Saturday, November 7, 2015

यूँ भी दिवाली ...

आज सुबह राशन खरीदने टेस्को (सुपर स्टोर) गई तो वहां का माहौल कुछ बदला बदला लग रहा था. घुसते ही एक स्टाफ की युवती दिखी जो भारतीय वेश भूषा में सजी हुई थी. मुझे लगा हो सकता है इसका जन्मदिन होगा। सामान्यत: यहाँ एशियाई तबकों में अपने जन्मदिन पर परंपरागत लिबास में काम पर जाने का रिवाज सा है. परन्तु थोड़ा और आगे बढ़ने पर स्टाफ की एक ब्रिटिश महिला भी सलवार कमीज में घूमती हुई मिली। अब मामला कुछ असामान्य लग रहा था. परन्तु ज्यादा हर मामले में अपनी नाक न घुसाते हुए मैंने सामान लिया और काउंटर पर भुगतान करने आ गई. वहां भी एक मोहतरमा पूरी भारतीय साज सज्जा के साथ विराजमान थीं. अब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ लिया कि आज कुछ खास है क्या ? तब उसने बताया की यहाँ हम दिवाली मना रहे हैं और इसीलिए कुछ खास सजावट और गतिविधियों के साथ ही सभी स्टाफ ने भारतीय वेशभूषा में आने का निर्णय लिया है. 
सामान्यत: लंदन में सभी समुदायों के त्यौहार काफी खुलेमन से मिलजुल कर मनाये जाते हैं और बाजार को देखते हुए दुकानों में दिवाली, ईद आदि पर एक कोना उससे सम्बंधित सामान से सजा दिया जाता है पर आज तो छटा ही कुछ और है फिर आज तो दिवाली है भी नहीं। खैर सामान लेकर बाहर निकलने को हुई तो किनारे पर एक मेज सजी हुई दिखी जहाँ दीये,  टॉफियां और मेहंदी के कुछ कोन रखे हुए थे अब मुझे फिर जिज्ञासा हुई तो वहां खड़ी एक स्टाफ से फिर पूछ लिया। उसका नाम फाल्गुनी था कुछ ७ साल पहले वह यहाँ आई थी.शायद पढ़ने, और अब पार्ट टाइम टेस्को में काम करती है. फाल्गुनी ने विस्तार से सब बताया और मेरी हथेली पर मेहंदी भी लगाने की इच्छा जताई जो मैंने उसकी एक तस्वीर खींचने के एवज में स्वीकार कर ली. 


वह मेहंदी लगाने लगी और मैं उससे बतियाने लगी। अब हमें वहां देखकर एक और स्टाफ का आदमी आ गया. वह ब्रिटिश था और मेहंदी के डिजाइन में अर्थ ढूंढने की कोशिश कर रहा था. उसकी दिलचस्पी देखकर हमने फायदा उठाया और उसे अपना कैमरा फ़ोन थमा दिया। खुद को उत्सव का हिस्सा समझते हुए उसने पूरे जोश ओ खरोश से मेरी दी हुई वह जिम्मेदारी निभाई।


तभी कुर्ते पजामे और दुपट्टे में सुसज्जित एक और स्टाफ का युवक जो अब तक वहां एक लैपटॉप पर हिंदी फ़िल्मी गीत लगा रहा था, आया और फाल्गुनी से कोन लेकर खुद मेहंदी लगाने लगा. मैंने उससे पूछा क्या वह भारतीय है. उसने सिर्फ इतना कहा – नहीं , पर मुझे दिवाली मनानी है. बाद में फाल्गुनी ने बताया वह बांग्लादेशी है. उसके हाथ बेशक कांप रहे थे परन्तु डिजाइन अच्छी पूरी की उसने। अब तक ” ढोली तारो ढोल बाजे ” गीत को स्क्रीन पर देख देख कर वह अंग्रेज युवक भी बैठे बैठे ठुमकने लगा था और एक बड़े स्टोर के छोटे से कोने में एक अच्छा खासा उत्सवी वातावरण बन गया था. 



मेरे कहने पर उसी युवक ने कुछ विदेशी महिला स्टाफ को जो भारतीय वेशभूषा में काम पर आईं थीं, बुलाया और मुझे देख वे भी मेहंदी लगवाने पंक्ति में लग गईं. 


