Thursday, November 25, 2010

जय बोलो लोकतंत्र की ..


वैसे तो हमारे देश में घोटालों की कोई एक परिभाषा नहीं ,कोई सीमा नहीं है. हमेशा नए नए और अनोखे से नाम कानो में पड़ जाते हैं. परन्तु पिछले दिनों कुछ इसतरह के मामले सुनने में आये कि लोकतंत्र से ही विरक्ति सी होने लगी है .लोकतंत्र के सबसे मजबूत खम्भे पर बैठे लोग हों या हाथ में कलम की तलवार लिए सामाजिक बुराइयों का गला काटने वाले .आम जनता को अवसाद से उबारने का बीड़ा उठाये साधू संत हों या देश की सर्वोच्च सेवा के तथाकथित उच्चाधिकारी.सबने मिलकर लोकतंत्र को ही ढाल  बना कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र  के परखच्चे उड़ा  दिए हैं..

पल में तोला पल में माशा 

गिरगिट की सी चाल है इनकी .
कभी इस पलड़े तो 
कभी उस पलड़े   ,

थाली के बैगन सी गति है इनकी .
दिल अंदर से काला है और
दिमाग जटाओं में जकड़ा है
घर फूंक तमाशा देख रहे
ना कोई मर्यादा इन संतों की .
कुछ बैठ चतुर्थ स्तंभ   पर
दलाली देश की खा जाएँ 

जितनी  बड़ी लॉबिंग करें
उतनी ऊँची कुर्सी पा जाएँ .
आज प्रीत किसी  से जुडी  गहन
कल बैर कौन सा हो जाये,
इसकी सुन ली उससे कह दी
कान के कच्चे सब बन जाएँ
कहने पर जब आते हैं
संस्कार सभी चुक जाते हैं
लगाम जुबाँ पर.न कलम पर
बस सरेआम शोर मचाते हैं
चारे से लेकर खेलों तक
जहाँ मंडी सब घोटालों की 

जय बोलो भई जय बोलो 
ऐसे लोकतंत्र वालों की .
(तस्वीरें गूगल से साभार )

Monday, November 22, 2010

रूस और समोवर....

इसके बाद …हम अपने पाठ्यक्रम के चौथे वर्ष में आ पहुंचे थे …..और मॉस्को  अपनी ही मातृभूमि जैसा लगने लगा था .वहां के मौसम , व्यवस्था ,सामाजिक परिवेश सबको घोट कर पी गए थे .अब हमारे बाकी के मित्र छुट्टियों में दौड़े छूटे भारत नहीं भागा करते थे , वहीं  अपनी छुट्टियाँ बिताया करते थे या
मोस्को का प्रसिद्द व् द न ख (VDNKH)
आस पास कहीं घूमने चले जाया करते थे .क्योंकि उस समय ( जुलाई से सितम्बर ) जहाँ भारत में बेहद गर्मी हुआ करती थी वहीँ रूस  में बेहद खुशगवार मौसम हुआ करता था खूबसूरती जैसे बिखरी होती थी . साल में ८ महीने बर्फ से ढके पेड़  और झीलें जैसे इन दिनों अपने पूरे शबाब पर आ जाते थे .जिन बर्फ से जमी झीलों पर बच्चे आइस स्केटिंग किया करते थे .अब उनके  किनारे रूमानी जोड़े बैठे नजर आते थे.  

