Thursday, July 21, 2011

कुछ कुलबुलाहटें

सोमवार को भारत के लिए निकलना है. सो तैयारियों की भागा दौडी है.एक्साइमेंट इतनी है कि कोई बड़ी पोस्ट तो लिखी नहीं जाने वाली. इसलिए दौड़ते  भागते यूँ ही कुछ पंक्तियाँ ज़हन में कुलबुलाती रहती हैं.सोचा इन्हें ही आपकी नजर कर दूं ,तब तक, जब तक हम दिल्ली ,मुंबई आदि से घूम कर एक महीने बाद वापस नहीं आ जाते .तो आप मुलाहिज़ा फरमाइए .हम मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद….

रात की रानी 
निशा की थपकियों से 
जो स्वप्न उभरते हैं
ऊषा की लोरियां उन्हें 
फिर से सुला देती हैं.
तो क्या फर्क पड़ता है 
रात की रानी भी तो 
रात को ही खिलती है.

टूटता तारा.
वो देखो आसमां में, 
अभी अभी कुछ चमका है.
मेरी उम्मीद का तारा, 
शायद वहीँ टूटा है
पर मैं भी ढीट  हूँ 
उसी टूटते तारे से 
फिर कोई ख्वाहिश कर लूंगी .



नियम 
ऊपर की ओर उछाली हर चीज़ 
नीचे आ जाती  है
कहीं मिले न्यूटन,तो कहूँ कि
गुरुत्त्वाकर्षण  का नियम बदल दें
क्योंकि
मैंने जो अपने ख्वाब उछाले हैं ऊपर ..
उन्हें तो अब गिरने नहीं दूंगी नीचे

Wednesday, July 13, 2011

क्या यही डांस है...हाँ हाँ यही डांस है ....

मुझे नृत्य से बेहद लगाव है और इसलिए टीवी की शौकीन ना होने पर भी उस पर पर आने वाले नृत्य के रियलिटी  कार्यक्रम मैं बड़े चाव से देखती हूँ .”नच बलिये” जैसे कार्यक्रमों में भारतीय नृत्य के अलावा सभी विदेशी और आधुनिक नृत्य शैली होने बाद भी वह डांस कार्यक्रम ही लगा करते थे.परन्तु 
आजकल स्टार प्लस पर डांस का एक कार्यक्रम आ रहा है .जिसका उद्देश्य और नाम तो है ” जस्ट डांस ” पर उसमें सिर्फ डांस ही मुझे दिखाई नहीं पड़ता. नृत्य देसी हो या विदेशी भावों की, ताल की महत्ता होती है. हमने तो यही सुना था.परन्तु वहां हो रहे नृत्य को देखकर तो लगता है कि इनसे बेहतर वो रस्सी पर करतब दिखाने वाले होते हैं. उन्हें इस मंच पर ले आया जाये तो उस तबके की आर्थिक समस्या कम होने के साथ साथ उनकी कला और मेहनत को भी पहचान मिल जाये. जब अपने हाथ पैर तोड़ मोड़ कर, गर्दन में फंसाकर गुलाटी ही मारनी है नृत्य के नाम पर तो, फिर मदारी का वो  जीव ही क्या बुरा है.कुछ बच्चे भी देख कर खुश हो लेंगे और उन्हें अपनी परम्पराओं से जुड़ने  का भी मौका मिलेगा. या फिर इन प्रतियोगियों को ओलम्पिक सरीखी स्पर्धा के लिए भेजना और तैयार किया जाना चाहिए. जहाँ इनकी क्षमता और प्रतिभा का सही उपयोग हो और देश का भी कुछ फायदा हो. हमेशा अंडा मिलता है. शायद कुछ  कुछ मैडल  मिल जाएँ.

