.यहाँ यूरोप में होलिडेज पर जाने का बहुत रिवाज़ है….जब देखो जिसे देखो होलिडेज पर निकल जाता है …काम का क्या है ? होता रहेगा…रोज़ ही होता है और जहाँ जरा ज्यादा काम का बोझ हुआ कह दिया ..कि हम तो होलिडेज पर जा रहे हैं आकर देखेंगे .यहाँ हर कोई तीन महीने में एक बार एक हफ्ते के लिए तो छुट्टियां मना ही आता है ..हवा पानी बदलने के लिए ,दिमाग तारो ताज़ा करने के लिए ..
Thursday, March 25, 2010
हम तो जाते अपने गाम सबको राम राम राम
.
.वैसे ये बीमारी मुझे भी है ..बचपन से ही पापा ने लगा दी थी …हर २-३ महीने में कहीं घूमने के लिए न जाने को मिले तो घर काटने को दौड़ने लगता है …चार दीवारियों से भयानक सी आवाजें आने लगती हैं..दिमाग का एक हिस्सा हमेशा १६० डिग्री पर रहता है जिस पर बच्चे यदि चाहें तो अंडा तो फ्राई कर ही सकते हैं
.पर हाय रे नसीब … हम भारतीयों की किस्मत ऐसी कहाँ ..वो तो युरोपे में रहे हैं या झुमरीतलैया में, काम के मारे बेचारों को होलिडेज ( आराम के दिन ) तो क्या एक गरीब दिन भी नसीब नहीं होता .जब तक की दादी .या नानी को बीमार न कर दिया जाये…अब क्या करें ,मन तो नहीं करता पर मजबूरी है आखिर इंसान तो हम भी हैं ..साल में एक बार तो होलिडेज मनाने का न सही पर घर जाने का हक तो हमें भी है.रोज़ की वही दिनचर्या…सुबह से शाम तक की चकार्धिन्नी …घर- बाहर के काम, बच्चे और फिर ये ब्लॉग…. ये भी तो लिखना होता है न…उस पर एक साल होते होते घर वालों कि यादें भी कचोटने लगती हैं ..तो हमारे लिए तो बहुत जरुरी हो जाता है साल में कम से कम एक बार आपनी मिट्टी को चख आयें ..ऊंट कि तरह प्यार- दुलार इकठ्ठा भर लायें मन की थैली में जो यहाँ रेगिस्तान में आगे का एक साल कुछ सुकून से निकल जाये…कुछ चाट -पकवान खा आयें कि ये कमबख्त जीभ कुछ रमा हो जाये फिर से यहाँ बेक्ड बीन्स और टोस्ट खाने के लिए.हालाँकि ये सारे अरमान निकलने के चक्कर में एक हफ्ता तो बीमारी में ही निकल जाता है ..पर फिर भी… अब ” दिल तो है दिल ..दिल का एतबार क्या कीजे…आ गया जो गोलगप्पों पे प्यार क्या कीजे..?
सो जी हम जा रहे हैं होलिडेज पर… और कहीं नहीं, अपने ही देश में, अपनों से मिलने .कुछ अपनी कहने .कुछ उनकी सुनने..हाँ आप लोगों को और अपने इस प्यारे ब्लॉग को मिस तो करेंगे थोडा सा..पर उम्मीद है आप लोग इसका ख्याल रखेंगे …और इसे भूलेंगे नहीं ..सो आप अभी तो चले जाइएगा… कब तक रहेंगे यहाँ ….( एक महीने तक थोड़े बैठे रहिएगा यहाँ ) पर फिर लौट के जरुर आइयेगा .हम जल्दी ही मिलेंगे ..एक छोटे से ब्रेक के बाद..
.Hey INDIA here I come………..….