लोगों के ओवर कोट उतरते तो खूबसूरत कपड़ों की छटा देखते ही बनती और वहां के लोग इस मौसम की खुमारी में बाबले हुए जाते थे. 
पर हमें तो जैसे भारत ही जाने का भूत सवार रहा करता था . समय से पहले ही सारे इम्तिहान देकर हम भारत चले जाते थे और आराम से ३ महीने की छुट्टियाँ मना कर आते थे.यानि इत्मिनान से बेफिक्री की नींद  सोकर आते थे .जिसके लिए हमें अपनी बहनों के उलाहने भी सुनने को मिलते थे जो बेचारी हमारे किस्से सुनने को साल भर इंतज़ार किया करती थीं .” यहाँ क्या सोने आई है ?वहां सोने को नहीं मिलता ? .अब उन्हें कैसे समझाते कि अपनों के बीच जिस सुरक्षा के एहसास के साथ जो सुकून की नीद आती है उसका कोई मुकाबला नहीं .वरना होस्टल में तो जान को हजार काम होते थे .  नींद में भी कभी क्लास तो कभी मम्मी के हाथ के आलू के परांठे दिखाई देते थे.वैसे खाने के मामले में रशियन व्यंजनों का भी जबाब नहीं होता – 
 प्लेमिने (डपलिंग्स ), पिरोज्की (पकोड़े), तरह तरह के सलाद और सूप,और बेहद स्वादिष्ट काली ब्रेड . 
प्लेमेनी 
और साथ में हर चीज़ का अचार …अरे चौंकिए नहीं हमारे यहाँ  जैसा अचार नहीं बल्कि एक खास तरह से पिजर्व की हुई सब्जियां. वहां के सर्द मौसम के तहत सिर्फ गर्मियों में ही कुछ सब्जियां और फल आते हैं तो फलों को जैम एवं मुरब्बे  के तौर पर और सब्जियों को “पिकल” के तौर पर पिजर्व कर लिया जाता है साल भर के लिए.
रूसी अचार 
समोवार, चाय 
पर वहां सबसे ज्यादा चलन में जो चीज़ है वह है चाय .किसी के भी घर जाइये “समोवार” भर कर एक खास तरह के हर्ब के साथ काली चाय रखी होगी और आपसे बड़े बड़े मग में प्याला दर प्याला पीने की गुजारिश होगी.और साथ में चीनी की जगह होगी प्लेट भर कर टॉफियां या चॉकलेट .  सच मानिये इतनी रेफ्रेशिंग और स्वादिष्ट चाय मैंने कहीं और नहीं पी.जैसे जैसे उसके घूँट हलक़ से उतरते , दिमाग की सारी गुथ्थियाँ जैसे खुल जातीं .हर मौके पर चाय पीने की ऐसी आदत लगी कि “आज भी जब  दिल उदास होता है काली चाय का प्याला ही पास होता है”.
खैर इस समय तक वहां राशनिंग ख़त्म  हो गई थी और किसी भी दूकान पर अब कतार नहीं दिखाई देती थी उसकी एक वजह ये भी थी कि महंगाई बढ़ गई थी और वहां की सरकारी दुकानों के अलावा और विकल्प भी उपलब्ध थे जिसमें “रीनक”( प्राइवेट बाजार /मंडी ) प्रमुख था , जहाँ आप जो चाहो सब मिलता था वह भी बिना कतार के . हाँ थोडा महंगा जरुर हुआ करता था परन्तु वहाँ  वह सब कुछ आसानी से मिल जाता था जो सरकारी दुकानों में कतार लगाने पर मिलता था .  कई बार लोग इन्हीं दुकानों से खरीद कर रीनक में दुगने  दामो पर बेच दिया करते थे.
रिनक 
इस आर्थिक परिस्थतियों का सबसे ज्यादा असर अध्यापक वर्ग पर पड़ा था जहाँ विश्वविद्यालयों के अध्यापकों को  सबसे ज्यादा तनख्वाह मिला करती थी . रूबल के दाम गिर जाने से वह सबसे कम हो गई थी और उन बेचारों को समझ नहीं आता था कि कहाँ से गुजारा करें. वहीँ छात्रों का भी बुरा हाल था .छात्रवृति की राशि नाम मात्र की हो कर रह गई थी , इसलिए सबने अलग से कोई ना कोई काम करना शुरू कर दिया था.विदेशी छात्रों को हालाँकि अपने घरवालों से मदद मिलती थी और वे वहाँ  अमीर माने जाते थे .परन्तु हम जैसे कुछ लम्बी नाक वाले मजबूरी में ही घर से जरुरत के लायक ही पैसे मंगाया  करते थे.(लड़कियां शायद ज्यादा सोचती हैं इन मामलों में)  और इसके लिए हमने वहाँ  छोटी मोटी नौकरी करना शुरू कर दिया था…
आगे फिर कभी 🙂

Tuesday, November 16, 2010

हाँ शायद...




पहले जब वो होती  थी 
एक खुमारी सी छा जाती थी 

पुतलियाँ आँखों की स्वत ही 
चमक सी जाती थीं 
आरक्त हो जाते थे कपोल  
और सिहर सी जाती थी साँसें 
गुलाब ,बेला चमेली यूँ ही 
उग आते  थे चारों तरफ.
पर अब वह होती है तो 
कुछ भी नहीं होता 
ना राग बजते  हैं 
ना फूल खिलते हैं
ना हवा महकती है  
ना साँसें ही थमती हैं 
हाँ 
अब उस “आहट” के होने से 
कुछ असर नहीं होता मुझपर  
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं . 

