Monday, October 11, 2010

पर्दा धूप पे

ना जाने कितने मौसम से होकर

 गुजरती है जिन्दगी
झडती है पतझड़ सी 
भीगती है बारिश में 
हो जाती है गीली 
फिर कुछ किरणे चमकती हैं सूरज की 
तो हम सुखा लेते हैं जिन्दगी अपनी 
और वो हो जाती है फिर से चलने लायक 
कभी सील भी जाती है
जब कम पड़ जाती है गर्माहट
फिर भी टांगे रहते हैं हम उसे 
कड़ी धूप के इन्तजार में  
आज निकली है छनी सी धूप 

पर फिर से किसी ने सरका दिया है पर्दा 

मेरी जिन्दगी पर पड़ती हुई  धूप पे   .

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