Monday, November 8, 2010

टूटते देश में बनता भविष्य.(मेरा रूस प्रवास.)

कड़कती सर्दी में क्रेमलिन.
जब मैंने अपने रूस प्रवास पर यह पोस्ट लिखी थी तो जरा भी नहीं सोचा था कि इसकी और भी किश्ते लिखूंगी कभी .बस कुछ मजेदार से किस्से याद आये तो सोचा बाँट लूं आप लोगों के साथ. परन्तु मुझे सुझाव मिलने लगे कि और अनुभव लिखूं और मैं लिखती गई जो जो याद आता गया. पर  यहाँ तक पहुँचते पहुँचते फरमाइशें  होनी लगीं कि और लिखो, और इसे किताब का या उपन्यास का रूप दे दो. यहाँ तक कि एक मित्र ने इसे छपवाने की भी जिम्मेदारी ले डाली .परन्तु उपन्यास तो क्या एक लघुकथा लिखना भी मेरे बस की बात नहीं .ये तो बस स्मृति पटल पर अंकित कुछ यादगार लम्हें हैं, कुछ जिन्दगी के तजुर्बे जो जस का तस मैं शब्दों में उतार देती हूँ .किताब बने ना बने परन्तु आप लोगों का सुझाव सर माथे. तो जितना भी हो सकेगा मैं लिखती रहूंगी.कम से कम ये पल मेरे खजाने में सजे रहेंगे.
वोरोनेज़ से फाऊंडेशन  कोर्स के बाद मॉस्को  में मेरे पोस्ट ग्रेजुएट  डिग्री का पाठ्यक्रम पांच  साल (१९९१- १९९६ )का था. और पेरेस्त्रोइका के बाद रूस का चेहरा तीव्रता  से बदल रहा था. राजनैतिक  हलचल से तो हमें उस समय ज्यादा सरोकार नहीं हुआ करता था परन्तु सामाजिक परिस्थितियां भी आश्चर्य जनक ढंग से बदल रही थीं .अपने देश और संस्कृति पर गुमान करने वाले रूसी, रूस को छोड़कर बाहर मुल्कों में जाकर बसने की चाह रखने लगे थे. जो कि रूसी भाषियों के लिए बेहद मुश्किल था.अंग्रेजी आने पर भी सिर्फ रूसी बोलने वाले रूसी अब अंग्रेजी और फ्रेंच सीखना चाहते थे. अपने रूबल पर नाज़  करने वाले लोग रूबल को डॉलर  में बदल कर जमा करने लगे थे क्योंकि रूबल का मूल्य हर दिन तेज़ी से गिर रहा था. 
आर्थिक तंगी का असर लोगों के काम पर उनके व्यक्तित्व पर जाहिर तौर पर पड़ रहा था और हल्के- फुल्के रिश्वत जैसे भ्रष्टाचार की नींव पडने  लगी थी. बाजार बाहरी देशो के लिए खुलने लगा था जहाँ मोस्को में गूम और सूम नाम के २ बड़े बड़े सरकारी मॉल थे वहां अब इटालियन और अमेरिकेन ब्रांड के बड़े बड़े शो रूम्स खुलने लगे थे और उनके प्रति जनता का आकर्षण स्वाभाविक था. 
गूम विशालकाय डिपार्टमेंटल  स्टोर.
इन्हीं सब परिवर्तन के चलते छोटी मोटी  सुविधाएँ विदेशी लोग हासिल कर लिया करते थे .वैसे पहले साल में हॉस्टल में एक कमरे में ५ लोगों के रहने का प्रावधान था .परन्तु वार्डन को बहला कर लोग अपने कमरे में ऐसे  २-३ छात्रों का नाम लिखवा लिया करते थे जो होस्टल में ना रहकर कहीं और  रहा करते थे और इस तरह एक बड़े कमरे में ज्यादा से ज्यादा ३ लोग ही रहा करते थे और उसे भी अपनी निजता की सुरक्षा के लिए लकड़ी के पट्टों से बाँट लिया करते थे और थोड़ी सी कोशिश के बाद पूरा एक कमरा भी मिल जाया करता था .वैसे एक कमरे में एक ही लिंग के छात्रों के रहने का नियम था परन्तु किसी के भी किसी वक़्त भी आने जाने की कोई पाबंदी नहीं थी .और जब तक आपके साथ वाला साथी शिकायत ना करे किसी भी काम की कोई मनाही नहीं थी. मतलब  यह कि हमारा होस्टल का कमरा होस्टल का नहीं बल्कि किसी होटल का सा था, जिसके एक छोटे से हिस्से में हम अपना रसोई भी बना लिया करते थे .हालाँकि पहले साल हमने होस्टल के कैफे  में खाकर ही गुजारा  जबकि ज्यादातर विदेशी छात्र रूसी स्वाद के अभ्यस्त ना होने के कारण अपने कमरे में ही खाना बनाया करते थे .परन्तु हमें बचपन से ही सिखाया गया था जैसा देश वैसा भेष . और हमारी किस्मत भी  ऐसी थी कि हमें हमेशा ही अलग कमरा मिला या फिर किसी विदेशी के साथ तो खुद के अकेले के लिए खाना बनाने में बड़ा आलस आता था और हम मजे से कैफे  में रूसी पकवानों को भारतीयता के रंग में ढाल कर खाया करते थे .जैसे बोर्ष  ( रूसी चुकंदर का सूप ) से मीट निकाल  कर , या मैश  पटेटो में टमाटर की ग्रेवी डाल कर.  
