Tuesday, October 26, 2010

चलो अरुंधती राय बन जाएँ

भूखे नंगों का देश है भारत, खोखली महाशक्ति है , कश्मीर से अलग हो जाना चाहिए उसे .और भी ना जाने क्या क्या विष वमन…पर क्या ये विष वमन अपने ही नागरिक द्वारा भारत के अलावा कोई और देश बर्दाश्त करता ? क्या भारत जैसे लोकतंत्र को गाली देने वाले कहीं भी किसी भी और लोकतंत्र में रहकर उसी को गालियाँ दे पाते?.वाह क्या खूब उपयोग किया जा रहा है अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों का……
हाँ हम काबिल हैं कितने  
कुछ इस तरह दिखायें
उसी लोकतंत्र का ले सहारा 
गाली उसी को दिए जायें
ले औजार  भूखे नंगों का 
अंग-अंग देश के चलो काटें 
बैठ आलीशान कमरों में 
सुलगता मुद्दा कोई उठाएं 
अपनी ही व्यवस्था को कर नंगा 
पुरस्कार कई फिर पा जायें
हो क्यों ना जाये टुकड़े देश के 
अपनी झोली तो हम भर पाएं 
उठा सोने की कलम हाथ में 
चलो हम अरुंधती राय बन जायें

Wednesday, October 20, 2010

ऐसा भी है लन्दन...


संसार एक मुट्ठी में .यही भाव आता है आज का लन्दन देख कर .लन्दन का नाम आते ही ज़हन  में एक बहुत  ही आलीशान शहर की छवि उभरती हैं .बकिंघम पेलेस, लन्दन ब्रिज, लन्दन आई, मेडम तुसाद  और भी ना जाने क्या क्या. 
पर इन सबसे अलग एक लन्दन और भी है, एक ऐसा शहर जो सारी दुनिया खुद में समाये हुए है आज ऐसे ही लन्दन से आपकी मुलाकात कराती  हूँ. जहाँ आज लगभग ९० विभिन्न समुदायों के लोग निवास करते हैं और जहाँ ३०० से ज्यादा भाषाए बोली जाती हैं.जिनमें बंगाली, गुजरती, मेंडरीन, कौन्टेसी  और  प्रमुख हैं.और इसी एक पॉइंट पर लन्दन २०१२ में होने वाले ओलम्पिक खेलों का मेजबान बन गया. 
लन्दन अनुसन्धान केंद्र के आंकड़े बताते हैं कि यहाँ ३३ विभिन्न समुदायों के १०;०००  से ज्यादा ऐसे लोग रह रहे हैं जो इंग्लैंड  से बाहर पैदा हुए हैं. और इसके अलावा  १२ और विभिन्न समुदाय के ५००० से ज्यादा लोग यहाँ रहते हैं .प्रतिवर्ष यहाँ आने वाले आगंतुकों की संख्या १३ मिलियन हो चुकी है और २०१२ तक इनके बढ़ने  की पूरी उम्मीद है .अमेरिका फ़्रांस ,जर्मनी ,इटली ,पोलेंड और स्पेन के बाद २०१२ में लन्दन में  सर्वाधिक आगंतुकों के आने की उम्मीद के मद्देनजर पूर्वी और मध्य यूरोप  की संस्कृति की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यहाँ के स्वं  सेवक  उनकी भाषाएँ पूरे जोश से सीख रहे हैं.
लन्दन हमेशा से कला और संस्कृति का गढ़ रहा  है .जहाँ चर्च  ऑफ़ इंग्लैंड  प्रमुख है वहीँ विभिन्न समुदायों के धार्मिक स्थलों की  भी कोई कमी नहीं है. 
एक दक्षिण भारतीय मंदिर                                  खूबसूरत गुरुद्वारा.
लन्दन के हर हिस्से में एक छोटा भारत ,चीन , बंगाल या रूस दिखाई पड़ जाता है .शायद इतनी विभिन्न चीज़ें आपने अपने देश में भी ना देखी हों जो यहाँ बहुत ही सहज रूप से मिल जाती हैं .हर इलाके में मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा दिखाई दे जाता है जहाँ अपने अपने धर्म की शिक्षा दी जाती है.बच्चों को उनकी अपनी संस्कृति से अवगत कराया जाता है. 
इंग्लैंड आमतौर पर अपने भोजन के लिए नहीं जाना जाता है उनका तो ले दे कर फिश एंड चिप्स है बस .इसलिए बाकी दुनिया के भोजन का यहाँ बहुत प्रभाव है खासकर भारतीय भोजन का.अब इतने साल भारत का आतिथ्य  मिला है उन्हें, तो आदत तो लग ही जाएगी ना .लन्दन के हर मोड़ पर “इंडियन टेक अवे” मिल जाता है जहाँ चिकेन टिक्का मसाला, तंदूरी चिकेन ,नान और बासमती चावल इंग्लॅण्ड वासियों के मध्य बहुत लोकप्रिय हैं .
लन्दन के हर इलाके में भारतीय परंपरा के अनुसार कपड़ों की ,राशन की ,और खाने पीने  के स्थलों की भरमार है. यहाँ तक कि ठेले और आवाज़ लगाकर बुलाते सब्जी और फल वाले भी मिल जाते हैं. 
भारतीय श्रृंगार आभूषण और परिधान.
फलों का ठेला.
कोई ऐसी वस्तु   नहीं जो यहाँ नहीं मिलती चाहे वो शादी के लिए कपडे हों या पूजा के लिए गजरे .कोई ऐसा पकवान नहीं जो यहाँ उपलब्ध ना हो .चाहे वो सर्वाना  भवन का डोसा हो या गुजराती थाली ,गन्ने का रस हो या देसी पान की  दूकान .सब कुछ हर इलाके में बहुत सहजता से उपलब्ध है . 
सरवना  भवन और उसका डोसा.
यूँ अगर  सेंट्रल लन्दन के कुछ हिस्से छोड़ दिए जाएँ तो बाकी जगह पर हर दूसरा आदमी एशियन ही नजर आता है यानि आप पत्थर फेंको तो शर्तिया किसी भारतीय, पाकिस्तानी,बंगलादेशी या श्रीलंकन पर ही गिरेगा .इसका एक कारण ये भी है कि  ब्रिटिश ,अलग थलग रहने वाले ,रूखे और विनम्र लोग माने जाते हैं. अत: वे  मुख्य
शहर की भीड़ में रहना पसंद नहीं करते और शहर के बाहर रहना ज्यादा पसंद करते हैं .और उन्हें प्रभावित करना बहुत मुश्किल होता है.
लन्दन आज बहुआयामी संस्कृति ,फैशन ,मीडिया और मनोरंजन का केंद्र बना हुआ है..
नवरात्रों के समय हर इलाके में थोड़ी थोड़ी दूरी पर गरबा रास का आयोजन होता है ,बड़े बड़े होलो में दुर्गा पूजा के लिए भव्य मूर्तियाँ स्थापित की  जाती हैं .तो ईद और  दिवाली पर बच्चों को स्कूल से छुट्टी भी दी जाती है .यहाँ तक की ट्रेफेल्गर स्क्वायर  में दिवाली का भव्य रंगारंग कार्यक्रम भी किया जाता है 
दुर्गा पूजा.
भारत में रिलीज  होने वाली हर हिंदी फिल्म लन्दन में भी उसी दिन रिलीज की जाती है. हर समुदाय और देश के लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन होते रहते हैं.और किसी भी समुदाय के लिए लन्दन अपनों से दूर एक ऐसा अपना घर है जहाँ रहते हुए अपने देश से दूर रहने का अहसास उन्हें नहीं सालता.  