Thursday, November 11, 2010

कुछ मस्ती कुछ तफरी.(रूस प्रवास २)

अब तक के २ साल आपने यहाँ पढ़े. 
तीसरे साल में पहुँचते पहुँचते मेरे लेख  अमरउजाला, आज, और दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में छपने  लगे थे जिन्हें मैं डाक से भारत भेजा करती थी ,यूँ तो स्कूल के दिनों से ही मेरी अधकचरी कवितायेँ स्थानीय पत्रिकाओं में जगह पा जाती थीं पर स्थापित पत्रों में फोटो और परिचय के साथ छपे लेख अलग ही रोमांच का अहसास दिलाया करते थे. न जाने वह आत्म मुग्धता थी या कच्ची उम्र का उत्साह , कि छपे हुए लेखों की कतरने मैं अपने घरवालों से पत्रों के माध्यम से मंगाया करती थी और मैं और मेरे दोस्त उन लेखों के नीचे लिखे मेरे नाम के साथ फोटो और “मॉस्को  से ” टैग को बड़े गर्व से निहारा करते थे.उन्हें देख कर और कुछ हुआ हो या नहीं पर इतना सुकून हमें आ गया था कि जीवन में सफलता कितनी मिलेगी वह तो पता नहीं परन्तु एक छपने वाले पत्रकार तो हम बन ही रहे थे.
इस समय तक हम उस टुकड़ों में टूटते देश की परिस्थितियों में काफी हद तक अपने आप को ढाल चुके थे ,बहुत कुछ बदल रहा था जैसे सोवियत संघ  के जिन हिस्सों में  पहले बिना किसी औपचारिकता के बेधड़क जाया जा सकता था अब वहाँ  जाने के लिए अचानक से वीजा  की जरुरत पड़ने  लगी थी. परन्तु बदलाव इतनी त्वरित गति से हो रहे थे कि कुछ भी सही ढंग से हो पाना  मुश्किल होता था .जहाँ समर जॉब के आदी लोग हर साल देश के बाहर जाया करते थे, छुट्टी मनाया करते  थे  अब आर्थिक परेशानियों और राजनैतिक मुश्किलों की वजह से अपने इलाके में ही सीमित  होकर रह जाते थे.पर फिर भी छात्रों का बिना वीजा – आस पड़ोस जैसे  पोलेंड,ग्रीस की सीमायें पार करके घूमने जाना भी सुनाई देता था . अचानक परिवर्तन से स्तंभित लोग बहुत  बार इन चीज़ों को नजरअंदाज कर दिया करते थे कि शायद अब तक उन्हें इस बारे में पता ना चला हो.और इसी तरह एक बार हमने भी रिस्क लेने का सोचा और तालिन ( एस्टोनिया की राजधानी ) घूमने का कार्यक्रम बनाया. हम कुल मिलाकर पांच लोग थे जिसमें से एक कपल  था और तीन  हम सहेलियां. ट्रेन से जाना था और वीजा लेने में बहुत झंझट था सो हमने टिकट  खरीदा  और निकल पड़े .ट्रेन में पहुँच कर पता चला कि दूसरे ही डिब्बे में हमारे और तीन  मित्र भी हैं इन्हीं  हालातों में. खैर हम अपने कूपे में आये और तय किया गया कि बोर्डर पर ट्रेन रात करीब ११ बजे पहुँचती है और उस वक़्त सबको अपनी सीट पर जाकर सोने का नाटक करना होगा हमने सुन रखा था कि ज्यादातर लड़कियों पर सख्ती नहीं की जाती और उन्हें बिना  वीजा के भी कई बार इजाजत मिल जाती है. हमारे साथ के एकलौते पुरुष ने हमें हिदायतें दीं कि कोई भी अपनी रूसी का ज्ञान नहीं बघारेगा और चुपचाप सोया रहेगा और कुछ पूछा जाये तो टूटी फूटी रूसी  में जबाब देगा तो जी  हम चुपचाप राजा बेटा की तरह जाकर अपनी सीट पर सो गए .