली में अपना सर देना.
यही मानसिकता हो गई है आज हमारे आधुनिक महानगरीय समाज की. आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए आज स्त्री और पुरुष दोनों का धन अर्जित करना जरुरी है और इन परिस्थितियों में शादी के बाद घर की जिम्मेदारी कौन संभाले, ये सवाल उठ खड़ा होता है. कुछ समझदार लोग तो मिलजुल कर बाँट भी लेते हैं पर फिर समस्या आती है बच्चों की. अपनी  अपनी व्यस्तताओं के चलते बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत उनकी नहीं होती.जहाँ रोज की भागम- भाग जिन्दगी में उनके पास आपस में दो घड़ी बिताने का वक़्त नहीं वहां बच्चे को कौन देखेगा.तो वह बच्चे की जरुरत को ही नकार देते हैं. हर रिश्ता किसी ना किसी जरुरत पर ही टिका होता है यह एक सामाजिक और मानसिक सत्य है.फिर जहाँ ना आर्थिक निर्भरता है किसी पर , ना भावात्मक और ना ही सामाजिक या पारिवारिक तो फिर किस आधार पर कोई रिश्ता जीवित रहे. और यही वजह है,कि वर्तमान परिवेश में शादियाँ टूटते वक़्त ही नहीं लगता.आखिर क्यों कोई बिना किसी बजह के एक दूसरे  से समझौता करें. मैं ही क्यों? तू क्यों नहीं? की भावना रिश्ते की शुरुआत में ही हावी हो जाती है और नतीजा – या तो आज के युवा शादी ही नहीं करना चाहते , और जो कर लेते हैं उन्हें उसे तोड़ने में वक़्त नहीं लगता.तो क्या आपस के स्वार्थ कि बिनाह पर धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी यह विवाह की व्यवस्था?.
अब चाहें तो हम इसे पश्चिमी समाज का असर कह सकते हैं .परन्तु मुझे नहीं लगता कि पश्चिमी समाज में कभी भी या आज तक भी विवाह या फिर बच्चों की पैदाइश को नकारा गया हो. हाँ रिश्तों को लेकर उन्मुक्तता जरुर है परन्तु रिश्तों की महत्ता भी कायम है .बेशक लिव इन रिलेशन शिप है परन्तु बच्चों की जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा जाता.यूँ ही अपनी हर समस्या का ठीकरा हम पश्चिमी सभ्यता के सर पर नहीं फोड़ सकते.
जैसे पश्चिमी समाज की तर्ज़ पर हम भी नारी वाद का झंडा लेकर खड़े हो गए. जबकि उनकी और हमारी नारी वादी समस्याओं में कभी कोई ताल मेल था ही नहीं.उनकी समस्याएं अलग थीं और हमारी अलग.
देखा जाये तो स्त्रियों के सम्मान को लेकर हमारे भारतीय समाज में कभी कोई दो राय नहीं रहीं. आदि काल से ही जब से मानव ने समाज की व्यवस्था की, सुविधा के अनुसार व्यवस्था को दो भागों में बाँट लिया गया – पुरुष के हिस्से बाहर का काम आया और स्त्री के हिस्से घरेलू .कहीं, किसी के काम को लेकर कोई मन मुटाव नहीं था. किसी का काम कमतर या नीचा नहीं माना जाता था.दोनों ही पक्ष सम्मानीय थे.फिर हमने आर्थिक विकास करने शुरू किये और धन की लोलुपता बढ़ने लगी और समस्या यहीं से शुरू हुई .जब हर सफलता और योग्यता का मापदंड उसके आर्थिक अर्जन से होने लगा. घर में काम करने वाली स्त्री के योगदान को नकारा जाने लगा उसका अपमान किया जाने लगा. और धीरे धीरे स्त्री के स्वाभिमान ने आग पकड़ी और उसने भी आर्थिक निर्भरता की बिनाह पर अपनी योग्यता को सिद्ध करने की ठान ली. और फिर समस्या उत्पन्न हुई  तालमेल की.अंग्रेजों के साथ आई अंग्रेजी नारीवाद की आंधी ने भारतीय स्त्रियों को भी प्रभावित किया और शुरू हुआ आधुनिकता का नया दौर. जिसमें कहीं भी किसी भी रिश्ते के लिए जगह नहीं थी .जरुरी था तो सिर्फ अर्थ अर्जन. स्त्री बाहर निकली तो उसे मिला नया आयाम , सामाजिक सम्मान. और परिणाम स्वरुप घरेलू  स्त्रियों को अयोग्य करार दे दिया गया. घरेलू  स्त्रियों में अपने काम और शिक्षा को लेकर हीन भावना घर करने लगी . और आज यह हालात है कि “हाउस वाइफ” शब्द “गुड फॉर नथिंग” जैसा  समझा जाता है . आर्थिक रूप से संबल स्त्री आज हर तरह से सक्षम है .अत: वह किसी भी तरह का शोषण या समझौता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. उसे हर हाल में हर स्थान पर पुरुषों  के बराबर का वर्चस्व चाहिए जिसके वह काबिल है और वह लेकर भी रहती है.पर इन सब बदलाव के एवज में हमें मिल रहे हैं बिखरे परिवार, असंवेदनशील रिश्ते,मर्यादाओं का हनन.
एक समय था जब हम सभ्य नहीं थे, सामाजिक नहीं थे. किसी तरह की कोई परिवार नाम की व्यवस्था हमारे समाज में नहीं थी.हम जानवरों की तरह जिससे चाहे सम्बन्ध बनाते थे और अपनी इच्छाओं और जरुरत की पूर्ति के बाद भूल जाते थे . क्या हम फिर जा रहे हैं उसी पाषाण युग की ओर.?? या फिर यह परिवेश है बदलते वक़्त की मांग और व्यावहारिकता.???.इसका फैसला तो वक्त ही करेगा.