पर उस मंच पर गुलाटी या नटबाजी भी सबकी मान्य नहीं . यानि वह भी उसी की मान्य है जो ये सब आगे जाकर एफ्फोर्ड कर सके .किसी फल का ठेला लगाने वाले को या किसी ऐसी युवती को ये कला भी दिखाने का अधिकार नहीं जिसने ये कला विधिवत पैसे देकर ना सीखी हो.तो उनके तो निर्णायक महोदय एक टोकरी आम भी खा जाते हैं, और एक सलाम  देकर चलता करते हैं. कि भैया तुम्हें दो बार इस मंच पर गुलाटी मारने का मौका दिया बस बहुत है तुम्हारे लिए. अब जाओ जाकर आम बेचो, सब मॉडर्न नर्तक बन जायेंगे तो हमें कौन पूछेगा .
ऐसी बात नहीं कि हमें विदेशी नृत्य कला से कोई दुश्मनी है.हालाँकि मैं ना तो नृत्य की ज्ञानी हूँ , ना कोई बिधिवत शिक्षा ही ली है. हाँ देश और विदेश में टैप से लेकर सालसा और लातिन से लेकर ,बेले और रूसी लोक नृत्य तक हर स्तर पर देखें जरुर हैं.माना कि हमारी भारतीय शैली में एक एक शब्द और भाव को नृत्य में अपनी भंगिमाओं से दर्शाने की जो अद्भुत शैली होती है उतनी वहां नहीं है .फिर भी सबमें लय, ताल, और संगीत के स्वरों पर किस नजाकत और प्राभावी ढंग से थिरक कर दर्शकों की रूह तक सन्देश पहुँचाया जाता है मुख्यत: इसी भाव की महत्ता देखी जाती है. फ्यूजन के नाम पर एक धीमी गति के संगीत पर जिमनास्ट करते हुए जमीं पर लुढ़कने को नृत्य कहा जाये ऐसा तो कभी नहीं देखा. अरे जब यही सब करना है तो हिंदी गीत के शब्द क्यों खराब करने? किसी भी संगीत पर उछल लो.इस मंच पर हो रहे नृत्य से गीत के एक भी शब्द का कोई लेना देना नहीं होता.
यहाँ तक कि  “कभी कभी” की बेहद संजीदा शायरी रूप पर भी बिना उसके शब्दों को किसी भी रूप में भावों या मुद्राओं से दर्शाए हुए, बस हाथ पैर टेड़े  करके उछल कूद की जाती है.अब इसमें नृत्य की कौन सी कला देखी गई पता नहीं. ओडिसी जैसी नाजुक नृत्यकला में फ्यूजन के नाम पर बेल्ली  डांस किया जाता है. और फिर उसे उत्कृष्ट नृत्य के शैली में रखकर कहा जाता है कि हाँ हमें यही तो चाहिए .एक ऐसा कलाकार जो कुछ भी कर सके.कहीं भी फिट हो सके. पर वहीँ एक सधे हुए शुद्ध नर्तक को यह कह कर चलता कर दिया जाता है कि आप में वर्साटीलिटी नहीं है. अब हो सकता है निर्णायकों को नर्तक के साथ साथ कोई ऐसा भी चाहिए हो जो जिसे यदि जनता नर्तक मानने से इंकार कर दे  तो बेचारा कम से कम नटबाजी करके अपनी रोटी कमा सके.
यूँ ज़माना खिचडी का ही है आजकल. हर चीज़ में मिलावट है.संगीत में मिलावट, लिबास में मिलावट, भाषा में मिलावट, खाने में मिलावट, यहाँ तक कि योग साधना में भी मिलावट तो नृत्य कैसे अछूता रहे .और फिर निर्णायक मंडल बड़े ,कुशल, व्यावसायिक ,सफल, और गुणी लोग होते हैं. वह किस चीज़ में “वाओ फेक्टर” ढूंढेंगे हम क्या कह सकते हैं . अपनी तो यूँ भी यह आदत है कि हम कुछ नहीं कहते:)

Thursday, July 7, 2011

जिद्दी कहीं का.




सूनसान सी पगडण्डी पर 

जो हौले हौले चलता है.
शायद मेरा वजूद है.
जो करता है हठ, 
चलने की पैंया पैंया  
बिना थामे 
उंगली किसी की. 
डर है मुझे 
फिर ना गिर जाये कहीं 
ठोकर खाकर.
नामुराद 
जिद्दी कहीं का. 

Saturday, July 2, 2011

यू के क्षेत्रीय हिंदी सम्मलेन 2011


पिछले कुछ दिनों बहुत भागा दौड़ी में बीते .२४ जून से २६ जून तक बर्मिघम  के एस्टन यूनिवर्सिटी में कुछ स्थानीय संस्थाओं और भारतीय उच्चायोग के सहयोग से तीन दिवसीय “यू के विराट क्षेत्रीय हिंदी सम्मलेन २०११” था .और हमारे लिए आयोजकों से फरमान आ गया था कि आपको भी चलना है और वहाँ अपना पेपर  पढना भी है. अब क्या बोलना / पढना है वह तो हम पर छोड़ दिया गया परन्तु हमारे लिए जो सबसे बड़ी चुनौती थी, वो ४ दिन के लिए घर बार छोड़ कर जाने की थी.जैसे ही सुना घरवालों ने तो त्राहि – त्राहि सी मच गई .परन्तु उस सम्मलेन में बड़े बड़े गुणीजनों और बुद्धिजीवियों से मिलने का लोभ हम छोड़ नहीं पा रहे थे.फिर बात हिंदी की हो और बाइज्जत बुलाया जाये तो भला कैसे पीछे रहा जा सकता है. तो हमने ऐलान कर दिया कि जो भी हो हम तो जा रहे हैं. आप लोग काम चलाओ जैसे भी हो. और हम निकल पड़े.काफी बड़ा सम्मलेन था भारत से डॉ. पंचाल, डॉ. पालीवाल, रूस, इजराइल, डेनमार्क, आदि से विद्वान् और हिंदी के प्राध्यापक, केम्ब्रिज के प्रोफ़ेसर एश्वार्ज कुमार और बहुत से स्थानीय गुणीजन ,वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार आये थे अपना अपना व्याख्यान देने. और इन सबके साथ हमें भी अपना व्याख्यान देना था. सो जी हमने भी वेबपत्रकारिता को बनाया मुद्दा और डंके की चोट पर कह दिया कि ” वसुधैव कुटुम्बकम ” के नारे को आज की तारीख  में कोई चरितार्थ करता है, तो वो है वेब पत्रकारिता.