सही समय पर चैकर आया और टिकट  और वीजा दिखाने को कहा हमारे उस मित्र ने बड़ी मासूमियत से पाँचों टिकट  दिखा दीं अब उसने पूछा वीजा? तो वो बड़ी बड़ी आँखें फाड़ कर उसे ऐसे घूरने लगा जैसे किसी दुसरे ग्रह के प्राणी का नाम ले लिया हो हम भी अपनी चादरों से मुँह  निकाल कर उसे घूरने लगे, कि वो क्या होता है हमें तो किसी ने बताया ही नहीं कि वह भी चाहिए होता है. वह  भी माशाल्लाह रूसी में .बेचारा चैकर हमारी रूसी पर तरस खाने लगा और ४-४ लड़कियों को देखकर उसने हमें समझाया कि इतनी रात को मैं तुम लोगों को नीचे नहीं उतारना चाहता .और बदलते नियम अनुसार वीजा की जरुरत को समझाता हुआ चला गया, और हम सब बैठकर अन्ताक्षरी खेलने लगे तभी ट्रेन चल पडी और खिड़की से कुछ हाथ हमें हिलते हुए दिखे .समझ में आया की दूसरे डिब्बे के उन तीन लडको को नहीं बक्शा गया था और आधी रात में सामान सहित उन्हें वहीँ उतार दिया गया था.उस दिन अपने लडकी होने पर हमें और भी अभिमान हो आया और सारे रास्ते हम उस पुरुष मित्र पर एहसान जताते गए कि हमारी वजह से बच गया वह , नहीं तो उन तीन के साथ वह  भी प्लैटफार्म पर होता .अब वह बेचारा ४ लड़कियों के आगे बोलता भी क्या .खैर तालिन की वह यात्रा बहुत ही सुखद रही.वैसे अपने लडकी होने का  ये आखिरी फायदा हमने उठाया हो ऐसा भी नहीं था.रूसी लोग लड़कियों का बहुत ख्याल रखते हैं .वैसे रिवाज़ तो ये बाकी जगह भी है पर लागू कितना होता है ये अलग बात है .
२६ न०.ट्राम जिससे हम होस्टल से यूनिवर्सिटी जाते थे .
हां की ट्राम  में आते जाते हमें तब बड़ा गुस्सा आता था जब हम बैठे हुए होते थे और कोई मोटी  रूसी महिला खरीदारी के थैले  पकडे आ खड़ी होती थी और कहती थी “मोजना पसिदित ? या उस्ताला ओचिन “(क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ ? बहुत थक गई हूँ )और हम मन मार कर सीट से उठ जाते थे कि “हद है क्यों करती हैं इतनी खरीददारी जब नहीं झेला जाता तो”, हम भी तो सारा दिन यूनिवर्सिटी  के चक्कर काट कर थक जाते हैं ” पर बस भुनभुनाते रह जाते थे, कर कुछ नहीं पाते थे .इसी क्रम में एक दिन हम कुछ सहेलियां ट्राम  में जा रहे थे तभी एक रूसी लड़का और एक लडकी बस में घुसे, आते ही सामने वाली सीट पर बैठी एक औरत से उस लड़के ने कहा ” अना व्रेमन्नाया बुदिते द्विगात्स्या ने मनोश्का पजालुस्ता  ” (यह गर्भ से है कृपया थोडा खिसकेंगी  ) और वह  महिला पज़लुस्ता पज़लुस्ता (प्लीज़ )करती  खड़ी  हो गई और बड़े प्यार से उस लडकी को बैठाया ..हमारे सब के  दिमाग में १०० वाट का बल्ब जल चुका था और आँखें  चमकने लगीं थीं . उसके बाद हममे से कोई भी अगर बहुत थका होता था तो उसे कभी भी अपनी जगह से नहीं उठाना पड़ता था…पर वाकई अगर कोई जरूरतमंद होता था तो उसे हम अपनी सीट दे दिया करते अब इतने भी बैगेरत नहीं थे..
 हम अपने पाठ्यक्रम के चौथे वर्ष में आ पहुंचे थे …..बाकी ब्रेक के बाद 🙂