Wednesday, March 24, 2010
लन्दन के स्कूलों में मनाया जाता है इंडिया डे
जी हाँ …हम बेकार ही विदेशी इवेंट्स मनाने में हंगामा करते हैं ..कि वेलेंटाइन डे. क्रिसमस ..विदेशी त्यौहार है हम नहीं मनाएंगे इनसे हमारी संस्कृति को खतरा है..परन्तु और कुछ हो न हो थोड़ी व्यावहारिकता, और डिप्लोमेसी हमें इन अंग्रेजों से सीख ही लेनी चाहिए..हमसे ,हमारे ही बारे में सब जानकार अपना फायदा कैसे किया जाता है ये गुण बेशक अंग्रेजों से ज्यादा किसी में नहीं …खैर आते हैं मुद्दे पर
लन्दन के क्लास ५ के पाठ्यक्रम में इतिहास और भूगोल विषय के अंतर्गत आता है इंडिया..तो उस टॉपिक को बच्चों को ठीक तरह से समझाने के लिए मनाया जाता है इंडिया डे…..इस दिन पूरे स्कूल को भारतीय ढंग ( साड़ियों, दुपट्टों ) से सजाया जाता है…क्लास में रंगोली बनाई जाती है…बच्चों को कुछ पारंपरिक भारतीय कलाएँ यानि ..जयपुरी प्रिंटिंग ,रंगोली बनाना, मेहन्दी लगाना सिखाया जाता है….कुछ भारतीय बच्चों के अभिभावक को मेहमान के तौर पर बुलाया जाता है कि वो आकर बच्चों को हिंदी की कहानी सुनाये, और भारत के बारे में कुछ तथ्य बताएं
डांस सिखाती सोम्या
सबसे मजेदार होती है उस दिन होने वाली एसेम्बली जिस में हिंदी फ़िल्मी गानों पर बच्चे भारतीय परिधान पहन कर डांस करते हैं ..और उसे सिखाने के लिए कुछ भारतीय बच्चों को बड़े स्कूलों से ( बड़ी क्लास के बच्चों को ) बुलाया जाता है.(.इस बार मेरी बेटी को बुलाया गया और इसके एवज़ में स्कूल से उसे £१० के बाउचर्स मिले एक ज्वेलरी शॉप के तो वो सारा दिन उछलती रही अपनी पहली मेहनत कि कमाई पाकर 🙂 सभी देश , धर्म के बच्चों को लहंगा,और कुरते पजामे ,दुप्पटे पहन कर भारतीय धुनों पर कमर मटकाते देख कर जो प्यारा अहसास होता है उसकी कल्पना बिना उन्हें देखे नहीं कि जा सकती..और बच्चे इस दिन का इंतज़ार पूरे साल बेसब्री से करते हैं..
मसालेदार भारतीय भोजन
हाँ और इसके साथ ही होती है भारतीय खानपान से परिचित कराने के लिए एक छोटी सी पार्टी जिसमें स्कूल में ही भारतीय भोजन बनवाया जाता है ..दाल, चावल, करी, नान, सब्जी आदि …और उसे पारंपरिक ढंग से बच्चों को परोसा जाता है..जिससे वो उनमें प्रयोग होने वाले मसलों से वाकिफ हो सके.खाते वक़्त ढूध से सफ़ेद बच्चों के चेहरे लाल पढ़ जाते हैं ..और हर कोई कहता सुनाई पड़ता है “Oh God its quite HOT.
कुल मिलाकर ये एक बहुत ही अच्छा माहौल होता है…और बच्चे और टीचर सभी इसका भरपूर आनंद लेते हैं..बच्चों को पढ़ाने का ये रचनात्मक तरीका सचमुच बहुत प्यारा,और रोचक है..जिससे बच्चे बहुत आसानी से भारत के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं .और बच्चों में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना भरने का एक बेहतरीन और सराहनीय प्रयास भी .
Friday, March 19, 2010
वक़्त वक़्त की बात है..
