Wednesday, October 28, 2009

कुछ रंग बिरंगी फुआरें



सपनो को बंद करके पलक पर थे हम चले।
शब्दों के कुछ फूल मन बगिया में जो खिले
समेट कर आज इन्हें बिखरा दिया है इसकदर
तमन्ना है की आपकी पलकों पर ये सजें
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बड़ी शिद्दत से बिछाये बैठे थे
प्यार के गलीचे को
खबर क्या थी उसमें
खटमल भी आ जाया करते हैं
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आज इस बारिश की
बोछार देख याद आया
तेरा प्यार भी कभी
यूँ ही बरसा करता था.
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आसमां आज कुछ
झुका झुका सा लगता है
शायद ऊपर आज
डांस प्रोग्राम् है
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पहले हम कहते थे
ये धरती चपटी है
अब कहते हैं कि
पृथ्वी गोल है
पर कब समझेंगे की
ये प्रकृति अनमोल है.
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आज भी जब दिल करता है
की हंसें हम
तो खुद ही हो जाती हैं
ये आँखें नम
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यूँ तो रोज़ आते हैं,
सेंकडों परिंदे मेरी मुडेर पर।
पर किसी के भी पंजों में,
तेरी चिठ्ठी कहाँ होती है.
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जैसे आये थे हम
उल्टे पैर लौट जायेंगे
तेरी गली में अब
शाम कहाँ होती है ।
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Friday, October 23, 2009

ऐ सुनो !

सुनो! पहले जब तुम रूठ जाया करते थे न,
यूँ ही किसी बेकार सी बात पर
मैं भी बेहाल हो जाया करती थी
चैन ही नहीं आता था
मनाती फिरती थी तुम्हें
नए नए तरीके खोज के
कभी वेवजह करवट बदल कर
कभी भूख नहीं है, ये कह कर
अंत में राम बाण था मेरे पास।
अचानक हाथ कट जाने का नाटक …
तब तुम झट से मेरी उंगली
रख लेते थे अपने मुहँ में,
और खिलखिला कर हंस पड़ती थी मैं….
फिर तुम भी झूठ मूठ का गुस्सा कर
ठहाका लगा दिया करते थे।
पर अब न जाने क्यों …..
न तुम रुठते हो
न मैं मनाती हूँ
दोनों उलझे हैं
अपनी अपनी दिनचर्या में
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
आज फिर सब्जी काटते वक़्त
हाथ कट गया है
ऐ सुनो! तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर मनाने को जी करता है

Tuesday, October 20, 2009

रुकते थमते से ये कदम

रुकते थमते से ये कदम
अनकही कहानी कहते हैं
यूँ ही मन में जो उमड़ रहीं
ख्यालों की रवानी कहते हैं
रुकते थमते…..
सीने में थी जो चाह दबी
होटों पे थी जो प्यास छुपी
स्नेह तरसती पलकों की
दिलकश कहानी कहते हैं
रुकते थमते….
धड़कन स्वतः जो तेज हुई
अधखिले लव जो मुस्काये
माथे पर इठलाती लट की
नटखट नादानी कहते हैं।
रुकते थमते….
सघन अंधेरी रातों में
ज्यों हाथ लिए हो हाथों में
दो जुगनू सी जो चमक रही
आँखों की सलामी कहते हैं
रुकते थमते…
लावण्या अपार ललाटो पर
सिंदूरी रंग यूँ गालों पर
मद्धम -मद्धम सी साँसों की
मदमस्त खुमारी कहते हैं
रुकते थमते……

Tuesday, October 13, 2009

लो फ़िर आ गई दिवाली

लो फिर आ गई दिवाली…
हम फिर करेंगे घर साफ़ मगर
मन तो मेले ही रह जायेंगे .
दिल पर चडी रहेगी स्वार्थ की परत
पर दीवारों पे रंग नए पुतवायेंगे .
फिर सजेंगे बाज़ार मगर
जेबें खाली ही रह जाएँगी .
जगमगायेंगी रौशनी की लडियां
पर इंसानियत अँधेरा ही पायेगी .
आस्था से क्या लेना-देना हमें
पर लक्ष्मी पूजन हम कराएँगे
दिल में द्वेष भावः हो तो क्या,
हम मिठाई बांटने जायेंगे .
क्यों न इन रिवाजों से हटकर ,
इस बार कुछ प्यार बाँटें
कुछ मन चमकाएं
दिवाली तो हर साल मानते हैं
चलो इस साल दीये दिल में जलाएं

Thursday, October 8, 2009

मैं हिंदी हूँ.

देवनागरी लिपि है मेरी,
संस्कृत के गर्भ से आई हूँ. 
प्राकृत, अपभ्रंश हो कर मैं, 
देववाणी कहलाई हूँ.
शब्दों का सागर है मुझमें, 
झरने का सा प्रभाव है.
है माधुर्य गीतों सा भी,
अखंडता का भी रुआब है. 
ऋषियों ने अपनाया मुझको, 
शास्त्रों ने मुझे संवारा है. 
कविता ने फिर सराहा मुझको, 
गीतों ने पनपाया है. 
हूँ गौरव आर्यों का मैं तो, 
मुझसे भारत की पहचान। 
भारत माँ के माथे की बिंदी, 
है हिन्दी मेरा नाम.