मुझे आश्चर्य हुआ. उनका कोई बॉस या सुपरवाइजर यह कहने नहीं आया कि अपने काम पर लगो, यह तीज त्यौहार घर जाकर मनाना। बल्कि वहां से गुजरता हुआ हर इंसान एक प्यारी सी मुस्कान फेंक कर जा रहा था. 
मैंने उन विदेशी लड़कियों से पूछा – क्या जानती हो दिवाली के बारे में ? जबाब मिला – 
“ज्यादा तो नहीं पर थोड़ा बहुत”। 
और यह परिधान ?
“अपनी एक मित्र से उधार लिए हैं दिवाली मनाने को.”

मुझे मन किया अपने सारे काम -धाम छोड़ कर आज यहीं इसी स्टोर में डेरा जमा लूँ और इन लोगों को यह उत्सव मनाते देखूं। फिर पता चला इनका यह उत्सव दिवाली तक यानि ११ नवम्बर तक चलने वाला है. अब वहां पर जमे रहना असंभव था तो उन्हें शुभकामनाएं और धन्यवाद कह कर मैं चली आई. 

नफरत के ठेकेदारो , तुम बोते रहो नफरतों के बीज, बांटटे रहो इंसानों को धर्म के नाम पर. परन्तु जबतक दिलों में प्रेम है और यह प्रेम फैलाने वाले उत्सव। तब तक तुम अपने कुकर्मों  में सफल तो न हो पाओगे। 




Friday, November 6, 2015

पश्चिम का चाँद....