Monday, November 8, 2010

टूटते देश में बनता भविष्य.(मेरा रूस प्रवास.)

कड़कती सर्दी में क्रेमलिन.
जब मैंने अपने रूस प्रवास पर यह पोस्ट लिखी थी तो जरा भी नहीं सोचा था कि इसकी और भी किश्ते लिखूंगी कभी .बस कुछ मजेदार से किस्से याद आये तो सोचा बाँट लूं आप लोगों के साथ. परन्तु मुझे सुझाव मिलने लगे कि और अनुभव लिखूं और मैं लिखती गई जो जो याद आता गया. पर  यहाँ तक पहुँचते पहुँचते फरमाइशें  होनी लगीं कि और लिखो, और इसे किताब का या उपन्यास का रूप दे दो. यहाँ तक कि एक मित्र ने इसे छपवाने की भी जिम्मेदारी ले डाली .परन्तु उपन्यास तो क्या एक लघुकथा लिखना भी मेरे बस की बात नहीं .ये तो बस स्मृति पटल पर अंकित कुछ यादगार लम्हें हैं, कुछ जिन्दगी के तजुर्बे जो जस का तस मैं शब्दों में उतार देती हूँ .किताब बने ना बने परन्तु आप लोगों का सुझाव सर माथे. तो जितना भी हो सकेगा मैं लिखती रहूंगी.कम से कम ये पल मेरे खजाने में सजे रहेंगे.
वोरोनेज़ से फाऊंडेशन  कोर्स के बाद मॉस्को  में मेरे पोस्ट ग्रेजुएट  डिग्री का पाठ्यक्रम पांच  साल (१९९१- १९९६ )का था. और पेरेस्त्रोइका के बाद रूस का चेहरा तीव्रता  से बदल रहा था. राजनैतिक  हलचल से तो हमें उस समय ज्यादा सरोकार नहीं हुआ करता था परन्तु सामाजिक परिस्थितियां भी आश्चर्य जनक ढंग से बदल रही थीं .अपने देश और संस्कृति पर गुमान करने वाले रूसी, रूस को छोड़कर बाहर मुल्कों में जाकर बसने की चाह रखने लगे थे. जो कि रूसी भाषियों के लिए बेहद मुश्किल था.अंग्रेजी आने पर भी सिर्फ रूसी बोलने वाले रूसी अब अंग्रेजी और फ्रेंच सीखना चाहते थे. अपने रूबल पर नाज़  करने वाले लोग रूबल को डॉलर  में बदल कर जमा करने लगे थे क्योंकि रूबल का मूल्य हर दिन तेज़ी से गिर रहा था. 
आर्थिक तंगी का असर लोगों के काम पर उनके व्यक्तित्व पर जाहिर तौर पर पड़ रहा था और हल्के- फुल्के रिश्वत जैसे भ्रष्टाचार की नींव पडने  लगी थी. बाजार बाहरी देशो के लिए खुलने लगा था जहाँ मोस्को में गूम और सूम नाम के २ बड़े बड़े सरकारी मॉल थे वहां अब इटालियन और अमेरिकेन ब्रांड के बड़े बड़े शो रूम्स खुलने लगे थे और उनके प्रति जनता का आकर्षण स्वाभाविक था. 
गूम विशालकाय डिपार्टमेंटल  स्टोर.
इन्हीं सब परिवर्तन के चलते छोटी मोटी  सुविधाएँ विदेशी लोग हासिल कर लिया करते थे .वैसे पहले साल में हॉस्टल में एक कमरे में ५ लोगों के रहने का प्रावधान था .परन्तु वार्डन को बहला कर लोग अपने कमरे में ऐसे  २-३ छात्रों का नाम लिखवा लिया करते थे जो होस्टल में ना रहकर कहीं और  रहा करते थे और इस तरह एक बड़े कमरे में ज्यादा से ज्यादा ३ लोग ही रहा करते थे और उसे भी अपनी निजता की सुरक्षा के लिए लकड़ी के पट्टों से बाँट लिया करते थे और थोड़ी सी कोशिश के बाद पूरा एक कमरा भी मिल जाया करता था .वैसे एक कमरे में एक ही लिंग के छात्रों के रहने का नियम था परन्तु किसी के भी किसी वक़्त भी आने जाने की कोई पाबंदी नहीं थी .और जब तक आपके साथ वाला साथी शिकायत ना करे किसी भी काम की कोई मनाही नहीं थी. मतलब  यह कि हमारा होस्टल का कमरा होस्टल का नहीं बल्कि किसी होटल का सा था, जिसके एक छोटे से हिस्से में हम अपना रसोई भी बना लिया करते थे .हालाँकि पहले साल हमने होस्टल के कैफे  में खाकर ही गुजारा  जबकि ज्यादातर विदेशी छात्र रूसी स्वाद के अभ्यस्त ना होने के कारण अपने कमरे में ही खाना बनाया करते थे .परन्तु हमें बचपन से ही सिखाया गया था जैसा देश वैसा भेष . और हमारी किस्मत भी  ऐसी थी कि हमें हमेशा ही अलग कमरा मिला या फिर किसी विदेशी के साथ तो खुद के अकेले के लिए खाना बनाने में बड़ा आलस आता था और हम मजे से कैफे  में रूसी पकवानों को भारतीयता के रंग में ढाल कर खाया करते थे .जैसे बोर्ष  ( रूसी चुकंदर का सूप ) से मीट निकाल  कर , या मैश  पटेटो में टमाटर की ग्रेवी डाल कर.  