कल हमारी बेटी के स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग थी ..,जब हम वहाँ पहुंचे तो देखा कि अजब ही दृश्य था …एक हॉल में कचहरी की तरह लगीं कुर्सी- मेज़ और खचाखच भरे लोग ..आप उसे सभ्य मच्छी बाजार कह सकते हैं .हर पेरेंट को एक -एक विषय के लिए सिर्फ पांच मिनट पहले से ही दे दिए गए थे ..बस अपने समय से जाओ ,सम्बंधित अध्यापक के पास बैठो ..वो पहले से ही होठों पर ३६ इंच की मुस्कान लिए ,५ मिनट की स्पीच तैयार करके बैठा होगा… वो भी सब अच्छा ही अच्छा …यानी कि बच्चों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण … बस वो सुनो ..थेंक यू बोलो और आगे बढ़ो…बड़ा मजा आ रहा था…..आजकल स्कूल में अध्यापक शिक्षक कम और कस्टमर केयर के डेस्क पर बैठे ज्यादा लगते हैं.. चेहरे पर मुस्कान और अच्छी अच्छी बातें …कितना भी नालायक हो आपका बच्चा हो पर वो उसमें भी खूबियाँ ढूँढ – ढूंढ कर आपको बताएँगे ..तभी बच्चे खींच खींच कर माता पिता को शिक्षकों से मिलवाने ले जाते हैं कि देखो कितने योग्य हैं हम और एक तुम हो जो घर में डांटते ही रहते हो.और घर आकर उन्हें लाइसेंस मिल जाता है हर वो काम करने का जिनके लिए माता -पिता उन्हें आम तौर पर मना करते हैं
हमें याद आ रहे थे अपने स्कूल के दिन जब साल में १ या २ बार ये पेरेंट्स मीटिंग होती थी …जिसमें कभी माता – पिता जाने को तैयार नहीं होते थे कि कौन लाडलों की बुराइयाँ सुनेगा जाकर , न ही बच्चे चाहते थे कि उनके माता – पिता इन मीटिंग्स में आयें…. त्योरियां चढ़ा हुआ अध्यापकों का चेहरा ,रोबीला स्वर और कितना भी अच्छा छात्र हो उसकी अनगिनत कमियां …कौन चाहेगा यह सब चुपचाप खड़े होकर सुनना.और फिर उनसब के ऊपर घर जाकर फिर डांट खाओ ” मीटिंग के आफ्टर इफेक्ट्स”..२ दिन खेलना बंद , टीवी बंद, गाने बंद, दोस्तों से बात बंद …बाप रे बाप किसे चाहिए ऐसी पेरेंट्स मीटिंग?
…
कितना बदल गया है परिवेश …पहले आपको शिक्षण संस्थान की जरुरत होती थी आप विन्रम होकर जाते थे कि बराय मेहरबानी आपके बच्चे को दाखिला दे दिया जाये हम फीस भी देंगे ….फिर भी शिक्षकों का स्वर तना ही रहता था एहसान सा करके दाखिला दिया जाता था.और मजाल जो उनकी किसी गलती पर आप चूं भी कर दें …कहीं आपने अपने बच्चे का पक्ष ले लिया या शिक्षक की कोई गलती निकाल दी ….फिर आपका बच्चा उस साल तो पास होने से रहा..
पर अब आपको नहीं बल्कि शिक्षण संस्थान को आपकी ..नहीं सॉरी सॉरी ..आपकी जेब की जरुरत है…जाइये देखिये आपके बच्चे के लायक हैं वो लोग या नहीं ….वो भी पूरी कोशिश करेंगे आपको लुभाने की… इससे अच्छा तो स्कूल हो ही नहीं सकता आपके नौनिहाल के लिए..सारी सुविधाओं से युक्त …आपका लाडला नबाब की तरह जायेगा ..जो मर्जी होगी पढ़ेगा …और मजाल टीचर की कि कम no . दे दे आखिर इतने पैसे किसलिए लेते हैं …भले ही बच्चा घर में रोटी को हाथ न लगता हो पर स्कूल में पूरा लंच न ख़तम करके आये तो अध्यापिका की आफत …दूसरे दिन ही मम्मी जी दनदनाती पहुँच जाएँगी कि आखिर करती क्या है अध्यापिका ? बच्चे को खाना भी नहीं खिला सकती …आखिर इतने पैसे लेते किस बात के हैं …..बहरहाल नाम भले ही उनका शिक्षक रह गया हो पर हालत उनकी किसी फाइव स्टार होटल की आया से ज्यादा नहीं रह गई
ठीक भी है भाई बदलता वक़्त है और उसके साथ परिवेश भी बदलता ही है …अब वो वक़्त शायद दूर नहीं जब अपने लाडलों के लिए महंगे होटल का कमरा बुक कराया जायेगा ….वहां वो आराम से पसर कर कुछ मूड हुआ तो पढ़ लेंगे ..एक एक करके टीचर आयेंगे और उनमे स्किल हुआ तो बच्चे को सोते सोते भी पढ़ा लेंगे ..आखिर उन्हें पैसे किस बात के मिलते हैं….और जों नहीं पढ़ा पाए तो बेकार… रास्ता नापो जी ..कोई और आएगा.ज्यादा लम्बी मुस्कान वाला ….
