आज मुस्कुराता सा एक टुकडा बादल का
मेरे कमरे की खिड़की से झांक रहा था
कर रहा हो वो इसरार कुछ जैसे
जाने उसके मन में क्या मचल रहा था
देखता हो ज्यूँ चंचलता से कोई
मुझे अपनी उंगली वो थमा रहा था
कह रहा हो जैसे आ ले उडूं तुझे मैं
बस पाँव निकाल देहरी से बाहर जरा सा.
मैं खड़ी असमंजस में सोच रही थी
क्या करूँ यकीन इस शैतान का ?
ले बूँद खुद में फिर छोड़ देता धरा पर
है मतवाला करूँ क्या विश्वास इसका
जो निकल चौखट से पाँव रखूं इस बाबले पे
और फिसल जा पडूँ किसी खाई में पता क्या
ना रे ना जा छलिया है तू ,जा परे हो जा तू जा ..
किनारे रख चुकी हूँ मैं “पर”अब नहीं उड़ने की भी चाह
फिर ना जाने क्या सोच कर मैंने थमा दी बांह अपनी
कि ले अब ले चल तू गगन का छोर है जहाँ
मूँद ली मैने ये पलकें फिर धर दिए घटा पे पाँव
और ले चला वो बादल मुझे मेरे सपनों के गाँव
Friday, July 23, 2010
इसरार बादल का
Monday, July 12, 2010
क्या करें क्या न करें ..ये कैसी मुश्किल हाय ...
दूसरे कमरे से आवाज़े आ रही थीं .एक पुरुष स्वर -..” इतना बड़ा हो गया किसी काम का नहीं है …इतने बड़े बच्चे क्या क्या नहीं करते ..जब देखो टीवी और गेम या खाना ..जरा भी फुर्ती नहीं है ..एकदम उत्साह विहीन .ना जाने क्या करेंगे अपनी जिन्दगी में …”
Friday, July 9, 2010
भुन रहा है लन्दन ..
जी हाँ झुलस रहा है लन्दन. यहाँ पारा आज ३२ डिग्री तक पहुँच गया है जो अब तक के साल का का सबसे गरम दिन है .यहाँ के मेट ऑफिस के अनुसार अगले २ दिन तक यही स्थिति रहेगी. .
जहाँ लन्दन के पार्क और समुंद्री तट लोगों से भरे पड़े हैं वहीँ ऑफिस में लोग ब्रेक में सूर्य किरणों का आनंद ले रहे हैं. अस्पतालों में आपातकालीन दुर्घटनाओं के लिए बन्दोबस्त्त किये जा रहे हैं… NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस ) ने लोगों को हिदायत दी है कि खुले हुए सूती कपडे पहने ,अपने मुँह और गर्दन पर बराबर ठंडे पानी के छींटे मारते रहे और जहाँ तक हो सके घर के सबसे ठंडे कमरे का प्रयोग करें.(आमतौर पर यहाँ कहीं भी पंखे तक नहीं लगे होते.).
Wednesday, July 7, 2010
ये कहाँ आ गए हम ...." मेरी स्विस यात्रा."
तक नहीं होता था.बल्कि हर समय एक खूबसूरत सा अहसास होता रहता था.
अब हमारी समझ में आ गया था कि भारत के इतने मनोरम स्थानों को छोड़कर हमारे फिल्मकार वहां क्यों जाते हैं। क्योंकि अपने ही देश में काम करने में जितनी परेशानियों का सामना उन्हें करना पड़ता है,स्विस धरती पर बहुत ही आसानी से और ज्यादा लगन से वो अपने काम को अंजाम दे पाते हैं. और बरबस ही ये गीत गुनगुना उठते हैं – ” ये कहाँ आ गए हम ……
Friday, July 2, 2010
आज इन बाहों में

रक्तिम लाली आज सूर्य की
यूं तन मेरा आरक्त किये है.
तिमिर निशा का होले होले
मन से ज्यूँ निकास लिए है.
उजास सुबह का फैला ऐसा
जैसे उमंग कोई जीवन की
आज समर्पित मेरे मन ने
सारे निरर्थक भाव किये हैं
लो फैला दी मैने बाहें
इन्द्रधनुष अब होगा इनमे
बस उजली ही किरणों का
अब आलिंगन होगा इनमें
खिलेगा हर रंग कंचन बनके ,
महकेगा यूँ जग ये सारा
उसके सतरंगी रंगों से
मुझको अब रंगने हैं सपने.
नई उमंग से खोल दी मैंने
आज पुरानी सब जंजीरें
आती स्वर्णिम किरणों से
रच जाएँगी अब तकदीरें
कर समाहित सूर्य उष्मा
तन मन अब निखर रहा है
आज खुली बाहों में जैसे
सारा आस्मां पिघल रहा है.