 बोर्ष एक रूसी सूप.
पर धीरे धीरे इससे ऊब होने लगी तो हमने भी एक छोटी सी हॉट प्लेट  खरीद कर अपने कमरे में रख ली , हालाँकि कमरों में किसी भी प्रकार की कुकिंग  की इजाजत नहीं थी .परन्तु वे  छात्र ही क्या जो नियमों के मुताबिक काम करें? तो हर कमरे में हॉट प्लेट पाई जाती थी . और यह  वहाँ  की वार्डन  को भी पता था पर शायद छात्रों की मजबूरी वे  भी समझा करती थीं , तो जब भी रूम चैकिंग  होती तो, कोरिडोर से ही चिल्लाती हुई आती थीं, जिससे कि सब सतर्क हो जाएँ और हॉट प्लेट  कहीं पलंग- वलंग  के नीचे छुपा दें .और वो आकर ऊपरी  तौर पर चैकिंग  करके चली जाया करती थीं .हॉट प्लेट  के आते ही हमारे भारतीय स्वाद तंतु जाग्रत हो उठे थे और हमने सब्जी ,चावल ,दाल ( जितनी भी वहां  मिलती थीं :)) बनाना  शुरू कर दिया था. फ्रिज ,टीवी भी खरीद लिया था और एक तरह से हमारा एक कमरे का छोटा सा घर बस चुका था.वैसे फ्रिज की जरुरत वहां सिर्फ २ महीने ही पड़ती थी बाकी समय इतनी ठण्ड होती थी कि खिड़की के बाहर ही लोग एक टोकरी बाँध देते थे या थैला  ही लटका देते थे और वो डीप – फ्रीजर बन जाया करता था .खैर घर तो हमारा बस गया अब बारी कैरियर बनाने की थी – रूसियों के साथ उनके स्तर पर पढना नामुमकिन  था क्योंकि रूसी भाषा की पहली सीढी पर ही थे हम .पर विदेशी साथियों के साथ पढना टेडी खीर था.८०% छात्रों को सिर्फ पास होने से मतलब था जो वो किसी ना किसी तरह हो ही जाया करते थे उनके बीच रहकर आप पढाई करो या क्लासेस  ठीक से जा पाओ उसके लिए काफी इच्छा शक्ति की जरुरत थी.तो पहला साल तो उनसे अलग थलग रह कर अच्छे बच्चों की तरह नियमित क्लास जाते रहे पूरी निष्ठा से पढाई करते रहे और उसका फल भी हमें मिला परन्तु दूसरे  साल तक आते आते हमें भी होस्टल के छात्र जीवन की हवा लगने लगी दोस्तों के साथ एक पार्टी का मतलब होता था २ दिन की क्लास बंक .और इसी गफलत में हमने भी यही तरीका इख्तियार कर लिया .”.हो जायेगा यार ..एक्जाम्स में देख लेंगे “.और इसी चक्कर में एक बार- पहली और आखिरी बार, हम समय से एक टेस्ट नहीं दे पाए. हालाँकि ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लोग आगे पीछे ये सब किया करते थे अपनी और टीचर की सुविधा अनुसार टेस्ट की डेट फिक्स की जा सकती थी और उसमें मार्क्स नहीं सिर्फ पास- फेल  मिलता था परन्तु हमें रातों को डरावने सपने आने लगे थे कि भारत लौटने का समय हो गया है और हमारा वो टेस्ट अब तक क्लीअर नहीं हुआ .वो दिन था… हमने फैसला कर लिया सारी खुदाई  एक तरफ और पढाई एक तरफ. उसके साथ कोई भी समझौता हम नहीं करेंगे .और तब से हर टेस्ट और एक्ज़ाम समय से भली भांति  देते रहे .
वैसे पश्चिमी देशों की शिक्षा  व्यवस्था  के तहत ये कोई बहुत मुश्किल काम मुझे नहीं लगता था .भारत की रट्टू और किताबों पर आधारित शिक्षा के विपरीत वहां शिक्षा  प्रैक्टिकल  और व्यक्ति आधारित होती थी .अगर आपने सारे लेक्चर  और सेमिनार ईमानदारी  से अटेंड  किये हैं और थोड़ी भी गंभीरता से पढाई को लिया है तो घंटों किताबों  को लेकर बैठने  की जरुरत नहीं थी.वहां चैखव  की रचनाओं की व्याख्या करने के लिए किसी और की लिखी  पुस्तक या कुंजी की जरुरत नहीं थी आपके खुद के विचारों की और समझ की जरुरत थी .आप पहले लिखी किताबों से मार्गदर्शन तो पा सकते हैं  परन्तु अंतिम विचार और इम्तिहान  आपकी अपनी क्षमता और बुद्धि  ,विचार पर निर्धारित होता है. 
खैर होस्टल, दोस्त और पढाई तीनो में संतुलन बन चुका था और रूस में हमारी गाड़ी  काफी हद तक पटरी पर आ गई थी.
बाकी फिर कभी :). 