Monday, October 11, 2010

पर्दा धूप पे

ना जाने कितने मौसम से होकर

 गुजरती है जिन्दगी
झडती है पतझड़ सी 
भीगती है बारिश में 
हो जाती है गीली 
फिर कुछ किरणे चमकती हैं सूरज की 
तो हम सुखा लेते हैं जिन्दगी अपनी 
और वो हो जाती है फिर से चलने लायक 
कभी सील भी जाती है
जब कम पड़ जाती है गर्माहट
फिर भी टांगे रहते हैं हम उसे 
कड़ी धूप के इन्तजार में  
आज निकली है छनी सी धूप 

पर फिर से किसी ने सरका दिया है पर्दा 

मेरी जिन्दगी पर पड़ती हुई  धूप पे   .

Tuesday, October 5, 2010

क्या इतिहास फिर से दोहराएगा खुद को ?

अभी हाल ही में स्थानीय समाचार पत्र में एक समाचार आया कि एक दंपत्ति ने अपने बच्चे का एक स्कूल में रजिस्ट्रेशन  उसके पैदा होने से पहले ही करा दिया .क्योंकि उन्हें डर था कि समय पर उन्हें उनके इलाके का और उनकी पसंद का स्कूल नहीं मिलेगा और वो अपनी पसंद के प्रतिकूल  स्कूल में बच्चे को भेजने के लिए विवश होंगे.

