Friday, July 23, 2010

इसरार बादल का



आज मुस्कुराता सा एक टुकडा बादल का 
मेरे कमरे की खिड़की से झांक रहा था 
कर रहा हो वो इसरार कुछ जैसे 
जाने उसके मन में क्या मचल रहा था 
देखता हो ज्यूँ चंचलता से कोई 
मुझे अपनी उंगली वो थमा रहा था 
कह रहा हो जैसे आ ले उडूं तुझे मैं 
बस पाँव निकाल देहरी से बाहर जरा सा.
मैं खड़ी असमंजस में सोच रही थी 
क्या करूँ यकीन इस शैतान का ?
ले बूँद खुद में फिर छोड़ देता धरा पर
है मतवाला करूँ क्या विश्वास इसका
जो निकल चौखट से पाँव रखूं इस बाबले पे
और फिसल जा पडूँ किसी खाई में पता क्या 
ना रे ना जा छलिया है तू ,जा परे हो जा तू जा ..
किनारे रख चुकी हूँ मैं “पर”अब नहीं उड़ने की भी चाह
फिर ना जाने क्या सोच कर मैंने थमा दी बांह अपनी 
कि ले अब ले चल तू गगन का छोर है जहाँ 
मूँद ली मैने ये पलकें फिर धर दिए घटा पे पाँव 
और ले चला वो बादल मुझे मेरे सपनों के गाँव

Monday, July 12, 2010

क्या करें क्या न करें ..ये कैसी मुश्किल हाय ...



दूसरे  कमरे  से आवाज़े आ रही थीं .एक पुरुष स्वर -..” इतना बड़ा हो गया किसी काम का नहीं है …इतने बड़े बच्चे क्या क्या नहीं करते ..जब देखो टीवी और गेम या खाना ..जरा भी फुर्ती नहीं है ..एकदम उत्साह विहीन .ना जाने क्या करेंगे अपनी जिन्दगी में …”

