Sunday, August 22, 2010

चल रहने दे !

बच्चों की छुट्टियाँ ख़त्म होने को आ गईं हैं और उनका सब्र भी …ऐलान कर दिया है उन्होंने कि आपलोगों को हमारी कोई परवाह नहीं बस अपने काम से काम है. हम सड़ रहे हैं घर पर .बात सच्ची थी तो गहरा असर कर गई .इसलिए हम जा रहे हैं एक हफ्ते की छुट्टी पर बच्चों को घुमाने .

तब तक आप ये नज़्म टाइप का कुछ है वो झेलिये.

ये जुबान जब भी चली
कहीं कोई जख्म हुआ है
यूँ ही तो हमने
ख़ामोशी इख्तियार नहीं की है


मत हिला ये लब अपने
न निगाहों से बात कर
हमने लफ़्ज़ों की कभी
ताकीद तो नहीं की है


बस आँखों में झांक कर
इतना बता दे
तेरी तस्वीर जो इनमे थी
धुंधला तो नहीं गई है .


चल रहने दे
आज रात भी है काली बहुत
चाँद से भी तो चांदनी की
सिफारिश  नहीं की है.


(चित्र गूगल से साभार )

Wednesday, August 18, 2010

टर्निंग पॉइंट ...


वेरोनेश युनिवेर्सिटी.
अब तक आप ये तो यहाँ  पढ़ ही चुके हैं कि कैसे हम गिरते पड़ते अपना रुसी भाषा का फाउन्डेशन कोर्स करने अपनी पहली मंजिल वोरोनेश तक पहुंचे थे | अब शुरू होता है उसके आगे का सफ़र. १९९०-९१  का वो समय  रशिया में पेरोस्त्रोइका  का था बहुत से बदलाव आ रहे थे | बाहरी दुनिया से रशिया का परिचय करने की कोशिश गोर्वचौब कर रहे थे और ऐसे ही हालातों में हमारी  जिन्दगी भी बदल रही थी| वेरोनिश में बिताया वो एक साल हमारी  जिन्दगी का टर्निंग  पॉइंट था …मखमली बिस्तर से उठा कर जैसे किसी ने टाट पर दे मारा था .उस समय रशिया में हर चीज़ की राशनिंग थी. उस पर हम तब शाकाहारी थे. उस समय चावल, नमक,चीनी  से लेकर सेनेटरी नैपकिन तक  लेने के लिए भी घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता था वो भी पता चल जाये कि दुकान  में सामान  आ गया है तो, वर्ना जैसे चाहो  गुजारा  करो ,अगली बार तक ,बहुत मुश्किल था पता करना भी, कहीं किसी को क्लू  मिलता था तो  पुराने समय की तरह ढिंढोरा पीटा जाता था .”चीनी आ गई है…………………आज चावल मिलेगा …………..”.और सब अपना सब कुछ भूल कर दौड़ पड़ते थे .