 जी हाँ आजकल ये एक ज्वलंत विषय है जो इंग्लैंड  और खासकर लन्दन और इसके  आस पास रहने वाले लोगों को सालता रहता है .आज से पांच  साल पहले तक ये एक ऐसा मुद्दा हुआ करता था जिसपर माता – पिता को सोचने की कतई जरुरत महसूस नहीं हुआ करती थी .बच्चा ५ साल का हुआ तो बस जाकर रजिस्टर  करा दो जिस इलाके में आप रह रहे हैं वहां के सबसे पास के स्कूल में आपके बच्चे का दाखिला हो जायेगा .कोई चिंता नहीं कोई परेशानी नहीं .

पर विगत कुछ वर्षों से हालात गंभीर हो गए हैं .
इंग्लैंड जहाँ ९०% बच्चे पब्लिक (सरकारी ) स्कूलों  में जाते हैं और जहाँ ५ से १६ साल तक सभी के लिए शिक्षा  अनिवार्य है .यहाँ की शिक्षा व्यवस्था के अनुसार आप जहाँ रहते हैं आपका बच्चा उसी इलाके के स्कूल में पढने का अधिकारी है .परन्तु धीरे धीरे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. और कुछ खास अच्छी छवि वाले स्कूलों में  अपने बच्चों को पढ़ाने के चाव में माता पिता उसी इलाके में आकर रहने  लगे. 
अब आलम ये है कि स्कूल कम हैं और बच्चे ज्यादा . नियम  के मुताबिक एक क्लास में ३० से ज्यादा बच्चे नहीं हो सकते क्लासों  में सीट नहीं हैं. और इसलिए आप के समीपतम इलाके के स्कूल में जगह नहीं है, तो जहाँ भी जिस स्कूल में जगह है, आपके बच्चे को वहां दाखिला दिया जायेगा और आप उससे इंकार नहीं कर सकते क्योंकि बच्चा अगर ५ साल का हो गया है तो आपको उसे स्कूल भेजना होगा फिर बेशक वो कितना भी दूर क्यों ना हो ..और उसे कैसे भेजना है और लेकर आना है ये भी आपका सर दर्द है क्योंकि आपके रिहायशी इलाके के ही स्कूल में आपका बच्चा पढ़ेगा  इस व्यवस्था के मद्देनजर स्कूल बस नाम की कोई व्यवस्था यहाँ नहीं है.  नतीजा ये कि २-२ घंटे बस से सफ़र करके माता -पिता बच्चों को स्कूल लाने .लेजाने के लिए विवश हैं वो भी अपनी नापसंदगी के स्कूल में भेजने को भी.एक ऐसे देश में जहाँ माता पिता दोनों को ही जीवन निर्वाह के लिए धन कमाना पड़ता है ,उनका सारा वक़्त बच्चों को स्कूल छोड़ने और वहां से लेकर आने में ही व्यतीत हो जाता है और वे कुछ भी और करने के लिए समय नहीं निकाल पाते .वही निशुल्क शिक्षा होते हुए भी एक बड़ी राशि परिवहन  के साधनों में चली जाती है .जाहिर है बच्चों की शिक्षा माता पिता के लिए सरदर्द बनता जा रहा है. 
वैसे तो इंग्लेंड में ५ से १६ साल तक की शिक्षा पूर्णत: निशुल्क है परन्तु अब सरकारी फंड की कमी के चलते स्कूलों से अभिभावकों के चंदा देने की गुजारिश की जा रही है .
कुछ जानी पहचानी व्यवस्था की ओर इशारा नहीं करती ये समस्याएं ? 
शायद भारत में भी शुरू में यही शिक्षा  व्यवस्था थी ..धीरे धीरे सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर  के चलते निजी  स्कूलों का प्रचलन बढ़  गया और आज स्थिति क्या है ये हम सब जानते हैं .
जहाँ तक इंग्लैंड का सवाल है यहाँ भी स्थिति भी मुझे उसी ओर जाती दिखाई दे रही है .जब माता पिता को अपनी पसंद के अनुकूल स्कूल  में बच्चे का दाखिला नहीं  मिलेगा तो वो कोई ओर रास्ता ढूंढेगा
 . इसी राह पर निजी  स्कूल ज्यादा बनने लगेंगे और शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले लेगी. फिलहाल यहाँ के निजी स्कूलों की फीस सिर्फ बहुत उच्च वर्ग की ही क्षमता में है. और धीरे धीरे वही हालात होंगे  जो आज भारत के  है सरकारी स्कूलों में सिर्फ वही बच्चे पढेंगे  जिनके अभिभावक निजी  स्कूलों की महंगी फीस  दे पाने में असमर्थ हैं .
एक समय था जब भारतीय विद्यालयों  में देश विदेश से भारी संख्या में छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे  .कहते हैं वक़्त का पहिया गोल है .
क्या इतिहास फिर से दोहराएगा खुद को ?