इन उमीदों कि शुरुआत हुई तब – जब हमें पता चला कि हमारी किंग फिशर flight मुंबई होकर जाएगी ,२ घंटे का ट्रांजिट था तो पतिदेव ने सुझाया – “२ घंटे को २ दिन करना है? बहन से मिलना है ?” (ये पति लोग भी कभी कभी इंसान बन ही जाते हैं ..पर कब और कैसे और क्यों बनते हैं …ये एक पहेली ही रहेगी 🙂।) नेकी और पूछ पूछ हमने तुरंत हाँ में सर हिलाया और ख्यालों में योजनायें बनने लगीं। मौका पाते ही रश्मि रविजा को बताया ..यहाँ ये बताना बहुत ही जरुरी है कि रश्मि जैसी understanding सहेली मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है….जिसने छूटते ही कहा कोई बात नहीं तुम आ जाओ जहाँ कहोगी हम मिलने आ जायेंगे….एक बार तो यकीन नहीं हुआ ..क्या सच – मुच….मुंबई जैसे शहर में ये मुमकिन है ॥? ….फिर सोचा भाई हो सकता है इंडिया है वहां गर्मी से और कुछ होता हो या नहीं रिश्तों में गर्माहट तो रहती ही है….और हमारा ख्याल एकदम सच साबित हुआ जब हमने एक बड़ा सा फूलों का गुल्दास्त्ता और हाथ में हमारी मनपसंद मिठाई का डिब्बा लिए साक्षात् रश्मि रविजा को अपने सामने पाया(वैसे ज्यादा चैट करने का ये फायेदा होता है कि सामने वाले को आपकी पसंद का पता हो जाता है और तोहफे में आपको अपनी मनपसंद चीज़ मिल जाती है ) हमने तड से फूल उनके हाथ से झपट लिए ,क्योंकि एक तो फूल हमारी कमजोरी हैं , दूसरा देर करते तो फूलों में और रश्मि के खिले हुए चेहरे में फरक करना मुश्किल हो जाता…खैर जैसा कि आप लोगों ने जान लिया है कि मुलाकात के दौरान हम नॉन स्टॉप बोल रहे थे ,तो जी ऐसा नहीं कि हम हमेशा ही इतना बोलते हैं पर कुछ खास पलों में ख़ुशी इसी तरह छलक छलक पड़ती है।🙂 कम्बख्क्त जबान रुकने को तैयार ही नहीं होती….मुलाकात का बाकी विवरण तो रश्मि http://rashmiravija.blogspot.com/2010/05/blog-post.html बता ही चुकी हैं मेरे लिखने के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं उन्होंने

रश्मि के साथ ……
खैर मुंबई में वो २ दिन बहुत ही शानदार गुजरे और उछलते कूदते हम दिल्ली आ पहुंचे , दिल्ली में १० दिन रहने का विचार था और हजारों काम , यही होता है दो नौका में एक साथ सवारी करने का अंजाम …हजारों काम पेंडिंग थे जिन्हें निबटाना था । पर हमारा दिमाग तो लगा था कि क्या जुगत लगाई जाये कि कुछ करीबी मित्रों से मिलने की सूरत निकल आये.पर सुबह से शाम तक चकरघिन्नी की तरह घूमने के चक्कर में अपनी ये योजना हमें खटाई में नजर आ रही थी…बहुत से लोगों से फ़ोन करने का और मिलने का वादा किया हुआ था …पर डर के मारे कॉल भी नहीं की ..कि यदि कॉल किया तो मिलने का और भी मन करेगा और न मिल पाने कि सूरत में कोफ़्त भी बहुत होगी..पर वो कहते हैं न कि इच्छा सच्चे दिल से कि जाये तो सारी कायनात उसे पूरा करने में जुट जाती है ..ऐसा ही कुछ हुआ… किसी जरुरी काम से हमारे पतिदेव को गुडगाँव जाना पड़ा और इस बहाने हम द्वारका में अपने एक रिश्तेदार के यहाँ रुक लिए …बस फिर क्या था .तपाक से किया संगीता दी (स्वरुप )को फ़ोन और झटपट पहुँच गए उनके घर.ये दास्ताँ आप उनके ब्लॉग पर भी पढ़ चुके होंगे और अगर नहीं पढ़ा तो अब पढ़ लीजिये गीत http://geet7553.blogspot.com/2010/04/blog-post_07.html पर।) और जी हमें एक दुसरे को पहचानने में जरा भी मुश्किल नहीं हुई। क्योंकि देखने में भी संगीता जी उतनी ही प्यारी हैं जितनी सुन्दर वो कवितायेँ लिखा करती हैं …हाँ उनकी कविताओं को पढ़कर ये सोचना थोडा मुश्किल हो सकता है कि वो कितनी ज्यादा हंसमुख हैं ,और उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर कितना जबरदस्त्त है.वैसे इस मामले में मिस्टर स्वरुप ( उनके पतिदेव) भी कुछ कम नहीं ..जितनी देर बैठे फुलझड़ियाँ छोड़ते रहे और हम लपकते रहे.,हमारे ये तरह तरह के पोज बनाकर फोटो भी उन्हीं ने खींचे।