मीट की दूकान के बाहर लगी कतार.
खाना पीना तो चलो फिर भी कैफे   से काम चल जाता था परन्तु रोज़मर्रा की बाकी जरूरतों के लिए नाकों   चने चबाने पड़ते थे उसपर भाषा की अज्ञानता और इस वजह से सीनियर बहुत भाव खाते  थे क्योंकि उनकी मदद के बिना शौपिंग तो बहुत दूर घर एक चिट्ठी तक नहीं डाली जा सकती थी. (उस समय रशिया का बाजार हमारे किसी पिछड़े हुए गाँव से कम नहीं था अच्छे  कपड़े तो दूर टूथपेस्ट भी स्लेटी रंग का बदबूदार मिलता था , नो आर्टिफिशियल  कलर और फ्लेवर .सिर्फ एक ही ब्रांड का सामान मिलता था कोई चॉईस नहीं.. कोई वैराइटी नहीं .रूबल का दाम कुछ १७ रूबल था (एक डॉलर में )| यह वो समय था कि जब हमारे पास पैसे होते थे पर खरीदने को कुछ नहीं मिलता था| स्कॉलरशिप  के १२५ रूबल मिलते थे और उसमें से खाना पीना निकाल कर भी इतने बच जाते थे कि साल में एक इंडिया का टिकट  आ जाये . 
ऐसे में लड़कों के लिए काम आसान होते थे पढाई में हेल्प चाहिए हो या राशन खरीदना  हो. उनकी  रशियन  गर्ल फ्रेंड कर दिया करती थीं,  जिन्हें वो १ आधा टी शर्ट में ही पटा लिया करते थे   और ये काम इंडियन लड़कों  से अच्छा कोई कर भी नहीं सकता क्योंकि वहां के लड़के भले ही ब्रह्माण्ड में खुद घूमते रहते हों पर वहां से चाँद –  तारे तोड़ कर अपनी प्रियतमा  को देने के वादे सिर्फ भारतीय  पुरुषों को ही करने आते हैं और फिर लड़कियां तो होती ही इमोशनल फूल  हैं फिर दुनिया में चाहे कहीं की भी हों . फिर क्लास में टीचर की रूसी समझ आये ना आये  प्रेम में भाषा कहीं बाधा नहीं बनती .तो जी उनके काफी काम हो जाते थे |परेशानी हम जैसी लड़कियों की थी जिन्हें सारे काम खुद ही करने का शौक था और नाक इतनी लम्बी कि किसी से मदद की गुहार करना अपनी शान के खिलाफ लगता था ..हाँ कुछ खुशनसीब लड़कियां थीं जिनके माँ बाप ने इंडिया से ही उनके जोड़े बनाकर भेजे थे ये अलग बात है कि वहां पहुँच कर उनमें से ज्यादातर अपने जोड़े से राखी  बंधवाकर उसकी सहेली के साथ हो लिए थे और इस तरह कई ग्रुप बन गए थे पर हमारी हालत उन सबमें सबसे ख़राब थी .एक तो उन सब मेडिकल,  इंजिनियर  के छात्रों  के बीच में हम एक अकेले जर्नलिज्म  के थे तो हमें अपनी क्लास में कोई भी इंडियन नहीं मिला था .क्लास में  अलग – अलग देशों के ७ महारथी और हम अकेली कन्या .दूसरा हमारी रूम  मेट को किसी बीमारी की आशंका  से हॉस्पिटल में डाल दिया गया था और बाद में उसे इंडिया वापस भेज दिया गया तो अपने कमरे में भी हम अकेले ,उस पर अकडू स्वाभाव और बोल्ड इमेज … कोई अपने आप हमारी मदद  के लिए आगे आने की हिम्मत नहीं करता था .जिससे हम खुश भी थे क्योंकि अपने काम कराने  के लिए दोस्ती करने की आदत से हमें बचपन से सख्त  परहेज है . तो राशन लाने  से लेकर अपने कमरे में फ्रिज शिफ्ट करने तक के सारे काम हमें खुद ही करने पड़ते थे उस  समय हमारी हालत सांप – छछूंदर से भी बद्तर  होती थी बहुत याद आती थी घर की, घर से आये पत्र लेकर घंटों रोते रहते थे कमरे में ,पर बाहर आकर उन लोगों के थोबडों  पर ठहाके लगाया  करते थे जो पंकज उधास की ग़ज़ल  “चिठ्ठी आई है” पूरे जोरों पर बजाते थे और उसे सुन कर टेसुए बहाया करते थे.

पर इन समस्यायों से जूझते हुए एक फायदा  हमें हुआ था कि रूसी भाषा पर हमारा अधिकार बाकी सब से  अधिक हो गया था और अपने कवितायेँ लिखने के कीड़े के चलते रशियन में भी कभी कभार साहित्यिक वाक्य विन्यास बना लिया करते थे जिससे हमारी रशियन की टीचर हमसे बहुत प्रभावित  थी और इसी वजह से भूगोल के खूसट टीचर के नकारत्मक विचारों के वावजूद ( ये भूगोल का गोला आजतक मेरी समझ में नहीं आता.) उन्होंने हमें क्लास का बेस्ट स्टुडेंट घोषित कर दिया था जिस वजह से हमें रशिया की सर्वश्रेष्ट यूनिवर्सिटी  ” मॉस्को  स्टेट यूनिवर्सिटी में आगे की पढाई के लिए भेजा जाना तय हुआ .इस बात से कुछ लोगों को घोर आश्चर्य भी हुआ क्योंकि उस समय हमारे मार्क्स इतने अच्छे भी नहीं थे  शायद उन्हें लगता था कि जरुर मेरा कोई बड़ा जुगाड़ है जिस वजह से मुझे मॉस्को  यूनिवर्सिटी मिली थी.अब उन्हें ये कौन समझाता कि जिसका कोई नहीं उसका खुदा है यारों  .
खैर इस तरह कुछ खट्टे कुछ मीठे अनुभवों के बीच हमारा एक साल कटता रहा .बहुत मस्ती भरे दिन थे नया माहौल  ,नई भाषा ,नई संस्कृति , नए दोस्त बहुत ही एक्साइटिंग था सबकुछ और हाँ.. वहां का एकदम प्योर दूध ,दही ,स्मेताना ( सौर क्रीम ) आइस क्रीम और मायोनीज ..ऐसा स्वाद दुनिया में और कहीं नहीं मिला आजतक. सब्जी- फल के नाम पर तो कद्दू के साइज का पत्ता गोभी और सेब मिला करते थे बस, तो यही सब काली ब्रेड पर लगा कर एक साल खाया और ख़ुशी ख़ुशी वेरोनिश से मोस्को के लिए रवाना हो गए .
इससे आगे की कहानी अगली बार ..पिक्चर अभी बाकी है :)……..