वैसे वहां जो भी बोल रहा था डंके की चोट पर ही बोल रहा था.किसी ने कहा कि देवनागरी लिपि सर्वोत्तम लिपि है. तो कोई कह रहा था कि हिंदी की दुर्दशा के लिए मैकाले साहब जिम्मेदार हैं .कोई हिंदी शिक्षण के परंपरागत तरीके को ही  सही ठहरा रहा था. तो कोई ठोक ठोक कर कह रहा था कि नया ,आधुनिक और तकनिकी तरीका अपनाना चाहिए.

खैर कहा जो भी गया हो .एक बात जो साफ़ साफ़ निकल कर सामने आई वह यह कि, कौन कहता है कि युवा वर्ग हिंदी नहीं सीखना चाहता.?हो सकता है भारत में ऐसा हो, क्योंकि वह तो इंडिया बन चुका है.और भारत से आये कुछ युवा प्रतिभागी ये कहते भी पाए गए कि भाई आपलोग कुछ ज्यादा ही भारतीय हो. हम तो यहाँ आपके साथ निभा ही नहीं पा रहे हैं.परन्तु यू के भारतीय युवाओं में पूरा जोश देखा गया वे हिंदी बोलना, लिखना,पढना तो क्या हिंदी में सोचना भी चाहते हैं और उन्होंने सम्मलेन में भी बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया. हाँ इतना जरुर था कि पाठ्यक्रम और शिक्षण प्रणाली वे कुछ यहाँ के परिवेश के अनुकूल चाहते हैं. इसलिए सम्मलेन के आखिरी दिन उनकी और सभी प्रतिभागियों की सभी बातों पर गौर करके सम्मलेन में सर्व सम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसपर ध्यान देने का और क्रियान्वित करने का भारत से आईं विदेश मंत्रालय की “डिप्टी सेकेट्री  हिंदी” ने पूरा पूरा आश्वासन भी दिया.
वैसे जैसा कि आमतौर पर होता है, यहाँ भी मीडिया की अच्छी खबर ली गई. जैसे- भाषा इतनी अशुद्ध क्यों है, ख़बरों को किस तरह परोसा ( थोपा ) जाता है, रिपोर्टरों का स्तर क्या है. आदि आदि जिनके जबाब भी मीडिया वालों ने अपने ही तरह से ही दिए.

कहने का मतलब यह कि सम्मलेन काफी सफल और सार्थक रहा उस पर रोज शाम को सत्रों के अंत में सांस्कृतिक कार्यक्रम और मन भर कर गप्पें. नतीजा यह कि २७ तारीख तक दिमाग कहाँ है और उसके ऊपर की खोपड़ी कहाँ पता नहीं चल रहा था.उसपर उसी दिन शाम को लन्दन में कथा यू के- के सम्मान समारोह में भी जाना था जहाँ विकास झा को उनके उपन्यास मेक्लुसकी गंज के लिए सम्मानित किया जाना था. पर भला हो अन्ताक्षरी बनाने वाले का और सफ़र में उसे खेलने की परम्परा चलाने वाले का .बर्मिंघम से लन्दन तक का सफ़र एक साथ एक कोच में अन्ताक्षरी खेलते कैसे बीता और दिमाग की सभी बत्तियां कैसे अपने ठिकाने आईं पता ही नहीं चला फिर हम सीधे वहीँ से चले गए हाउस ऑफ़ कॉमंस कथा यू के-के सम्मान समारोह में और उसके बाद रात्रि भोज. फिर रात के १२ बजे पहुंचे घर.जिसके बाद शुरू करने थे सारे पेंडिंग काम और फिर २ दिन बाद होने वाले वातायन सम्मान की तैयारियां जिसका ब्यौरा आपको अगली पोस्ट में देंगे .फिलहाल आप हमारी इस चार दिवसीय यात्रा की तस्वीरें देखिये.

कोच और हम सब.
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