Saturday, September 19, 2009

अभिलाषाओं का टोकरा


अपनी अभिलाषाओं का 

तिनका तिनका जोड़

मैने एक टोकरा बनाया था,

बरसों भरती रही थी उसे

अपने श्रम के फूलों से,

इस उम्मीद पर कि

जब भर जायेगा टोकरा तो,

पूरी हुई आकाँक्षाओं को चुन के

भर लुंगी अपना मन।

तभी कुछ हुई  कुलबुलाहट मन में

धड़कन यूँ बोलती सी लगी

देखा है नजरें उठा कर कभी?

उस नन्ही सी जान को बस

है एक रोटी की अभिलाषा 

उस नव बाला को बस

है रेशमी आँचल की चाह 

उन बूढी आँखों में बस

आस है अपनों के नेह की 

और उस मजदूर के सर बस

एक पेड़ की छांव है।

और मैने 

अपनी अभिलाषाओं से भरा टोकरा

पलट दिया उनके समक्ष

बिखेर दिए सदियों से सहेजे फूल

उनकी राह में

अब मेरी अभिलाषाओं का टोकरा तो खाली था,

पर मेरे मन का सागर  पूर्णत: भर चुका था.

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