Tuesday, March 16, 2010
अहसास
गीली सीली सी रेत मेंछापते पांवों के छापों मेंअक्सर यूँ गुमां होता हैतू मेरे साथ साथ चलता है..सुबह की पीली धूप जबमेरे गालों पर पड़ती है
शांत समंदर की लहरें
जब पाँव मेरे धोती हैंउन उठती गिरती लहरों में अब भीमुझे अक्स तेरा दिखाई देता है.उस गोधुली की बेला मेंजब ये दिल दिए सा जलता हैदूर क्षितिज में जब सूरजअपनी संध्या से मिलता हैतब मेरी इन बाँहों को भी तेरे ,आलिंगन का अहसास होता हैइस ठंडी सिकुड़ी रात में जबतन मेरा सिहरने लगता हैतपते आग के शोलों मेंमन मेरा पिघलने लगता हैतेरे सपनो की आस में तबमेरे नैना धीरे से मुंद जाते हैंमाँ की गोद में सर रख जैसे,नन्हा बच्चा कोई सो जाता हैपाँव के नीचे से जैसेये रेत फिसलती जाती हैवैसे ही चुपके से मेरीरातें गुजरती जाती हैं.
दिन रैन की धूप छाँव में
लेकिन
यकीन हर पल ये होता हैमेरे दिल के किसी कोने मेंकहीं न कहीं तू रहता है
Friday, March 12, 2010
हम ऐसे क्यों हैं?
मानवीय प्रकृति पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है, लोग बहुत कुछ कहना चाहते हैं…कहते भी हैं..परन्तु मुझे लगता है कि ,इस पर जितना भी लिखा या कहा जाये कभी पूरा नहीं हो सकता . तो चलिए थोडा कुछ मैं भी कह देती हूँ अपनी तरफ से.
ये एक मानवीय प्रकृति है कि हमें जिस काम को करने के लिए कहा जाये हमें उस काम को छोड़ बाकी सभी काम अच्छे लगते हैं.जैसे मिठाई और वसा के लिए हमारी पसंद एक तंत्र विकसित मनोवैज्ञानिक है..आप माने या न माने मानवीय स्वाभाव स्वभाविक रूप से कभी भी . politically correct.नहीं होता. we never like to do, what we have to do .
मुझे याद है जब हम छोटे थे तो परीक्षाओं के समय पर टी वी देखने की इजाज़त नहीं होती थी ..और तब बड़ा खीज कर हम कहा करते थे कितना अच्छा होता यदि एग्जाम में टी वी के कार्यक्रमों पर ही सवाल आते और इन्ही पर लिखने को कहा जाता…तदुपरांत वो दिन भी आया जब पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान एक पर्चे के अंतर्गत हमें एक टी वी प्रोग्राम की ही समीक्षा और विवेचना करनी थी …तो तब हमें वो काम भी काटने को दौड़ता था….कि ” क्या यार अब बैठ कर ये टी वी प्रोग्राम देखो.” ये भी कोई इम्तिहान में आने वाली चीज़ है?.
इसी तरह जो चीज़ हमें सहज ही प्राप्त हो जाये हम उसका मूल्य नहीं समझते ..जो नहीं होता वही आकर्षित करता है हमेशा ..जैसे जिसके सर पर बहुत बाल हों वो फेशन के लिए गंजा होकर घूमता है ..और जिसके सर पर न हों वो बेचारा १-१ बाल के लिए तरसता है :)..जिसके बाल घुंघराले होते हैं वो सीधे के लिए और सीधे वालों वाला घुंघराले वालों के लिए मरता रहता है .