इससे आगे यहाँ . http://shikhakriti.blogspot.com/2010/09/blog-post_08.html

Friday, August 13, 2010

यूँ ही बैठे ठाले ..

अभी कुछ दिन पहले मुझे ये ख्याल आया था कि खाली दिमाग कवि का घर …ये बात कही तो मैंने बहुत ही लाईट मूड में थी. पर फिर हाल ही में ,आजकल के कवियों पर पढी एक पोस्ट से पुख्ता हो गई ..वो क्या है आजकल हम लोगों के पास करने को तो और कुछ होता नहीं ..ना गेहूँ बीनने हैं ? ना पापड़ बड़ियाँ बनानी हैं और हमें तो कमबख्त स्वेटर बुनना भी नहीं आता जो धूप में बैठकर वही काम कर लें ..अब यहाँ तो धूप के दर्शन भी कभी कभार ही होते हैं, तो बैठना तो जरुरी है जब भी निकले. तो क्या करें धूप में बैठकर? चलो जी तथाकथित कविता ही लिख लेते हैं .अब बुना हुआ स्वेटर तो पहना जाये ना जाये..पर कविता लिख गई तो ब्लॉग पर कुछ लोग पढ़ ही लेंगे और कुछ सज्जन लोग सराह भी देंगे. तो  अब जब भी धूप चमकती है हम जा बैठते हैं काली कॉफी  का बड़ा सा कप लिए और शुरू कर देते हैं यूँ ही कुछ शब्दों से खेलना ..जब धूप आई तो कुछ पंक्तियाँ लिखीं गईं ..फिर धूप गई तो ख्याल भी गए ..फिर धूप चमकी तो फिर कुछ ख्याल…इसी आने जाने में कुछ उबड़ खाबड़ पंक्तियाँ बुन गईं जो आपके सन्मुख हैं .अब क्या करें -खाली समय भी है ,धूप भी है ,और स्वेटर बुनना नहीं आता तो कुछ तो करेंगे ही ना ..((पुरुष,या कामकाजी स्त्रियाँ या उत्तरी ध्रुव -के वासी  क्यों कविता लिखते हैं वो हमें नहीं मालूम )
हमारा तो क्या है …
 मिला चाँद तो चिरागों से दोस्ती कर ली ,  मिला कुछ और करने को तो बस कविता कर ली ..

इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है 
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं 
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात  नहीं है 

राम को पूजने वालों 
मुझे सिर्फ इतना बता दो 
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए 
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?


तराजू के दो पलडों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता 
डालती जाती हूँ वजन व्यावहारिकता पर 
कि हो जाये सामान पलड़े तो 
जिंदगी पका लूं अपनी 
किन्तु 
अहसासों का पलड़ा  डिगता ही नहीं है 
और असंतुलित रह जाती है जिंदगी..


वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में 
चाहा  कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं  लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से 
पहले इन  पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ ..

Wednesday, August 11, 2010

थेम्ज क्रूज ..मेरी नजर से :)

आइये आज आप सबको ले चलती हूँ रिवर थेम्स के क्रूज पर. नदी के किनारे बहुत सी  एतिहासिक इमारतें हैं और उनकी एक अपनी पहचान भी है ..पर मेरी नजरों को देखिये वो उनसे अलग भी कुछ देख लेती हैं ..तो आपको दिखाती हूँ कुछ तथ्य और कुछ अपने कथ्य 🙂 
सबसे पहले 
लन्दन आई – अरे मैं लन्दन नहीं आई. मतलब की लन्दन की आँख. सॉरी आँखें ..अब इतना सब है लन्दन  में देखने को तो इतनी आँखें तो कम से कम चाहिए ही होंगी .




















ओल्ड सिटी स्कूल ऑफ़ लन्दन – बड़ी बड़ी हस्तियाँ पढ़ी हैं इसमें – .हाँ पढ़ना जरुरी जो है सबका वर्ना सोशल  सर्विस वाले उठाकर ले जायेंगे .


               







लन्दन ब्रिज – विल नेवर फाल डाउन ..पर उसके ऊपर से आप क्रूज पर हैं तो कुछ भी गिर सकता है इसलिए उन्हें हाथ  हिलाना जरुरी है जिससे कि पुल पर खड़े  लोगों के हाथ आपको बाय करने में व्यस्त रहें और कुछ आपके ऊपर फेंकें नहीं .



