एक दिन मुझसे किसी ने कहा था, कि अपने लिए मांगी दुआ कबूल हो न हो पर किसी और के लिए मांगी दुआ जरुर क़ुबूल होती है.ये अहसास बहुत खूबसूरत लगा मुझे …और सच भी..बस उसी से कुछ ख्याल मन में आये अब ये ग़ज़ल है या नज़्म या कुछ भी नहीं ..ये तो नहीं पता पर एक एहसास जरुर है
हर आरज़ू की जुबां, रूह से निकलती है सदा
हर लब पे एक दुआ, किसी न किसी के वास्ते
न मंदिर न मस्जिद, न कोई गिरजा की जरुरत
बस एक अदद दिल की तलब, पाक दुआ के वास्ते .
रुख हो हवा का गलत ,या हो भंवर में नाव भी
है दुआ में वो असर,बने राह भी कश्ती के वास्ते
निगाहें हो तनिक झुकी हुई, सामने पसरे हाथ,हों,
परेशां है खुदा की महफ़िल ,इंकार करे किस वास्ते .
अपने लिए उठे ये हाथ , तो शिखा! क्या बात हुई
होगी दुआ कुबूल, जो कर किसी बेबस के वास्ते
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