Tuesday, November 2, 2010

लुप्तप्राय संस्कृति ..क्या साजिश.....?

दिवाली 
कहने को भारत में त्योहारों का मौसम है , दिवाली आ रही है .होना तो यह चाहिए कि पूरा देश जगमग कर रहा हो,उमंग से सबके चेहरे खिल रहे हो .जैसे बाकी और काम सब अपनी क्षमता अनुसार करते हैं ऐसे ही अपनी अपनी क्षमतानुसार सभी त्योहार  मनाये और एक दिन के लिए ही सही, अपनी समान्तर चलती जिन्दगी में कुछ बदलाव हो ,अपनी सारी  परेशानियाँ , अपने दुःख भूल जाये .पर क्या वाकई त्योहारों का अस्तित्व रह गया है हमारे समाज में ? कुछ अत्याधुनिकता की होड़ में छूट गए हैं तो कुछ  को सामाजिक समस्याओं और परिवेश के सवालों तले  दबा दिये  जा रहे है .बात जहाँ तक प्रदूषण की है तो क्या पहले ये हवाई जहाज , जहरीला धुंआ उगलती फैक्ट्रियां ,और घरों में दुकानों में ए सी लगने बंद नहीं  होने चाहिए ,पहला प्रहार त्योहारों पर ही क्यों?..
होली जैसा मेल मिलाप का त्योहार  अब सिर्फ कुछ गांवों – कस्बों तक ही रह गया है क्योंकि हम आधुनिक लोग उन रंगों से गन्दा नहीं होना चाहते. हमारे आलीशान घर उन रंगों से खराब होते हैं तुर्रा यह है कि अब रंग नकली आते हैं . अरे उन नकली रंगों को बनाने वाला है कौन ? हम ही ना .जबकि स्पेन में टमाटरों की होली जोरशोर से खेली जाती है. करोड़ों  टन टमाटर बर्बाद  कर दिया जाता है.कितने ही लोग इस आपाधापी में हलके फुल्के घायल भी हो जाते हैं और उसके बाद होता है सफाई अभियान , जिसमें बच्चे बड़े सभी शामिल होते हैं. उन्हें अपने त्यौहार पर शर्म नहीं आती.
.स्पेन का टमाटर उत्सव.
नवरात्रों में दुर्गा पूजा में पांडाल लगाने से लोगों को एतराज़ है कि इतना पैसा जाया होता है ..कोई बताये कि क्या ये रोक कर गरीबी रोक सकेंगे ये ?क्या  इन पंडालों में गरीबो का पैसा लगता है ? ये रोक भी दिया गया तो क्या ये बचा हुआ पैसा गरीबों तक जायेगा?नहीं ..पर हाँ इस उत्सव से जो हजारों परिवार को रोजगार मिलता है ,जिससे उनका पूरा साल रोटी मिलती है, वो जरुर बंद हो जायेगा ,और भारतीय संस्कृति से जुड़ा एक त्योहार  आधुनिकता,और पूँजीवाद  की वेदी  पर चढ़ जायेगा.मुझे याद है आज से ४-५ साल पहले एक साल   नवरात्रों के दौरान मैं भारत में थी . तो जिस भी तथाकथित सभ्य  और पढ़े – लिखे परिवार की कन्यायों को मैने पूजा के लिए बुलाना चाहा   तो जबाब मिला ” अब कौन ये सब करता है ,बच्चों को एक तो दिन मिलता है वो अपने वीडियो गेम खेलते हैं अपने दोस्तों के साथ, ये पूजा वूजा में कौन जाना चाहता है.ये सब तो बस अब काम वाली बाइयों के बच्चों तक ही रह गया है. वो आयेंगे उन्हें प्रसाद  दे देना आप.बात ये थी कि उनके साथ अपने बच्चों को भेजने में उन्हें गुरेज़ था .ये वही लोग हैं जो अपने  ड्राईंग   हॉल में बैठकर गरीब बच्चों की दशा पर “च च च वैरी सेड”  कहते हुए चर्चा करते हैं.
अभी रश्मि ने एक बहुत ही मार्मिक पोस्ट री  शेयर  की थी जिसमें पटाखे  बनाने वाले बच्चों की  करुण स्थिति का वर्णन था .पढ़कर रोंगटे  खड़े हो जाते हैं,बहुत दुःख होता है .उस पोस्ट की मूल भावना के प्रति मेरा पूरा सम्मान है उस दशा को किसी भी तरह सही नहीं कहा जा सकता. 
