Friday, February 5, 2010

मेरा हीरो

६ फरवरी …. . मेरे दिल के बहुत करीब है ये तारीख ,मेरे हीरो का जन्म दिवस…जी हाँ एक ऐसा इंसान जो जिन्दगी से भरपूर था ..जीवन के हर पल को पूरी तरह जीता था. एक मेहनतकश इंसान…. जिसके शब्दकोष में असंभव शब्द ही नहीं था,..व्यक्तित्व ऐसा रौबीला कि सामने वाला मुंह खोलते हुए भी एक बार सोचे ,आवाज़ ऐसी कि विरोधी सकते में आ जाएँ…जी हाँ ऐसा था मेरा हीरो — TDH (tall —dark और handsome -) “मेरे पापा “.

कहने को तो वो अब हमारे बीच नहीं हैं …जिन्दगी से हर पल प्यार करने वाले इस प्यारे इंसान को हमसे उनकी मधुमेह की बीमारी ने असमय छीन लिया..परन्तु मैं उन्हें आज भी उसी जिन्दादिली से याद करती हूँ जिस तरह वो जिया करते थे…मैं आज भी उनका जन्मदिन उसी उत्साह से मानती हूँ जैसे वो मनाया करते थे….
बहुत शौक था उन्हें अपने घर लोगों को बुलाकर दावत करने का…न जाने कैसे कैसे बहाने ढूंढ लिया करते थे …और बुला लिया करते थे सब मेहमानों को….और जो ,न आ पाने का बहाना करे..उसे खुद अपने साधनों से बुलवा भेजते थे और फिर वापस घर भी छुड्वाया करते थे. मांसाहार तो क्या प्याज भी नहीं खाते थे.परन्तु लोगों को चिकेन बना कर खिलाते थे…खुद कभी बियर तक नहीं चखी जीवन में ,पर हमारे घर की छोटी सी बार हमेशा भरी रहती थी..
.
थोड़े अजीब भी थे वो – कोई मांगे न मांगे पर वो सबकी मदद करने को तैयार…मुझे आज भी याद है मेरे high school का रिजल्ट आया था…और मेरी एक सहेली जो उनके ऑफिस के एक क्लर्क की बेटी थी…एक नंबर से इंग्लिश में फेल हो गई थी…तो हम भी थोड़े से दुखी थे उसके लिए क्योंकि बाकी विषयों में अच्छे नंबर थे उसके…बस फिर क्या था पापा ने राय दे डाली उन्हें कि कॉपी खुलवाओ १/२ no . की बात है बढ़ जायेगा…परन्तु वो महाशय कहने लगे अरे क्या साहब कौन इतना झंझट करेगा —लड़की है ,कौन तोप मारनी है अगले साल पास हो जाएगी…बस ये बर्दाश्त न हुआ पापा से और तभी अपना एक मातहत भेज सारी कार्यवाही करवाई और उसका नतीजा ये हुआ कि उसका १ no .बढ़ गया… ….मेरी सहेली का एक साल बच गया और उसकी आँखों में ख़ुशी और कृतज्ञता के धागे मुझे आज भी नजर आते हैं.
ऊपर से इतने कड़क और अनुशासन पसंद कि तौबा है… एक बार ५ मिनट की देरी हो जाने की वजह से अपने से ३ रैंक बड़े अफसर को छोड़ कर चले गए दौरे पर…और वो अफसर भुनभुनाता रह गया, कर कुछ नहीं पाया क्योंकि पापा जैसा कर्तव्यनिष्ठ और काम का इंसान उन्हें दूसरा नहीं मिल सकता था.
हम सब भी घर में उनके गुस्से से बहुत डरा करते थे ..वो घर में आते तो दस मिनट तक हम तीनो बहनों में से कोई उनके सामने नहीं जाता था कि पहले देख लें पापा का मूड कैसा है उस हिसाब से व्यवहार करेंगे…मूड ख़राब है तो चुपचाप अपनी पुस्तकें लेकर बैठ जाते थे.:)
.
पर मन के इतने भावुक और संवेदनशील थे कि हिंदी फिल्म्स देखकर फूट फूट कर रो दिया करते थे , किसी की शादी में जाते थे तो विदाई तक रुकते ही नहीं थे .क्योंकि वो जानते थे कि खुद को काबू में नहीं रख पाएंगे , लड़के वाले की तरफ से होते तब भी
, क्यों कि फूट फूट कर रोता उन्हें सब लोग देख लेंगे और उनकी रौबीली image का बंटाधार हो जायेगा.
दूसरों की ख़ुशी में खुद बाबले हुए जाते थे .मतलब बिलकुल बेगानी शादी में अब्दुला दीवाना टाइप.
घूमने का शौक ऐसा कि साल में १ महीने के लिए जाना ही जाना है …एक बार तो हम अपने छमाही इम्तिहान में मेडिकल लगा कर गए थे घूमने
अब क्या क्या याद करूँ और क्या बिसराऊं ..उनसे जुड़ा हर व्यक्ति उनके पास रहकर अपने आप को सुरक्षित महसूस करता था ..
ऐसा था मेरा हीरो…आज भी है ..यहीं मेरे आसपास
.
मैने ये कविता कुछ समय पहले लिखी थी उनके लिए आज इस मौके पर आपको समर्पित करती हूँ.
पापा तुम लौट आओ ना,

तुम बिन सूनी मेरी दुनिया,
तुम बिन सूना हर मंज़र,
तुम बिन सूना घर का आँगन,
तुम बिन तन्हा हर बंधन.
पापा तुम लौट आओ ना
याद है मुझे वो दिन,वो लम्हे ,
जब मेरी पहली पूरी फूली थी,
और तुमने गद-गद हो
100 का नोट थमाया था.
और वो-जब पाठशाला से मैं
पहला इनाम लाई थी,
तुमने सब को
घूम -घूम दिखलाया था.
अपने सपनो के सुनहरे पंख ,

फिर से मुझे लगाओ ना.
पापा तुम लौट आओ ना.
इस जहन में अब तक हैं ताज़ा
तुम्हारे दौरे से लौटने के वो दिन,
जब रात भर हम
अधखुली अंखियों से सोया करते थे,
और हर गाड़ी की आवाज़ पर
खिड़की से झाँका करते थे.
घर में घुसते ही तुम्हारा
सूटकेस खुल जाता था,
और हमें तो जैसे अलादीन का
चिराग़ ही मिल जाता था.
वो अपने ख़ज़ाने का पिटारा
फिर से एक बार ले आओ ना.
पापा बस एक बार लौट आओ ना.
आज़ मेरी आँखों में भरी बूँदें,

तुम्हारी सुदृढ़ हथेली पर
गिरने को मचलती हैं,
आज़ मेरी मंज़िल की खोई राहें ,
तुम्हारे उंगली के इशारे कोतरसती हैं,

अपनी तक़रीर अपना फ़लसफ़ा

फिर से एक बार सुनाओ ना,

बस एक बार पापा! लौट आओ ना.

No comments:

Post a Comment