ऑफिस से आकर उसने अलमारी खोली। पीछे से हैंगर निकाल कर निहारा। साड़ी पहनने की ख़ुशी ने कुछ देर के लिए सारा दिन भूख प्यास से हुई थकान को मिटा दिया। वह हर साल इसी बहाने एक नई साड़ी खरीद लिया करती है कि करवा चौथ पर काम आएगी। वर्ना यहाँ साड़ी तो क्या कभी सलवार कमीज पहनने के मौके भी नहीं आते. वह जल्दी जल्दी तैयार होकर पूजा की थाली सजाने लगती है. काफी देर पहले ही हो गईथोड़ी देर ही और बस मंदिर में पूजा होगी। उसपर भीड़ भी तो इतनी होती है. वहां तो ३ बजे से महिलायें जुटने लगतीं हैं. सोचते सोचते उसने जल्दी से थाली में बायनादीया  आदि रखा और भारी साड़ी समेटते हुए कार में जाकर बैठ गई.
लंदन में रहने का वैसे एक आराम है. हर इलाके में ही कोई न कोई मंदिर मिल जाता है जहाँ सभी महिलायें इकठ्ठा होकर थाली बांटने वाली पूजा कर लिया करतीं हैं. वर्ना तो घर में अकेले ही पूजा करो त्यौहार जैसा लगता ही नहीं न ही कुछ करने का मन करता है. सोचती हुई वह मंदिर तक पहुँच गई कार पार्किंग में लगा कर निकली तो देखा बाहर कम से कम एक ब्लॉक दूर तक लाइन लगी हुई है. ये लो हो गया व्रत। अब जब तक मेरा नंबर आएगा तब तक तो अंदर पूजा खत्म हो जाएगी। इसी भीड़ से बचने के लिए आजकल उसकी कुछ साथी सहेलियों ने अब अपने घरों में ही पूजा करना शुरू कर दिया है. पर वोहर साल सोचती है अगले साल नहीं आएगीफिर पता नहीं क्यों हर साल ही आ जाती है. उसे वहां सजी संवरी दुल्हन सी महिलायें देखना बहुत अच्छा लगता है. 
जाने कब यही सब सोचते सोचते लाइन मंदिर के द्वार तक पहुँच गई. उसने अंदर झांककर देखा पूरे हॉल में खूबसूरती से फूलों की सजावट की गई थी।  दरवाजे तक महिलाओं के घेरे बने हुए थे. अभी अभी एक चक्र पूजा का समाप्त हुआ था तो वे महिलायें लाइन से पुजारी के पास अपनी थाल का सामान रख कर अपना प्रसाद ले रही थीं फिर उनके बाहर निकलने की व्यवस्था पीछे के दरवाजे से थी जिससे कि एक जगह पर हौच पॉच न हो. यह अच्छा है इस शहर में हर काम में व्यवस्था और अनुशासन दिखाई देता है. वरना अपने यहाँ तो त्यौहारों पर मंदिर जाना ही मुहाल। 
पूजा के दूसरे चक्र के लिए महिलायें छोटे छोटे गोले बनाकर बैठने लगीं थींवह भी उन्हीं में से एक घेरे में जाकर बैठ गई. आसपास नजर घुमाई तो एक से एक बढ़कर साड़ी , लहंगे और सूट में महिलायें सजी धजी हुई थीं. अपने सबसे अच्छेभारी जेवर और कपड़ों को शायद इसीदिन के लिए वे संभाल कर रखती हैं. नव वधुओं का श्रृंगार तो देखते ही बन रहा था. लगता है जैसे अभी अभी जयमाला के स्टेज से उठकर आ रही हैं.  यूँ बड़ी उम्र की महिलायें भी कम नहीं लग रहीं थीं. अच्छा ही था. भूख प्यास से मन हटाने के लिए कुछ समय इस श्रृंगार के लिए पार्लर में बिता आओ. बुरा भी क्या था. तभी स्टेज पर बैठी कुछ महिलायें माइक लेकर घोषणा करने लगीं और पूजा शुरू होने की तैयारी करने की सूचना देने लगीं। इस दौरान लगातार वहां से पति – प्रेम के हिंदी फ़िल्मी गीत गाये जा रहे थे. “तुम्हीं मेरे मंदिरतुम्हीं मेरी पूजातुम्ही देवता हो” “दीपक मेरे सुहाग का” हंसी आने लगी उसे. क्या ड्रामा है ये सब. उसके ऑफिस का कोई अभी ये सब देख ले तो उन्हें समझाना मुश्किल हो जाये। सुबह ही एक कलीग से जिक्र किया तो जबाब आया “यू गाइज़ आर सेक्सिस्ट। क्या कोई व्रत पुरुष भी रखते हैं अपनी पत्नियों के लिए?” उसके पास जबाब नहीं था तो हंसी में यह कह कर कि हाँ हाँ अब सब रखते हैंउसने पल्ला छुड़ाया था। अब तो भारत में भी इस त्यौहार के कितने तरीके बदल गए हैं. पर यहाँ – अभी तक तुम्हीं मेरे मंदिर… उसे खुद पर हंसी आने लगी. वह भी तो यही सब ड्रामे में शामिल होने आ गई है. पता नहीं क्योंनहीं छोड़ा जाता उससे यह सब. यहाँ तो कोई मजबूरी नहीं हैकोई कुछ कहने वाला नहीं है. समाज कालोगों का किसी का कोई भय नहीं। फिर भी।  
अब माइक पर गीतों की आवाज बंद हो गई है और पुजारी जी ने कमान थाम ली है और उनकी कथा सुनाने के साथ पूजा शुरू हो गई है. एक एक अध्याय के बाद वहां बैठीं महिलायें जो अब तक गीत गा रहीं थीं थाली घुमाने वाला गीत गातीं हैं और थाली घुमाईं जातीं हैं. फिर पुजारी जी कथा शुरू करते हैं और समय की मांग को देखते हुए वहां बैठे पतियों को भी पत्नी प्रेम की सीख देते जाते हैं.पूरे सात बार थालियां घुमाने के बाद पुजारी जी चाँद निकलने का समय बताते हैं और शुभकामनाओं के साथ पूजा समाप्त हो जाती है.
चाँद निकलने का समय तो पता है पर चाँद दिखेगा भी या नहींपता नहीं। हर साल की वही गाथा है. लंदन के मौसम का कुछ पता नहीं। बादल हो गए तो हो गए. पूरी रात न दिखे। नहीं तो एकदम समय पर चमक जाए. पुजारी जी भी कह देते हैं की समय से १० – १५ मिनट तक इंतज़ार करके व्रत तोड़ लेना। आखिर देश काल की अपनी सीमाएं हैं. वह यह सोचकर कर घर आ जाती है कि तब तक कुछ खाना बना लेगी। चाँद निकला तो ठीक है. नहीं तो भारत में घर में फ़ोन करेगी वहां निकल जायेगावे लोग व्रत तोड़ चुके होंगे तो वह भी इंटरनेट पर चाँद देखकर खाना खा लेगी।
यूँ भारत में तो आजकल सबकुछ फिल्मी स्टाइल में होने लगा है. हल्दीराम के रेस्टोरेंट जब से खुल गए हैं कोई इस दिन घर पर तो खाना बनाता या खाता ही नहीं। पर यहाँ अभी भी पुरानी परम्पराएँ ही चल रही हैं. काफी साधारण तरीके से होता है सब वहां के मुकाबले। यहाँ आज भी वही सबउसी तरीके से होता है जैसा वे पीछे देख छोड़ आये हैं. उसके बाद जमुना में तो बहुत पानी बह गया. पर यहाँ के प्रवासी वही के वही रह गए. अपनी संस्कृति और परंपरा को बनाये रखने की जिम्मेदारी उठाते हुए. जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़े रहने का शायद यही माध्यम दिखाई पड़ता है इन्हें जिसे अपने स्तर पर वे संभालकर सहेज कर रख लेना चाहते हैं. 