इसी बात पर एक किस्सा याद आया..मैं जब स्कूल में पढ़ा करती थी .तब मुझे गाँव देखने का बहुत शौक था ..हिंदी फिल्मो में गाँव की छटा बैलगाड़ी ,तांगा, हाथ से फोड़ कर प्याज से रोटी खाना, तालाब , कुएं . ये सब मुझे किसी परीस्तान का आभास सा कराते थे.उस पर छुट्टियों में अपनी सहेलियों से सुनना कि “हम अपने गाँव जा रहे हैं” ..बड़ी कुढ़न पैदा करता था …घर आकर तन जाया करती थी मैं..”मम्मी हमारा गाँव कहाँ है? हम क्यों नहीं कभी वहां जाते ? हमारे दादा ,नाना क्यों शहरों में रहते हैं ? बाकी सब के तो गाँव में रहते हैं.”…और मम्मी डांट कर चुप करा दिया करती..”.जब देखो फालतू बात करेगी जा अपनी पढाई कर” ..एक ये भी बहुत गन्दी प्रकृति होती है मम्मियों में, कभी कोई बात सही तरीके से नहीं बतायेंगी जिसका जबाब नहीं पता बस फालतू कहकर डांट दिया.खैर एक बार छुट्टियों में मेरी एक सहेली मेरा सड़ा हुआ मुंह देख पसीज गई और उसने मुझे कहा कि तू हमारे साथ चल गाँव …बस फिर क्या था उछलते – कूदते पहुँच गए घर और कर दिया ऐलान कि इस बार हम अपनी सहेली के गाँव जायेंगे छुट्टियों में..मम्मी ने भी ये कहकर टाल दिया पापा से पूछ लेना..शाम को पापा आये तो उनके सामने अपनी बात रखी ….पर वो बेचारे ऐसे – कैसे , किसी और के साथ वो भी गाँव में जाने की इजाजत देते. हमें न सही उन्हें तो मालूम थी गाँव की असलियत..पर यहाँ मैं उन्हें मनाने की पूरी कोशिश में जुटी थी तो आखिर उन्होंने कहा ..”अच्छा ठीक है तेरी शादी गाँव में ही कर देंगे ,वहीँ रहना जिन्दगी भर.”..अब बताओ भला .ये पापा ,मम्मी भी न..ये भी कहाँ अपनी प्रकृति से बाज़ आते हैं . अरे नहीं भेजना तो न भेजें पर ये भी कोई बात हुई ?…..क्या जो भी चीज़ अच्छी लगे सबसे शादी कर ली जाती है..?.ठीक है मत भेजो बड़े होकर खुद चले जायेंगे…पर मेरी ये इच्छा पूरी हुई कुछ साल पहले जब पापा ने अपना दाद्लाई गाँव हमें दिखा दिया …और तब समझ में आया कि फिल्मो में दिखाए गाँव में और असलियत में क्या फर्क होता है, और तब हमें वहां जाने की इजाजत क्यों नहीं मिली थी..वहां की मूल भूत सुविधाओं के आभाव में १ दिन भी हमारा रहना मुहाल हो जाता
.पर हाँ अगर कभी वो गाँव देखने को नहीं मिलता तो उसे देखने कि लालसा शायद हमेशा बनी रहती और फ़िल्मी गाँव का भ्रम भी.
तो हमें जिस चीज़ की अभिलाषा होती है वह न मिले तो उसके लिए दिल अटका रहता है ये भी एक मानवीय प्रकृति है :).
जिस तरह एक बच्चे को जिस काम के लिए मना किया जाये वह वही करता है …ये स्वाभाव हम कभी कभी वयस्कों में भी देख पाते हैं ..जिसे हम साधारणत: इगो का नाम देते हैं.
ये मानवीय प्रकृति कभी कभी हालात,परिवेश और वक़्त के साथ अलग अलग रूप भी ले लेती है.इसी श्रृंखला में एक उदाहरण और याद आ रहा है …यदि एक उच्स्तारीय ,आकर्षक व्यक्ति किसी साधारण इंसान से सहजता से बात करता है तो उसे लगता है कि जरुर कुछ गड़बड़ है वर्ना इतना बड़ा आदमी मुझसे क्यों इतनी आत्मीयता से बात करेगा…और यदि वो बात नहीं करता है तो ये समझा जाता है घमंडी है …गुरुर है क्यों बात करेगा भला.:)
कहने का मतलब यह कि कुछ मानवीय स्वाभाव प्राकृतिक होते हैं..और वो जरुरी नहीं कि वो नैतिक रूप से भी सही हो
Wednesday, March 10, 2010
ओमकार से ओम तक की यात्रा
१८ वीं और १९ वीं सदी के बहुत से पश्चिमी विद्वानों ने ये भ्रम फ़ैलाने की कोशिश की है कि भारत में ३०० – ४०० ईसा पूर्व जिस ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ उसकी जड़े भारत से बाहर की हैं ,और इससे पहले भारत किसी भी तरह की लिखित लिपि से अनजान था.