बेलफास्ट  शिप – अब इसके अन्दर वार म्यूजियम   है ..हमें इसमें ज्यादा इंटरेस्ट नहीं था पर क्योंकि अपने दीपक मशाल जी बेलफास्ट में वहां रहते हैं इसलिए तस्वीर खींच ली :)










सिटी हॉल – सुना है इसे बनाने वाले का दावा  था कि सबसे एकोनोमिकल बनाया जायेगा इसे ..इसलिए इसके नामकरण के लिए ना जाने कितनी कमेटियां बिठाईं  गईं …कितना ही मिलियन पौंड्स खर्च किये गए और  आखिर कार नाम दिया गया “सिटी हॉल” ..वाह क्या रचनात्मकता है :)और क्या पैसे की बचत .आखिर मेयर जो बैठते हैं यहाँ



 टॉवर ब्रिज – ये साल में ५०० बार खुलता है और दिन में ४ बार ..बड़े बड़े लोगों के लिए समय की कोई पाबन्दी नहीं है.



एंट्री टू द त्रिअटर गेट – नदी से टॉवर तक जाने का पहला रास्ता .उसके बाद तो जहाँ से मर्जी आइये 







थ्री ग्लास बिल्डिंग्स – शायद किसी खिड़की साफ़ करने वाली कंपनी का ऑफिस है ..अब वही इतना पैसा कमाते हैं .










कुछ जोर्जियन समय की इमारत  – कुछ खिड़कियाँ बंद देख रहे हैं आप? ये इसलिए क्यों तब हर खिड़की पर टैक्स था ..जितनी खिड़की उतना टैक्स ..तो लोग कुछ खिड़कियाँ ईंट से बंद करा दिया करते थे  ..वाह क्या तरीका है टैक्स बचाने का.

लाइम हाउस एंट्रेंस – इस रास्ते नाव से ही मिडलेंड्स   तक जाया जा सकता है …रोड पर तो ट्रैफिक  बहुत होता है ना .

अब आखिर में एक बात और  
थेम्स नदी के नीचे ३ रोड की टनल हैं — हाँ भाई जरुरी हैं ऊपर की रोड पर तो जगह ही नहीं  बची ना.
वैसे और भी बहुत कुछ दिखाई पड़ता है आस पास पर वो फिर कभी 🙂

Tuesday, August 3, 2010

चाँद और मेरी गाँठ

चाँद हमेशा से कल्पनाशील लोगों की मानो धरोहर रहा है खूबसूरत महबूबा से लेकर पति की लम्बी उम्र तक की सारी तुलनाये जैसे चाँद से ही शुरू होकर चाँद पर ही ख़तम हो जाती हैं.और फिर कवि मन की तो कोई सीमा ही नहीं है

उसने चाँद के साथ क्या क्या प्रयोग नहीं किये…बहुत कहा वैज्ञानिकों ने कि चाँद की धरती खुरदुरी है ..उबड़ खाबड़ है पर जिसे नहीं सुनना था उसने नहीं सुना और कल्पना के धागे बुनते रहे चाँद के इर्द गिर्द और खूबसूरत कवितायेँ बनती गईं . उन्हीं में से मुझे रामधरी सिंह “दिनकर” की एक कविता बहुत ही पसंद है “

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।

उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,

और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ” .

ना जाने क्यों बहुत काल्पनिक होते हुए भी ये कविता मुझे बहुत ही व्यावहारिक लगती है .वैसे भी कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर …पर मेरे हिसाब से खाली दिमाग कवि का घर 🙂 (आजकल घर का नेट ख़राब है ना ) तो ऐसे ही कुछ क्षणों में ये मन चाँद तक जा उड़ा और फिर उतरा कुछ इस तरह

उतरा है आज मन

चाँद की धरती पर

चांदनी छिटक उठी है

रूह की खिड़की पर

ख़्वाबों के कदमो को

रखते हौले हौले

मन का पाखी

यूँ कानों में बोले

भर ले चांदनी

पलकों की कटोरी में

उठा शशि और

भर ले झोली में

लेने दे ख़्वाबों को

खुल कर अंगडाई

चन्द्र धरातल पर

तू जो उतर आई

बस और थोड़ी सी हसरत ,

और बस जज़्बा तनिक सा

थोड़ी सी और ख्वाहिश

फिर खिल उठना सपनो का

बस और दो कदम

रख सरगोशी से

कैसे ना होगा फिर

चाँद तेरी हथेली पे.

खूंटी पे टंगे सपने

सपनो पे रख दे चाँद

ना फिसले वहां से चंदा

लगा दे ऐसी गाँठ