Wednesday, November 4, 2015

अजब गज़ब विरोध नीति...

घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने – गज़ब का सटीक मुहावरा गढ़ा है किसी ने. और आजकल के माहौल में तो बेहद ही सटीक दिखाई दे रहा है. जिसे देखो कुछ न कुछ लौटाने पर तुला हुआ है. किसे? ये पता नहीं। अपने ही देश का, खुद को मिला सम्मान, अपने ही देश को, खुद ही लौटा रहे हैं. बड़ी ही अजीब सी बात लगती है। 


कहने को हजार कमियां हैं. यह नहीं है , वह नहीं है. पर जो है वह लौटाना है. यानि ले दे कर सम्मान मिला है वह भी लौटाना है. हालाँकि यह सम्मान लौटाया कैसे और किसे जाता है मेरी समझ से तो बाहर है. सम्मान या तो अर्जित किया जाता है या खोया जाता है. पर लौटाना … वह भी वह चीज़, जिसपर सिर्फ आपका अकेले का अधिकार नहीं। एक रचनाकार / लेखक को कोई सम्मान मिलता है तो वह उसे या उसके व्यक्तित्व को नहीं दिया जाता बल्कि उसकी लिखी रचना को दिया जाता है. जिसे उस सम्मान के काबिल उसे पढ़ने और गुनने वाले लोग बनाते हैं. अत: उस पर मिले सम्मान को लौटा देना उस रचना का ही नहीं बल्कि उसके पाठकों का भी अपमान है. कि लो यह पकड़ो अपनी रचना जिसे तुमने सम्मान लायक समझा। यह तो ऐसा लगता है जैसे रचनाकार स्वयं यह कहे कि तुमने दे दिया तो दे दिया वरना मेरी रचना तो इस काबिल न थी. या कोई माँ अपना  बच्चा हॉस्पिटल में जाकर लौटा आये कि लो, यह हॉस्पिटल बुरा है यहाँ पैदा हुआ बच्चा मुझे अब नहीं चाहिए। 


हाँ समाज या व्यवस्था में किसी भी बुराई के खिलाफ विरोध करना हर व्यक्ति का अधिकार है और वह अपने अपने तरीके से उसे करने के लिए स्वतंत्र भी है परन्तु वहीँ एक खास क्षेत्र के सम्मानित नागरिक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने सबसे प्रभावी तरह से उसका विरोध करे जिसका कि कोई सार्थक परिणाम निकले। अब यदि सीमा पर कोई आपत्ति जनक वाकया होता है और एक सैनिक घर में बैठ कर अपनी डायरी में लिखकर कहे कि मैं इसका विरोध करता हूँ तो क्या फायदा। उसका तो फर्ज है कि सीमा पर जाकर लड़े. यानि तलवार के सिपाही को तलवार से और कलम के सिपाही को कलम से लड़ना चाहिए। 
जो सम्मान कभी कृतज्ञ होकर प्राप्त किया था वह लौटाने से अच्छा होता कि कुछ ऐसा लिखा जाता जिससे लोगों को सोचने में नई दिशा मिलती। जिन लोगों की वजह से सम्मान मिला, वह मार्गदर्शन के लिए अपने प्रिय रचनाकार की ओर देखते हैं, तो बेहतर होता रचनाकार अपना वह फ़र्ज़ निभाते। 
परन्तु हमारे यहाँ तो सिर्फ विरोध- विरोध चीखने का चलन है. 
इधर सम्मान लौटाया गया उधर इन लौटाने वालों की किताबें लौटाने का अभियान चालू हो गया. अब कोई पूछे इनसे कि एक व्यक्ति के किये सजा, उस कृति को किस तरह दी जा सकती है जिसका इसमें कोई दोष नहीं। उस रचना या किताब का अपमान किस तरह किया जा सकता है जिसे कभी बेहतरीन कहकर पढ़ा गया और सम्मान के काबिल समझा गया. 
खैर विरोध और फिर उसके विरोध में विरोध शायद यही बचा है अब बस करने को. हर बात पर बस राजनीति वह भी अप्रभावी और ओछी.
कहते हैं साहित्य समाज का आइना होता है. पर अब तो लगता है साहित्य सिर्फ रचनाकार की एक व्यक्तिगत मिलकियत है. इसका न समाज से कोई लेना है न उसके पाठकों से. 
दुष्यंत आज होते तो शायद कुछ यूँ लिखते – ( दुष्यंत से माफी सहित )
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है. 
शर्त है कि तस्वीर नहीं बदलनी चाहिए