इसी सम्बन्ध में डॉ. Orfreed and Muller ये मानते हैं कि भारतीयों ने लिखना ग्रीक से सीखा .सर विलियम जोंस ने कहा कि भारतीय ब्राह्मी लिपि Samatic लिपि से विकसित हुई है. डॉ. Devid Deringer को लगता था कि ब्राह्मी का जन्म Aramaic लिपि से हुआ है .जबकि संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखते हुए माक्स मुलर कहते हैं कि भारत में लेखन की कला ४०० ईसा पूर्व में ही जानी गई.
दुर्भाग्य वश बाद में भारतीय विद्वानों ने भी इन्हीं के आधार पर ये राग अलापना शुरू कर दिया और सच्चाई जानने की कोशिश ही नहीं की .
इस सम्बन्ध में चलिए देखते हैं कि सच क्या है —
प्रसिद्द पुरातत्व वादी और लिपि विशेषज्ञ ए. बी. वालावलकर (A.B.Walawalkar)और ल.स. वाकणकर (L.S.Wakankar) ने तत्पश्चात ये सिद्ध किया कि भारतीय लिपि का जन्म भारत में ही हुआ और लिखित लिपि वैदिक कॉल में भी जानी जाती थी.
आइये एक नजर डालते हैं archaelogical evidence पर–
Pic- 1
ब्रिटिश म्यूजियम में एक मोहर रखी हुई है (३१-११-३६६/१०६७- ४७३६७ – १८८१).इसकी नक़ल देखिये चित्र १ में .
६ वीं सदी की इस मोहर में बेबीलोन के अंकित शब्द और ब्राह्मी लिपि के शब्द एक साथ दिखाई पड़ते हैं.बाकी सभी अंकित शब्दों को १९३६ में ही पढ़ लिया गया था .परन्तु बीच की पंक्ति को अज्ञात लिपि समझ कर छोड़ दिया गया. वालावलकर ने इसे पढ़ा और ये इस कथन को झुठला दिया कि भारतीय लिपि को बाहर से लाया गया है.उनके मुताबिक ये मोहर ये साबित करती है कि ये अशोक के समय से पूर्व की है और ये भाषा संस्कृत और महेश्वरी है
PIC- 2, 3 from left to right. Pic- 4, 5, 6, 7.
इसी तरह एक और महत्वपूर्ण सबूत पेरिस के लौर्व म्यूजियम में मिलता है.
३००० – २४०० ईसा पूर्व की इस मोहर ( देखिये चित्र २ ) और इंडस वेली ( देखिये चित्र ३ ) कि इस मोहर की समानताएं भी इस बात को गलत सिद्ध करती है कि भारतीय लिपि को कहीं बाहर से लाया गया है.
परन्तु अंग्रेजों के पूर्वाग्रहों से युक्त विद्वान अभी भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे हुए हैं.
वैदिक ओमकार से भी समझा जा सकता है
इस क्रम में जरुरी है कि हम एक नजर ६ सदी ईसा पूर्व कि सोहगरा कोपर ट्रांसक्रिप्ट पर डाले इसकी पहली पंक्ति पर वैसा ही चित्र है जैसा वालावालकर ने वैदिक ओमकार का बताया है.जरा चित्र ५, ६, ७ को देखिये ये सिक्को पर ॐ और स्वस्तिक जैसे धार्मिक चित्र अंकित हैं..अब सवाल ये कि हम ये कैसे मान लें कि वैदिक ओमकार ऐसा ही था.?
यहाँ ओमकार की रचना कैसे हुई ..ज्ञानेश्वरी में इसकी व्याख्या देखिये.
a – कार चार अंगुल U – कार उदर विशाल
m– कार महामंडल , मस्तक कारे हेतिन्ही एकावातालेतेचा शब्दा ब्रह्मा कावाकाला तेमीयां गुरुकृपा नामिले आदि बीज
Pic.8
हालाँकि वर्तमान देवनागरी में लिखा जाने वाला ॐ इस व्याख्या से मेल नहीं खाता परन्तु वालावालकर के वैदिक ओमकार के बहुत समीप है.यदि हम महेश्वरी सूत्र के अर्धेन्न्दू सिधांत को देखेंगे तो हम ये पहेली बुझा पाएंगे.