नवभारत.12oct2011 में प्रकाशित,


Monday, October 10, 2011

तेरे साथ ही मेरी दीवानगी गई...


“शब्-ए फुरक़त का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो,

कभी फुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता…”

कभी सोचा नहीं था कि इस पोस्ट के बाद यह श्रद्धांजलि इतनी जल्दी लिखूंगी. अभी इसी साल जून की तो बात है जब जगजीत सिंह का लन्दन में कंसर्ट था और वहां उनका ७० वां जन्म दिन मना कर आई थी उनके जन्म दिन का केक खा कर आई थी जो वहीँ स्टेज पर काटा था उन्होंने. यूँ तो उनका कार्यक्रम लगभग हर साल ही होता था और लगभग हर देश में होता था .परन्तु मेरा दुर्भाग्य कि कभी भी, कहीं भी उसमें शामिल होने का मौका नहीं मिला. हर साल किसी न किसी वजह से बस मन मार कर रह जाना पडा.परन्तु इस बार शायद कोई शक्ति थी जो मुझे उस ओर खींच रही थी. और मैंने अपना फैसला सा सुना दिया था कि इस बार कोई जाये साथ न जाये मैं तो जा रही हूँ और मेरा इतना कडा रुख देख पतिदेव भी बिना हुज्जत किये मेरा साथ देने को तैयार हो गए थे. आज सुबह-सुबह मेल देखने के लिए नेट खोला तो उनके ना रहने की दुखद खबर मिली.तब से उस कन्सर्ट के वो ऐतिहासिक पल नजरों से आंसू बन टपक तो रहे हैं परन्तु लुप्त होने का नाम नहीं ले रहे.रह- रह कर उनकी छवि और उनका आत्मिक ,सुकून देने वाला स्वर मन मस्तिष्क पर हावी हो रहा है. स्टेज पर बैठ तीन घंटे तक उसी कशिश और जोश के साथ लगातार गाने वाले वाले उस सुगठित देह और आकर्षित व्यक्तित्व को देखकर कौन सोच सकता था कि कुछ ही महीनो में वो इस दुनिया से विदा ले लेगा.खुद उन्होंने भी कहा था कि अपने ७० वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में वे दुनिया भर में इस साल अपने ७० कंसर्ट करेंगे.उस स्वर सम्राट को शायद मुझ जैसे ही किसी दीवाने की नजर लग गई. जो उस पूरी शाम उसे निहारती रही थी और ऊपर वाले की इस नियामत पर फक्र किये जा रही थी.