पर मेरे दिमाग में बहुत से सवाल कौंधने  लगे  कि क्या ये हालात बच्चों के  सिर्फ पटाखे बनाने से ही है ?क्या इन कारखानों में सिर्फ बच्चे ही काम करते हैं?इन पटाखे बनाने वाले  कारखानों में  दिवाली के बाद क्या  ताला लग जाता है ? जहां  तक मुझे ज्ञात है जितने पटाखों का प्रयोग दिवाली के समय होता है उससे कही ज्यादा शादी विवाह के समारोहों और अन्य सामाजिक समारोहों में वर्ष पर्यंत होता है . ये सर्व विदित है कि दियासलाई का उत्पादन भी उन्ही कारखानों में होता है और उसके उत्पादन में प्रयुक्त गंधक भी हानिकारक तत्व है .जरुरत है जागरूकता की ,कि  इन कारखानों में बच्चो को काम ना दिया जाए  ना कि पटाखे का उत्पादन ही बंद कर दिया जाय . ऐसा कौन सा विकसित या विकासशील देश है जो पटाखे का उत्पादन नहीं करता है?
क्या जो बच्चे इस काम में लिप्त नहीं वो सब अपना अधिकार पा रहे हैं, अपना बचपन पा रहे हैं ? उन बच्चों का क्या जो CWG के दौरान दिन रात मजदूरी करते रहे ?उसे गुलामी के भव्य स्वागत को तो हमने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ा पर अपनी संस्कृति और त्यौहार मनाने के लिए हमें समस्याएं दिखती हैं,क्या उन बच्चों का जो ढाबों पर बर्तन घिसते हैं या ट्रेन में सारा दिन चाय बेचते हैं .क्या उन बच्चों का जो हर साल ठण्ड से दम तोड़ देते हैं .क्या ये बेहतर नहीं कि कोई काम ही बंद करने की जगह उसे करने के तरीके में और उसकी हालात में सुधार  किया जाये.
पश्चिमी देशों में भी १३ साल के बाद बच्चों को काम करने की इजाजत है  और बच्चे करते भी हैं. हाँ कुछ नियम जरुर है कि कुछ खास बच्चों के लिए अनुपयुक्त  जगह उन्हें काम करने की इजाजत नहीं या एक समय अवधि में ही काम करने की इजाजत है और वो भी पढाई के साथ .और उपयुक्त परिवेश ,माहौल  और सुविधाओं के साथ..उन्होंने काम करने के तरीकों में सुधार किया ना कि काम ही बंद कर दिया.और जरुरत मंद बच्चों से उनका रोजगार ही छीन लिया . .. 
अभी यहाँ एक साहित्यक गोष्ठी में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों को सुनने का मौका मुझे मिला वहां हिंदी की स्थिति पर बोलते हुए एक महानुभाव ने कहा कि हिंदी को जड़ से मिटाने  की ये पश्चिमी देशों की सोची समझी साजिश है पश्चिमी  देशों से लाखों ,करोड़ों  में रकम भारत को जाती है सिर्फ इसलिए कि अपने पत्रों में पत्रिकाओं में कुछ प्रतिशत अंगेरजी शब्दों का इस्तेमाल  किया जाये उनका इरादा है कि ये कुछ प्रतिशत धीरे धीरे बढ़ता जाये और एक दिन हिंदी नाम की लिपि को ही अदृश्य  कर दिया जाये .क्या यही वजह नहीं हो सकती हमारे त्योहारों में कमियां निकालने की ?दुनियाभर  में पटाखे  जलाकर हर उत्सव मनाया जाता है .उन्हें कोई क्यों नहीं कहता कि इससे प्रदूषण होता है इसे बंद किया जाये.
हमें ग्लोबल वार्मिंग का बहाना  देकर कहा जाता है के आधुनिकरण रोकें पर दुनिया में लॉस वेगास ,और डिस्नी लैंड जैसी अनगिनत जगहों पर बेशुमार तकनीकियों का बिजली के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है
लॉस वेगास 
अमेरिका जैसे विकसित देश हमसे कई गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते है लेकिन धरती सम्मलेन में वो हमारे ऊपर दबाव डालते है कि हमे इन गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रयास करने चाहिए 
उनसे कोई उन्हें बंद करने के लिए क्यों नहीं कहता ?हमसे साल में एक त्यौहार मनाने को मना किया जाता है,क्योंकि हम तो हैं ही सर्वग्राह्य , सबकी बातें सुनेंगे और अपनी ही संस्कृति को कोसेंगे .और एक दिन इन्हीं साजिशों को समझदारी और सुधार का जामा  पहना कर अपनी संस्कृति स्वाहा  कर देंगे..

यू के में नया साल.
(तस्वीरें गूगल से साभार )