अभी कुछ दिन पहले मुझे ये ख्याल आया था कि खाली दिमाग कवि का घर …ये बात कही तो मैंने बहुत ही लाईट मूड में थी. पर फिर हाल ही में ,आजकल के कवियों पर पढी एक पोस्ट से पुख्ता हो गई ..वो क्या है आजकल हम लोगों के पास करने को तो और कुछ होता नहीं ..ना गेहूँ बीनने हैं ? ना पापड़ बड़ियाँ बनानी हैं और हमें तो कमबख्त स्वेटर बुनना भी नहीं आता जो धूप में बैठकर वही काम कर लें ..अब यहाँ तो धूप के दर्शन भी कभी कभार ही होते हैं, तो बैठना तो जरुरी है जब भी निकले. तो क्या करें धूप में बैठकर? चलो जी तथाकथित कविता ही लिख लेते हैं .अब बुना हुआ स्वेटर तो पहना जाये ना जाये..पर कविता लिख गई तो ब्लॉग पर कुछ लोग पढ़ ही लेंगे और कुछ सज्जन लोग सराह भी देंगे. तो अब जब भी धूप चमकती है हम जा बैठते हैं काली कॉफी का बड़ा सा कप लिए और शुरू कर देते हैं यूँ ही कुछ शब्दों से खेलना ..जब धूप आई तो कुछ पंक्तियाँ लिखीं गईं ..फिर धूप गई तो ख्याल भी गए ..फिर धूप चमकी तो फिर कुछ ख्याल…इसी आने जाने में कुछ उबड़ खाबड़ पंक्तियाँ बुन गईं जो आपके सन्मुख हैं .अब क्या करें -खाली समय भी है ,धूप भी है ,और स्वेटर बुनना नहीं आता तो कुछ तो करेंगे ही ना ..((पुरुष,या कामकाजी स्त्रियाँ या उत्तरी ध्रुव -के वासी क्यों कविता लिखते हैं वो हमें नहीं मालूम )
हमारा तो क्या है …
न मिला चाँद तो चिरागों से दोस्ती कर ली , न मिला कुछ और करने को तो बस कविता कर ली ..
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
तराजू के दो पलडों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता
डालती जाती हूँ वजन व्यावहारिकता पर
कि हो जाये सामान पलड़े तो
जिंदगी पका लूं अपनी
किन्तु
अहसासों का पलड़ा डिगता ही नहीं है
और असंतुलित रह जाती है जिंदगी..
वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ ..
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