संगीता दी के साथ
Mr . Swarup के साथ उस दिन इतेफाक से संगीता दी की छोटी बहन भी वहां थीं ,उनसे मिलने का सौभाग्य भी मिल गया हमें ,और हमने मिलकर खूब गप्पे मारी और ठहाके लगाये और जबरदस्त्त किस्म का “आम पन्ना“ पिया ..खाया क्या – क्या ये अभी नहीं बताउंगी वरना फिर से मूंह में पानी आ जायेगा और आगे कुछ लिखा नहीं जायेगा। तो जी …जी भर बातें करने के बाद हमने दी से विदा ली।
फिर बाद में कुछ और मित्रों को भी कॉल किया कि मिलने का समय तो नहीं पर कॉल करने से शायद थोड़ी शिकायतें कम झेलनी पड़ेंगीं ..जिनमे से एक महफूज़ मियाँ भी थे ,जिन्होंने फ़ोन उठाते ही कहा “। कहाँ हैं आप ? में अभी आ रहा हूँ आपसे मिलने …अगली ही गाडी से ” पर जैसा कि आप सब जानते हैं ..और मैं भी कि उनकी गाड़ी हमेशा एन वक़्त पर छूट जाया करती है….ही ही ही ।
बरहाल मुंबई ,दिल्ली में घूमते हुए हमें ये एहसास कभी न हुआ कि हम एक विकासशील देश में घूम रहे हैं ..सुना तो था कि भारत बदल गया …पर इतना ? ..इसका अनुमान न था हालाँकि हम हर वर्ष ही वहां जाया करते हैं पर इस बार लगा कि वाकई तरक्की कर ली है …बड़े बड़े आलीशान माल्स , खूबसूरत सुसज्जित घर , फाइव स्टार स्कूल , और मेट्रो….अजी खाक डालिए लन्दन , अमेरिका पर ..भारत में जिन्दगी लाख गुना बेहतर है …और यही सोच कर वहां एक अच्छे से स्कूल में हमने बच्चों का दाखिला करा दिया कि जी बस बहुत हुआ अब यहीं रहेंगे… अपनों के बीच..पर असली भारत देखना तो अभी बाकी था..वो हमें दिखा तब – जब हमने दिल्ली से निकल कर यू। पी । की तरफ रुख किया ..जाते ही पता चला बिजली नहीं आ रही …कब आएगी ? जबाब मिला जाने का समय तो नियत है पर आने का नहीं ….यहाँ बिजली आती कम जाती ज्यादा है.रात को ४ घंटे सुकून से सोने को मिल जाये तो गनीमत समझिये ..उस पर मच्छरों का प्यार , बेचारे बच्चों के शरीर पर तो जम के बरसे वो ..और हर जगह अपने प्यार कि निशानी छोड़ गए जिनकी बदोलत से अगले ही दिन हमें डॉ। की शरण में जाना पड़ा …जितने अरमान यहाँ लेकर आये थे सब पसीने में बह गए ….जीभ चटकारे लेना तो दूर बेचारीठन्डे पानी को तरस गई ( अब जब बिजली नहीं तो फ्रिज कैसे चलेगा ) अब ये हाल तो यू पी के मुख्य शहरों का था ,बाकी छोटे शहरों कि तो कल्पना करना भी गुनाह है.तब समझ में आया कि तरक्की तो शायद हुई है पर एक सिमित दायरे में …मूल भूत सुविधाएँ तो आज भी वहीँ हैं जहाँ १५ साल पहले थीं …दूध वाला , सब्जी वाला, पान वाला आज भी वहीँ है जहाँ १० साल पहले था …सबकुछ तो वैसा ही है …कुछ भी तो नई बदला ….हाँ हमारा फिर से भारत में बसने का इरादा बदल गया फिलहाल ….
पर नहीं बदला तो वो है वहां के लोगों के दिलों में अपनों के लिए प्यार , दोस्ती का जज्बा , झुलसती गर्मी में पनपती रिश्तों की गर्माहट ……जो हमें बांधे रखती है अपनी मिट्टी से …और हमेशा बांधे रखेगी ….जय हिंद……
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