जगजीत सिंह वह इंसान था जिसने अपने स्वर और आवाज़ से आम श्रोता को ग़ज़ल से रु ब रू कराया.”कागज की कश्ती” के माध्यम से उन्हें बचपन लौटाया, “होटों से छू लो से”- मोहब्बत करना सिखाया यहाँ तक कि “आखिरी हिचकी तेरे जानू पे आये ,मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ.”से  उसे रोना और मरना भी सिखाया. यह वो इंसान था जिसने ग़ज़ल को खास लोगों की महफ़िल से उठाकर आम लोगों के बीच खड़ा किया.और दुनिया का कोई भी संगीत प्रेमी उनके इस ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकेगा.
मेरे लिए तो ग़ज़ल का मतलब सिर्फ और सिर्फ जगजीत सिंह थे. मेरी आँखों से अगर कभी भी पानी निकला तो उसका कारण सिर्फ और सिर्फ जगजीत सिंह के गीत थे.और उनकी ही गायकी में मैंने ग़ालिब को समझना सीखा.

आज गजल की दुनिया का यह सम्राट हमारे बीच नहीं परन्तु उनकी आवाज़ की वो खनक, वो अंदाज ए बयाँ , लफ्जों की वो खुमारी मेरी दुनिया में हमेशा एक सौगात बनकर बसी रहेगी.

उन्होंने हमेशा अपने चाहने वालों के लिए गाया. हमेशा अपने चाहने वालों का मान वे अपने कार्यक्रमों में रखा करते थे और आज शायद यही वो कह रहे हैं अपने चाहने वालों से.
थक गया मैं करते करते याद तुझको.
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ.

Thursday, October 6, 2011

स्वप्न, परी और प्रेम.

नादान आँखें.



बडीं मनचली हैं 

तुम्हारी ये नादान आँखें 
जरा मूँदी नहीं कि 
झट कोई नया सपना देख लेंगी. 
इनका तो कुछ नहीं जाता 
हमें जुट जाना पड़ता है 
उनकी तामील में 
करना पड़ता है ओवर टाइम . 
अपने दिल और दिमाग की
 इस शिकायत पर 
आज रात खुली आँखों मे गुजार दी है मैने. 
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी. 
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सोन परी 
नानी कहा करती थी 
सात समुंदर पार 
दूर देश में परियाँ रहतीं हैं 
जो पलक झपकते ही 
कद्दू को गाड़ी और 
चूहों को दरबान बना देतीं हैं 
इसलिये अब 
हर सुनहरे बालों वाली लड़की को 
मुड़ कर देखती हूँ 
शायद वही निकले मेरी सोन परी.
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(तुर्गेनैव के उपन्यास आस्या, प्रथम प्रेम और बसंती झरना पर आधारित.) 


त्रासद प्रेम 



तुर्गेनैव  कहते थे 

प्रेम त्रासद भावना  है

फिर चाहे वो अस्या का हो 
जिसने एक मन मौजी से किया 
या फिर हो जिनायदा का, 
एक शादी शुदा पुरुष से प्रथम प्रेम 
या सानिन का प्रेम हो 
एक क्रूर ,छली जेम्मा से.
मेरे ख्याल से तो ऐसी 
बेबकूफ़ियों  का अंजाम 
त्रासद ही होना था.