फिर एक महिला का स्वर आया …” अरे अहिस्ता बोलो ..मेहमान हैं घर पर ..क्यों पीछे पड़े रहते हो .बच्चा है अभी, क्या क्या करेगा ..लगा तो रहता है बेचारा सारा दिन ..
फिर एक दबी हुई आवाज़ आई मैं बोर्डिंग चला जाऊंगा ..आपसे दूर जाना चाहता हूँ जितना दूर हो सके....  ..उसके बाद १२ साल का एक लड़का मूंह फुलाए बाहर निकला ..आँखों से पानी गिरने को बेताब पर घर में मेहमानो की खातिर होटों पे मुस्कान लिए .
उस मासूम के अन्दर की हलचल मुझे अन्दर तक हिला गई …एक दस  साल का बालक स्कूल जाता है ,फिर आकर ट्यूशन  जाता है ,फिर आकर होम वर्क करता है और फिर कोई एक्स्ट्रा करिकुलर क्लास…..सुबह के ७ बजे से रात के ८ बजे तक सांस लेने की फुर्सत नहीं ..उसपर पढाई का इतना बोझ की २ % भी कम हुए नंबर . कि बस खैर  नहीं …उसपर पिता के ये ताने …जो  खुद अपने काम और दिनचर्या में इतने व्यस्त हैं कि फुर्सत नहीं कभी यह बैठकर सोचने की कि बच्चे के मन में क्या है ? कभी पास बैठकर ये चर्चा करने की बेटा किस कार्य में निपुण है और क्या करना चाहता है .
हमारे भारतीय समाज में लड़कियां तो फिर भी बच जाती हैं पिता के ऐसे तानो से ..यह कह कर कि अरे वो तो लड़की है ” हाँ ठीक भी है उसे तो ये ताने सुनने ही हैं ससुराल जाकर ..पर बेटा ..? उसकी तो जैसे ये कसर पिता ने ही पूरी करने की ठानी होती है .शायद यही रीत है .एक पिता अपने बेटे को सुपर हीरो के रूप में देखना चाहता है  .वह चाहता  है उसका बेटा वह भी करे जो वह खुद करता आया है,… और वह भी करे जो वो खुद कभी ना कर सका ,… और वह भी जो वो करना चाहता था पर नाकाम रहा . ..बेटे के स्कूल में नंबर  भी सबसे अच्छे आने चाहिए , उसे क्रिकेट टेनिस में भी अव्वल होना चाहिए ,उसे गाना भी गाना चाहिए, घर की बिजली के फ्यूज भी ठीक करने आने चाहिए और गाड़ी का पहिया भी बदलना चाहिए और पर्सनालिटी ऐसी कि हर लड़की आहें भरे ..यानि कि पैदा होते ही उस मासूम को सुपर मेन होना चाहिए. एक ऐसा ब्लेंक चेक जिसपर वो जो चाहें भर लें.
आखिर क्यों ऐसा होता है क्यों हम अपने अरमानो  को अपने बच्चों पर लादना चाहते हैं? हम जानते हैं कि एक पिता अपने बेटे का दुश्मन नहीं होता ..वो हर हाल में उसे काबिल बनाना चाहता है उसका भला चाहता है ..फिर क्यों वह यह भूल जाता है कि उस बच्चे का अपना भी कोई व्यक्तित्व हो सकता है .उसकी अपनी एक पसंद हो सकती है , जीने का अपना तरीका हो सकता है ..जो वर्तमान परिवेश से प्रभावित होता है .क्यों वह चाहता है कि उसका बेटा भी उन्हीं सब परिस्थितियों से गुजरे जिनसे वह कभी गुजरे हैं ….
अक्सर हम पिताओं को यह कहते सुनते हैं ..अरे हम इनकी उम्र के थे तो दूकान संभाल ली थी …या फिर ..इतनी उम्र में तो दिल्ली से मेरठ हम अकेले आ  जाया करते थे ..और इन नबाबजादों  को देखो अकेले स्कूल तक नहीं जा सकते .
अब कोई इन्हें समझाए कि जरुरी तो नहीं कि आपने जो  किया वो आज भी ठीक  ही  हो ..आज के हालातों में पढाई का बोझ इतना ज्यादा है कि बच्चे के पास कहीं और समय लगाने का वक़्त ही नहीं ….
या फिर आज के परिवेश में एक बालक का अकेले सफ़र  करना सुरक्षित है.?
हम ये अच्छी तरह समझते हैं ..फिर भी एक अबोध को इस तरह हर वक़्त ताने देना कहाँ तक उचित है ..माना कि हम उनके रचियता है ,पालनहार हैं और उनकी भलाई के लिए कुछ कहना भी हमारा हक़ है .परन्तु इससे एक बाल मन पर क्या असर पड़ता है क्या कभी हम सोचते हैं ?वो मन ही मन आपको अपना दुश्मन मान  लेता है ..अनजाने ही उसमें बगावत की भावना जन्म लेने लगती है ,.वह खुद को बचाने के लिए आपसे पीछा छुड़ाने की सोचने लगता है और अपने  मुख्य मकसद से दूर होता जाता है .उसके मन से पिता के लिए आदर भाव जाता रहता है और वह हर बात की अवहेलना शुरू कर देता है …दुसरे बच्चों से तुलना करने पर उसके मन को ठेस पहुँचती है और वह कोई भी सकारात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं हो पाता .
क्या कभी हम ये सोचते हैं कि उसे सुपर हीरो  बनाने के चक्कर में हम उसकी क़ाबलियत के अनुसार कुछ करने तक का आत्मविश्वास भी छीन लेते हैं . सब कुछ सिखाने के चक्कर में हम उसका व्यक्तित्व  अनजाने ही इतना कान्फुसिंग बना  देते हैं कि वो बच्चा समझ ही नहीं पाटा  कि आखिर उसके लिए अच्छा क्या है ..और उसे क्या करना चाहिए. और सब कुछ करने के चक्कर में वो कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता. वही थोडा सा विश्वास ,थोड़ी सी आत्मीयता और थोड़ी सी सुरक्षा भावना के शब्द उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने में बहुत सहायता करते हैं ..हर बच्चे के लिए उसका पिता एक रोल मॉडल होता है,  उसका हीरो होता है ..पिता द्वारा दिया गया थोडा सा भी प्रोत्साहन बच्चे के मनोबल को बड़ाने  में अहम् भूमिका अदा करता है . 
एक पिता अपना तन – मन लगा देता है बच्चों की परवरिश में.अपनी पूरी क्षमता से काम करता है कि बच्चों को बेहतरीन जिन्दगी दे सके. फिर क्यों नहीं वो कुछ पल निकाल  कर उसके मन को समझने की कोशिश कर सकता ?.क्यों अपनी असीमित इच्छाओं के लिए एक मासूम बच्चे से उसका बचपन अनजाने ही छीन लेना चाहता है ?क्या हमें नहीं जरुरत कि कुछ पल निकाल  कर इसपर सोचें .क्या एक पिता का ये फ़र्ज़ नहीं कि अपनी इच्छाओं को परे रख एक बार .अपने नो निहालों  के मन में झांके . उन्हें एक सुलझा हुआ इंसान और बेहतर नागरिक बनाने के लिए.
(चित्र गूगल से साभार )

