कभी कहा जाता था गुप्त दान, महा दान. कि दान ऐसे करो कि एक हाथ से करो तो दूसरे को भी पता नहीं चले.
खैर वो ज़माना तो चला गया और अब दान ने एक फैशन का सा स्वरुप ले लिया है. जहाँ एक भेड़चाल के चलते हम दान करते हैं और उससे भी अधिक उसका दिखावा.
इसी फैशन के क्रम आजकल एक नया फैशन बहुत जोरों पर है. वह है अपने बच्चे का जन्मदिन अनाथ आश्रम जाकर अनाथ बच्चों के साथ मनाना.
हालाँकि यदि यह फैशन और दिखावे के लिए भी है तब भी सराहनीय है परन्तु इसे समाज सेवा, दान या उन बच्चों के लिए कुछ करने की कोशिश कहना मुझे उनके प्रति ज्यादती लगती है.
आप जब अपने बच्चे का जन्मदिन मनाने अनाथ आश्रम जाते हैं तो आप अपने लिए जाते हैं. वहाँ आपका बच्चा केक काटता है. और वे अनाथ बच्चे यंत्रवत से तालियाँ बजाते हैं. आप उन्हें अपने साथ लाया हुआ खाना बांटते हैं. जोकरी टोपियां पहनाते हैं, गिफ्ट देते हैं जिन्हें वे चुपचाप लेकर आपसे विदा ले लेते हैं.
देखा जाए तो आप उनके साथ जन्मदिन नहीं मनाते बल्कि उन्हें एक अनजान का जन्मदिन मनाने के लिए तैयार किया जाता है. जिसमें उनकी ख़ुशी या मजा शायद ही कुछ रहता हो. बल्कि वे स्वयं को और अधिक बाकियों से अलग्, कमतर और शायद उस जन्मदिन वाले बच्चे से जलन भी महसूस करते हैं और चुपचाप, सहमें हुए से सभी गतिविधियां देखते, निभाते रहते हैं.
क्योंकि यदि हम वाकई उनके साथ अपना दिन मनाना चाहते तो सिर्फ साल में एक दिन ही नहीं कुछ और दिन भी, एक आम पार्टी में भी उन्हें अपने घर बुलाते. जब हम अपने बच्चे के दोस्तों को मैक डोनाल्ड या पिज्जा हट में बुलाकर पार्टी देते तब भी उन्हें बुलाते तब शायद वे बच्चे भी आम बच्चों के तरह कुछ एन्जॉय कर पाते.
बात यदि उन बच्चों को खुशी देने की होती तो अपने बच्चे की जगह हम, उन अनाथ बच्चों का जन्मदिन मनाने वहाँ जाते. उनसे केक कटवाते, उनसे गिफ्ट बंटवाते, उन्हें कहीं घुमाने ले जाते या फिर उनकी किसी जरुरत को बिना जताए पूरा कर देते.
फिर उसकी तस्वीरें हम खींचते और बाकी लोगों को प्रेरणा देने के लिए शेयर करते तब मैं शायद इसे फैशन से इतर कुछ मान सकती थी. वरना तो यह सिर्फ एक नया फैशन है और उन अनाथ बच्चों की एक अनजान खुशकिस्मत बच्चे की तथाकथित पार्टी में शरीक होने की मजबूरी.
Thursday, August 31, 2017
दान या फैशन?
Wednesday, August 16, 2017
नहीं मिलती
जाने किसने छिड़क दिया है तेज़ाब बादलों पर,
कि बूंदों से अब तन को ठंडक नहीं मिलती.
बरसने को तो बरसती है बरसात अब भी यूँही,
पर मिट्टी को अब उससे तरुणाई नहीं मिलती.
खो गई है माहौल से सावन की वो नफासत,
अब सीने में किसी के वो हिलोर नहीं मिलती.
अब न चाँद महकता है, न रात संवरती है,
है कैसी यह सुबह जहाँ रौशनी नहीं मिलती.
आशिक के दिल में भी अब कहाँ जज़्बात बसते हैं,
सनम के आगोश में भी अब राहत नहीं मिलती.
चलने लगी हैं जब से कीबोर्ड पर ये ऊँगलियाँ,
शब्दों में भी अब वो सलाहियत नहीं मिलती.
खो गई है अदब से “शिखा’ मोहब्बत इस कदर,
कि कागज़ पर भी अब वो स्याही नहीं मिलती.
Tuesday, August 15, 2017
सृजन का सुख
दिनांक 14 अगस्त 2017 को मुझे सूचना मिली है कि ‘संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय, अमरावती’ के बी.कॉम. प्रथम वर्ष, हिंदी (अनिवार्य) पाठ्यक्रम के अंतर्गत विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत टेक्स्ट बुक में मेरी एक कविता ‘पगडण्डी की तलाश’ को स्थान मिला है. मेरे लिए ख़ुशी की एक और वजह.