Monday, July 27, 2009

नानी और मुन्नी

एक दिन पड़ोस की नानी
और अपनी मुन्नी में ठन गई।
अपनी अपनी बात पर
दोनों ही अड्ड गईं।
नानी बोली क्या जमाना आ गया है…
 घड़ी घड़ी डिस्को जाते हैं,
 बेकार हाथ पैर हिलाते हैं
ये नहीं मंदिर चले जाएँ,
एक बार मथ्था ही टेक आयें॥
मुन्नी चिहुंकी
तो आपके मंदिर वाले
डिस्को नहीं जाते थे?
ये बात और है
डिस्को तब उपवन कहलाते थे।
हम तो फिर भी
एक ही के साथ जाते हैं
वो तो एक साथ
हजारो के साथ रास रचाते थे।
सुन नानी की भवें तन गईं
अपना डंडा ले मुन्नी पर चढ़ गईं
देखो कैसी जबान चलाती  है
न शर्म न बड़ों का लिहाज़
जो मन आया पट पटाती  है।
मुन्नी ने फिर चुटकी ली
नानी जरा अपने शास्त्रों का ध्यान करो
उसमें नारी के जो ६४ गुणों का वर्णन है
उसमें वाक्पटुता भी एक गुण है।
अब नानी को कुछ न सूझा
तो उसके कपडों पर अड्ड गईं
ये आजकल का सिनेमा और नाच
इसी ने किया है बच्चों का दिमाग ख़राब
मुन्नी खिलखिलाई
वाह नानी
ये कैसा दोगला व्यवहार है
इन्द्र की सभा में नाचें तो अप्सरा हैं
और पेट पालती बार बालाएं बदनाम हैं।
फर्क बस इतना है –
तब राजतंत्र था
और शौक राजाओं तक सिमित था
आज लोकतंत्र है
हर बात काजनता को भी हक है।
बदला जमाना नहीं
बदला आपके चश्मे का नम्बर है
मुन्नी नानी का मुहँ चूम
फुर्र से उड़ गई
और नानी बेचारी
सोच में पड़ गई।
अरे अम्मा!
चलो पार्क घुमा लाऊं ?
पप्पू की आवाज आई
पल्लू से चश्मा पोंछ
नानी बुदबुदाई
अभी वो कहीं नहीं जाएँगी
कल ही बेटे से कह
पहले ये मूआं चश्मा बदलवाएगी.

Wednesday, July 22, 2009

असर देखेंगे

लरजते होंटों की दुआओं का फन देखेंगे,
दिल से निकली हुई आहों का असर देखेंगे,
चाहे तू जितना दबा ले मन का तूफान मगर
आज हम अपनी बफाओं का असर देखेंगे।
गर लगी है आग इधर गहरी तो यकीनन
सुलग तो रही होगी आंच वहां भी थोड़ी,
उस चिंगारी को दे अपनी रूह की तपिश,
हम हवाओं की रवानी का असर देखेंगे।
लाख कर ले निगाहों से दूर चेहरा अपना,
बदल चाहे हर रोज़ अपनी राह ए गुजर,
बनके कभी धूप,कभी छांव एक बादल की,
तेरे चेहरे पे अपनी मोहब्बत की चमक देखेंगे।
न होगी मौजूद कल ये शिखा कायनात में तेरी,
होगी महरूम मेरी रौशनी से ये बज्म तेरी,
तब तेरी आँखों में भरे खारे पानी में,
हम अपनी यादों का नस्तूर ए जिगर देखेंगे.

Tuesday, July 7, 2009

अमृत रस

ताल तलैये सूख चले थे, 
कली कली कुम्भ्लाई थी । 
धरती माँ के सीने में भी 
एक दरार सी छाई थी। 
 बेबस किसान ताक़ रहा था, 
चातक भांति निगाहों से, 
घट का पट खोल जल बूँद 
कब धरा पर आएगी…. 
 कब गीली मिटटी की खुशबू 
बिखरेगी शीत हवाओं में, 
कब बरसेगा झूम के सावन 
ऋतू प्रीत सुधा बरसायेगी। 
 तभी श्याम घटा ने अपना घूंघट 
तनिक सरकाया था 
झम झम कर फिर बरसा पानी 
तृण तृण धरा का मुस्काया था । 
 नन्हें मुन्ने मचल रहे थे, 
करने को तालों में छप-छप, 
पा कर अमृत धार लबों पर, 
कलियाँ खिल उठीं थीं बरबस। 
 कोमल देह पर पड़ती बूँदें, 
हीरे सी झिलमिलाती थीं 
पा नवजीवन होकर तृप्त 
वसुंधरा इठलाती थी। 
 देख लहलहाती फसल का सपना, 
आँखें किसान की भर आईं थीं 
इस बरस ब्याह देगा वो बिटिया, 
वर्षा ये सन्देशा लाई थी.