Friday, July 9, 2010

भुन रहा है लन्दन ..

जी हाँ झुलस रहा है लन्दन. यहाँ  पारा  आज  ३२ डिग्री तक पहुँच गया है जो अब तक के  साल का  का सबसे गरम दिन है .यहाँ के मेट ऑफिस के अनुसार अगले २ दिन तक यही स्थिति रहेगी. .



जहाँ लन्दन के पार्क और समुंद्री तट लोगों से  भरे पड़े हैं वहीँ  ऑफिस में लोग ब्रेक में सूर्य किरणों  का आनंद ले रहे हैं. अस्पतालों  में आपातकालीन दुर्घटनाओं  के लिए बन्दोबस्त्त किये जा रहे हैं… NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस ) ने लोगों को हिदायत दी है कि खुले हुए सूती कपडे पहने ,अपने मुँह  और गर्दन पर बराबर  ठंडे पानी के छींटे मारते रहे और जहाँ तक हो सके  घर के सबसे ठंडे  कमरे का प्रयोग करें.(आमतौर पर यहाँ कहीं भी पंखे तक नहीं लगे होते.).



बच्चों के स्कूलों  से हिदायतें  आ रही हैं कि बच्चों को गर्मी से बचाने वाली टोपी और छाते के साथ भेजा जाये, उन्हें पानी की पर्याप्त बोतले दी जाएँ . स्कूल में खेल के समय  बच्चों  को बाहर नहीं ले जाया जा रहा.. स्कूल के अन्दर ही रखा  जा रहा है .
लन्दन के पार्क शुष्क खतरे  का डिब्बा  बने हुए हैं और फायर फाइटर  घास में  आग लगने की आशंका से बचने के लिए तैयारियां   कर रहे हैं .
.ब्रिटेन में  ८० साल के बाद ये सबसे शुष्क ६ महीने हैं. 
हायेड  पार्क की हमेशा हरी भरी रहने वाली घास भूरी  और निर्जीव सी हो गई है .
सभी समाचार पत्र और समाचार चैनल  इसी खबर और गर्मी से बचाव हेतु हिदायतों से अटे पड़े हैं
तो जी ये हाल है लन्दन का दो  दिन ३२ डिग्री तापमान होने से  …..
और हम यह सोच सोच कर पिघल रहे हैं कि हमारे देशवासियों का वहाँ  ४८ डिग्री में क्या हाल होगा..
शिखा वार्ष्णेय 
लन्दन से 

Wednesday, July 7, 2010

ये कहाँ आ गए हम ...." मेरी स्विस यात्रा."