 बोर्ष एक रूसी सूप.
पर धीरे धीरे इससे ऊब होने लगी तो हमने भी एक छोटी सी हॉट प्लेट  खरीद कर अपने कमरे में रख ली , हालाँकि कमरों में किसी भी प्रकार की कुकिंग  की इजाजत नहीं थी .परन्तु वे  छात्र ही क्या जो नियमों के मुताबिक काम करें? तो हर कमरे में हॉट प्लेट पाई जाती थी . और यह  वहाँ  की वार्डन  को भी पता था पर शायद छात्रों की मजबूरी वे  भी समझा करती थीं , तो जब भी रूम चैकिंग  होती तो, कोरिडोर से ही चिल्लाती हुई आती थीं, जिससे कि सब सतर्क हो जाएँ और हॉट प्लेट  कहीं पलंग- वलंग  के नीचे छुपा दें .और वो आकर ऊपरी  तौर पर चैकिंग  करके चली जाया करती थीं .हॉट प्लेट  के आते ही हमारे भारतीय स्वाद तंतु जाग्रत हो उठे थे और हमने सब्जी ,चावल ,दाल ( जितनी भी वहां  मिलती थीं :)) बनाना  शुरू कर दिया था. फ्रिज ,टीवी भी खरीद लिया था और एक तरह से हमारा एक कमरे का छोटा सा घर बस चुका था.वैसे फ्रिज की जरुरत वहां सिर्फ २ महीने ही पड़ती थी बाकी समय इतनी ठण्ड होती थी कि खिड़की के बाहर ही लोग एक टोकरी बाँध देते थे या थैला  ही लटका देते थे और वो डीप – फ्रीजर बन जाया करता था .खैर घर तो हमारा बस गया अब बारी कैरियर बनाने की थी – रूसियों के साथ उनके स्तर पर पढना नामुमकिन  था क्योंकि रूसी भाषा की पहली सीढी पर ही थे हम .पर विदेशी साथियों के साथ पढना टेडी खीर था.८०% छात्रों को सिर्फ पास होने से मतलब था जो वो किसी ना किसी तरह हो ही जाया करते थे उनके बीच रहकर आप पढाई करो या क्लासेस  ठीक से जा पाओ उसके लिए काफी इच्छा शक्ति की जरुरत थी.तो पहला साल तो उनसे अलग थलग रह कर अच्छे बच्चों की तरह नियमित क्लास जाते रहे पूरी निष्ठा से पढाई करते रहे और उसका फल भी हमें मिला परन्तु दूसरे  साल तक आते आते हमें भी होस्टल के छात्र जीवन की हवा लगने लगी दोस्तों के साथ एक पार्टी का मतलब होता था २ दिन की क्लास बंक .और इसी गफलत में हमने भी यही तरीका इख्तियार कर लिया .”.हो जायेगा यार ..एक्जाम्स में देख लेंगे “.और इसी चक्कर में एक बार- पहली और आखिरी बार, हम समय से एक टेस्ट नहीं दे पाए. हालाँकि ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लोग आगे पीछे ये सब किया करते थे अपनी और टीचर की सुविधा अनुसार टेस्ट की डेट फिक्स की जा सकती थी और उसमें मार्क्स नहीं सिर्फ पास- फेल  मिलता था परन्तु हमें रातों को डरावने सपने आने लगे थे कि भारत लौटने का समय हो गया है और हमारा वो टेस्ट अब तक क्लीअर नहीं हुआ .वो दिन था… हमने फैसला कर लिया सारी खुदाई  एक तरफ और पढाई एक तरफ. उसके साथ कोई भी समझौता हम नहीं करेंगे .और तब से हर टेस्ट और एक्ज़ाम समय से भली भांति  देते रहे .
वैसे पश्चिमी देशों की शिक्षा  व्यवस्था  के तहत ये कोई बहुत मुश्किल काम मुझे नहीं लगता था .भारत की रट्टू और किताबों पर आधारित शिक्षा के विपरीत वहां शिक्षा  प्रैक्टिकल  और व्यक्ति आधारित होती थी .अगर आपने सारे लेक्चर  और सेमिनार ईमानदारी  से अटेंड  किये हैं और थोड़ी भी गंभीरता से पढाई को लिया है तो घंटों किताबों  को लेकर बैठने  की जरुरत नहीं थी.वहां चैखव  की रचनाओं की व्याख्या करने के लिए किसी और की लिखी  पुस्तक या कुंजी की जरुरत नहीं थी आपके खुद के विचारों की और समझ की जरुरत थी .आप पहले लिखी किताबों से मार्गदर्शन तो पा सकते हैं  परन्तु अंतिम विचार और इम्तिहान  आपकी अपनी क्षमता और बुद्धि  ,विचार पर निर्धारित होता है. 
खैर होस्टल, दोस्त और पढाई तीनो में संतुलन बन चुका था और रूस में हमारी गाड़ी  काफी हद तक पटरी पर आ गई थी.
बाकी फिर कभी :). 

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