चित्र ८ को देखिये….नीचे के २ आधे गोले हैं जो अ जैसे दीखते हैं..इसके ऊपर एक और आधा गोला है जो उ कि तरह लगता है. फिर एक पूरा गोला और आधा गोला जो म को दर्शाता है
महेश्वरी सूत्र के अनुसार ओमकार ,एकाक्षर ब्रह्मा का यही आकर बताया गया है.ये एक विशेष स्वर है जिसे एक तरह से लगाया जाये तो एक विशेष आकर ले लेता है..और यही सिद्धांत हमें वर्तमान देवनागरी के ओम में देखने को मिलता है.यदि हम इस वैदिक ओमकार को दक्षिण वृत्त ९० डिग्री पर घुमाएँ जैसा कि चित्र ९ में दिखाया गया है तो तो ये एकदम देवनागरी लिपि के समान ही दीखता है.
एकतरह से वैदिक ओमकार से ओम तक की यात्रा भारतीय लिपि के विकास कि कहानी है.इसे ऋग्वेद से पद्म पुराण तक भी देखा जा सकता है
साभार – श्री सुरेश सोनी की पुस्तक “India’s Glorious Scientific Tradition ” पर आधारित.
अनुवाद- शिखा वार्ष्णेय
Monday, March 8, 2010
वहीं जहाँ से आई थी
नारी
बंद खिड़की के पीछे खड़ी वो,
सोच रही थी कि खोले पाट खिड़की के,
आने दे ताज़े हवा के झोंके को,
छूने दे अपना तन सुनहरी धूप को.
उसे भी हक़ है इस
आसमान की ऊँचाइयों को नापने का,
खुली राहों में अपने ,
अस्तित्व की राह तलाशने का,
वो भी कर सकती है
अपने, माँ -बाप के अरमानो को पूरा,
वो भी पा सकती है वह मक़ाम
जो पा सकता है हर कोई दूजा.
और फिर ये सोच हावी होने लगी
उसके पावन ह्रदय स्थल पर.
मन की उमंग ने ली अंगड़ाई,
और सपने छाने लगे मानस पटल पर,
क़दम उठाया जो बढाने को तो,
किसी अपने के ही प्रेम की बेड़ियाँ
पावों में पड़ी थीं,
कोशिश की बाँहें फेलाने की तो,
वो कर्तव्यों के बोझ तले दवी थीं.
दिल – ओ दिमाग़ में मची थी हलचल,
ओर वो खड़ी थी बेबस लाचार सी,
ह्रदय के सागर में
अरमान कर रहे थे कलकल,
और वो कोशिश कर रही थी
अपने वजूद को बचाने की.
तभी अचानक पीछे से आई
बाल रुदन की आवाज़ से,
उसके अंतर्मन का द्वन्द शांत होने लगा,
दीवार पर लगी घड़ी
शाम के सात बजा रही थी,
ओर उसके ह्रदय का तूफ़ान
धीरे से थमने लगा.
सपने ,महत्वाकांक्षा ,
और अस्तित्व की जगह,
बालक के दूध की बोतल
हावी होने लगी विचारों पर,
पति के लिए नाश्ता
अभी तक नही बना,
और रात का खाना हो गया
हावी उसके मनोभावों पर.
और वो जगत की जननी,
ममता मयी रचना ईश्वर की,
भूल गई सब और बढ चली
वहीं जहाँ से आई थी,
मैत्रेई और गार्गी के इस देश की
वो करुण वत्सला नारी थी
Wednesday, March 3, 2010
किसी और के वास्ते
एक दिन मुझसे किसी ने कहा था, कि अपने लिए मांगी दुआ कबूल हो न हो पर किसी और के लिए मांगी दुआ जरुर क़ुबूल होती है.ये अहसास बहुत खूबसूरत लगा मुझे …और सच भी..बस उसी से कुछ ख्याल मन में आये अब ये ग़ज़ल है या नज़्म या कुछ भी नहीं ..ये तो नहीं पता पर एक एहसास जरुर है
हर आरज़ू की जुबां, रूह से निकलती है सदा
हर लब पे एक दुआ, किसी न किसी के वास्ते
न मंदिर न मस्जिद, न कोई गिरजा की जरुरत
बस एक अदद दिल की तलब, पाक दुआ के वास्ते .
रुख हो हवा का गलत ,या हो भंवर में नाव भी
है दुआ में वो असर,बने राह भी कश्ती के वास्ते
निगाहें हो तनिक झुकी हुई, सामने पसरे हाथ,हों,
परेशां है खुदा की महफ़िल ,इंकार करे किस वास्ते .
अपने लिए उठे ये हाथ , तो शिखा! क्या बात हुई
होगी दुआ कुबूल, जो कर किसी बेबस के वास्ते
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