यकीन मानिये मैं जब भी यश चोपड़ा  की कोई फिल्म देखती थी उसके मनोरम दृश्यों को देख यही ख्याल आता था “अरे क्या है ऐसा स्विट्ज़रलैंड में जो हमारे यहाँ नहीं मिलता इन्हें ..क्या भारत में बर्फ नहीं पड़ती? या यहाँ हसीं वादियाँ और पहाड़ नहीं हैं ?गायों और झरनों की कोई कमी है क्या भारत में? और वो बैल की घंटी ?…..जितनी चाहो मिल जाये फिर क्यों ये  दौड़े  छूटे बस पहुँच जाते हैं वहीँ ?
अब ये  तो समझ में तभी  आया जब हमने कार्यक्रम बना ही डाला स्विट्ज़रलैंड घूमने का, कि आखिर देखें तो  ऐसा क्या है वहां कि जनता बावली  हुई जाती है. पर यकीन मानिये स्विस धरती पर कदम रखते ही सब समझ आने लगा हमें. सबसे पहले बात करुँगी वहाँ के लोगों की.इतने संतुष्ट और मददगार लोग मैने नहीं देखे कहीं. एक मोहतरमा ने हमारे लिए, अपनी मंगाई टैक्सी तक छोड़ दी,कि आप लोग मेहमान है आप ले लीजिये मैं दूसरी मँगा लूंगी.  यूरोप में ऐसी दरियादिली ..? जी मन बाग़ बाग़ हो गया .

फिर पहुंचे हम इंटरलेकन के अपने होटल में.हालाँकि होटल हमने नेट से ही बुक कराया था और बहुत डर रहे थे कि फ़्रांस की तरह यहाँ भी चित्र कुछ और असलियत कुछ और ना निकले.पर सुखद अहसास हुआ.चित्र से भी ज्यादा सुन्दर था होटल, कोजी सा पेड़ों से ढका और सामने बहता छोटा सा झरना टाइप कनाल.
अब हमारे तो हर घर के आगे ऐसे नाले होते हैं. पर उसमें भरी होती है कीचड़ और पोलीथिन के थैले. अब उन्हें निकालने लगेंगे तो हड़ताल कौन करेगा? भारत बंद  कौन करेगा? 
खैर गज़ब की खुमारी थी वातावरण में. हम नहा धो कर निकले घूमने.फिर पता चला जो मुख्य अन्तर था भारत और स्विट्ज़रलैंड में.वो थी वहां की आरामदायक सुविधाएँ. बेशक आप कहीं से भी आये हों,भाषा आती हो या नहीं, परन्तु आपको कहीं भी जाने में,घूमने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आ सकती.इतने तरीके से सब कुछ बनाया गया है कि,बस आप ट्रैवल पास लीजिये १ दिन का या १ हफ्ते का,वो भी आप नेट से ले सकते हैं.फिर जहाँ मर्जी जिस मर्जी साधन से जाइये.बस से लेकर शिप तक सब कवर है उसमें.इतने व्यवस्थित यातायात के साधन आपको दुनिया में और कहीं नहीं मिलेंगे।अपने समय से १ सेकेंड की भी देरी से नहीं चलती ट्रेन और बस वहां की.
अब आप भारत के पर्यटन स्थल लीजिये। बेचारे टूरिस्ट के टिकेट खरीदने में पसीने छूट जाएँ और बची खुची जान ट्रेन या बस का इंतज़ार करने में.ना उसके आने का समय निश्चित है ना जाने का। तो अगर आपने अपनी यात्रा प्लान की  हुई है तो हो गया बंटाधार.


खैर वहां से हम बैठे जौन्ग्फ्रौ की छोटी ट्रेन में. बर्फीले पहाड़ों के बीच से गुजर कर ये ट्रेन यूरोप के सबसे ऊँचे पॉइंट तक जाती है जहाँ बर्फ का धुंआ इस कदर होता है कि नंगी आँखों से आपको आपके सामने वाला भी दिखाई ना दे.पर एक बात बड़े आश्चर्य की थी कि इतनी बर्फ के बाद भी सर्दी का अहसास नहीं हो रहा था.शायद बर्फ पिघलती ही नहीं इसलिए(आइस नहीं बनती) बस रुई की तरह बिछी रहती है ..
और वहीँ है हमारे बॉलीवुड की शान बघारता बालीवुड इंडियन  रेस्टोरेंट। जिसके पैसे तो बॉलीवुड जैसे हैं परन्तु खाना गोलीवुड  जैसा। समझ गए ना आप:).परन्तु वहां की खूबसूरती के आगे खाने की किसको पड़ी है ?  
वैसे पूरी यात्रा के बीच में जो छोटे छोटे गाँव पड़ते हैं उनकी छटा भी निराली है। और वहां की चॉकलेट  की दुकाने,आह …देखने  में  ऐसी कि मुँह में डालने में कलेजा पिघले 
वैसे खाने का असली मजा तो हमें माउंट टिटलिस से उतर कर आया।टिटलिस में बर्फ के गलेशियर की गुफा में कलाकृति देख और वहां अपने सारे बॉलीवुड के सितारों के पोस्टर्स के दर्शन करके जब हम नीचे उतरे तो दिखा एक बड़ा- पाव और मसाले वाली चाय का ठेला। कसम बड़े पावों  की इतने स्वादिस्ट बड़ा पाव मैने महाराष्ट्र में भी नहीं खाए। और उस पर मसाला चाय ..जौन्ग्फ्रौ के बॉलीवुड में दिए सारे पैसे वहां वसूल हो गए.
यूँ तो तो स्विट्ज़रलैंड में बहुत से शहर हैं जिनेवा,बर्न,बासेल पर हमें सबसे मनोहारी लगा ल्यूज़र्न।अब क्यों लगा खूबसूरत, ये मत पूछियेगा क्योंकि वो मैं शब्दों में बता ही नहीं पाऊँगी .

हालाँकि  कहने को ऐसा कुछ भी नहीं है स्विस शहरों में कि उनकी व्याख्या की जाये. पर कुछ तो है, इतना खूबसूरत कि फिजाओं में जैसे फूल खिल जाएँ, हर हवा झोंके के साथ जैसे महक दिल -दिमाग में छा  जाये, इतना स्वच्छ और इतनी  पवित्र सी प्रकृति कि हाथ लगाते डर लगे कि मैली ना हो जाये.
मतलब ये कि अपनी एक हफ्ते की छुट्टियाँ ख़तम होते होते हमें समझ में आ गया कि यहाँ के लोग क्यों इतने शांत और संतुष्ट रहते हैं। यहाँ की हवाओं में ही कोई खूबसूरत जादू है। जो आपके दिल दिमाग को एक सुकून सा पहुंचता है। कि सुबह ७ बजे से रात १२ बजे तक पहाड़ों में घूम कर भी हमें तनिक भी थकान का अहसास 
तक नहीं होता था.बल्कि हर समय एक खूबसूरत सा अहसास होता रहता था.


अब हमारी समझ में आ गया था कि भारत के इतने मनोरम स्थानों को छोड़कर हमारे फिल्मकार वहां क्यों जाते हैं। क्योंकि अपने ही देश में काम करने में जितनी परेशानियों का सामना उन्हें करना पड़ता है,स्विस धरती पर बहुत ही आसानी से और ज्यादा लगन से वो अपने काम को अंजाम दे पाते हैं. और बरबस ही ये गीत गुनगुना उठते हैं – ” ये कहाँ आ गए हम ……
.

Friday, July 2, 2010

आज इन बाहों में


रक्तिम लाली आज सूर्य की 
यूं तन मेरा आरक्त किये है.
तिमिर निशा का होले होले 
मन से ज्यूँ निकास लिए है.
उजास सुबह का फैला ऐसा 
जैसे उमंग कोई जीवन की 
आज समर्पित मेरे मन ने
सारे निरर्थक भाव किये हैं
लो फैला दी मैने बाहें 
इन्द्रधनुष अब होगा इनमे 
बस उजली ही किरणों का 
अब आलिंगन होगा इनमें 
खिलेगा हर रंग कंचन बनके ,
महकेगा यूँ जग ये सारा 
उसके सतरंगी रंगों से 
मुझको अब रंगने हैं सपने.  
नई उमंग से खोल दी मैंने 
आज पुरानी सब जंजीरें 
आती स्वर्णिम किरणों से
रच जाएँगी अब तकदीरें
कर समाहित सूर्य उष्मा 
तन मन अब निखर रहा है 
आज खुली बाहों में जैसे 
सारा आस्मां पिघल रहा है.


Winner chitra srijan june 2010.jpg