Friday, October 16, 2015

छात्र बनकर रूस यात्रा बाया "स्मृतियों में रूस"

कौन कहता है कि युवा वर्ग किताबें (हिंदी) नहीं पढता ? यदि वह आपके लेखन से खुद को रिलेट कर पाता है तो अवश्य ही पढता है. पढता ही नहीं अपने व्यस्ततम जीवन से समय निकाल कर अपनी प्रतिक्रया भी आपको लिख भेजता है. हाँ शर्त यह है कि किताबें उसके पढने के लिए उपलब्ध तो हों.
आई आई टी कानपुर के एम् टेक के छात्र मनीष यादव ने कल ही “स्मृतियों में रूस” पढ़ी और यह विस्तृत समीक्षा मुझे लिख भेजी है. आप भी पढ़िए.
नई पीढी हिंदी की किताबें पढ़ती है यदि वह खुद को उससे कनेक्ट कर पाए. 

 

 
‘स्मृतियों में रूस’ पढ़कर एक सुखद अनुभूति हुई. पढ़ाई के लिये घर से बाहर भेजे जाने वाले लड़के या लड़कियों के मनोभावों को बेहतर तरीके से वही लोग समझ सकते हैं जिन्हें स्वयं भी ‘कमसिन’ उम्र में घर से बाहर निकाल दिया गया हो. उनमें से अधिकतर ऐसे होते हैं जिन्हें बाहर की दुनिया का कोई अन्दाज़ा नहीं होता. शुरूआती दौर में उन्हें बाहर की दुनिया एक तरह से इन्सानी जंगल की तरह प्रतीत होती है, जिसमें जाकर वे शेर बनते हैं या गीदड़… यह उनके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है. किताब पढ़ते हुए भारतीय घरों की कॉमन सोच पर एक लम्बी मुस्कान आयी… जो अक्सर विदेश जाने वाले बच्चों के प्रति आ जाती है और उसकी प्रतिक्रिया में लेखिका ने जो सौगन्ध उठायी उसे पढ़कर हँसी भी आयी – रूस जाकर वोदका-शोदका नहीं लूँगी, पापा का विश्वास नहीं टूटने दूँगी… वगैरह. हमें भी जब घर निकाला मिला था तब हमने भी ऐसी ही एक सौगन्ध उठायी थी और जिसमें दीदी ने एक और चीज जोड़ दिया था – बेटा!! लड़कियों के चक्कर में भी बिल्कुल मत पड़ना… उनकी लत शराब से भी बुरी होती है.
 
मनुष्य एक सामजिक जानवर है, जो बिना सामूहीकरण के नहीं रह सकता. इस वाक्य को पढ़ते ही एक गुदगुदी सी हुई, जो लिखा भी इसी उद्देश्य से गया था. हमने भी इस तथ्य को बाहरी दुनिया में महसूस किया था और अपने एक मित्र सौरभ से जाहिर भी किया था. कुछ अति आत्मविश्वासी लोगों के झुंड में रहने से बेहतर अपनी स्वाधीनता होती है… ऐसे अति-आत्मविश्वासी जब झल्लाते हैं तब उनके मुख से “चाय दे दे मेरी माँ…” ही निकलता है. किताब पढ़ते हुए हमने भी पहली बार एक रूसी शब्द सीखा – खोचिश… मतलब चाहिये. रूसी आसान और अपनी सी ही भाषा है ऐसा लिखा देखकर रूसी सीखने की एक जिज्ञासा भी हुई.
 
साहब की बेटी अर्थात् लेखिका को आगे पढ़ते हुए यह समझा जा सकता है कि जिसका अहम् तगड़ा होता है वह थोड़ा रौब में होता है और डरते हुए भी निडर रहता है. जिसके कारण उसे जीवन में आने वाली कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है. वही चुनौतियाँ ही तो इन्सान को परिपक्व बनाती हैं. इनकी परिपक्वता उस सन्दर्भ से जाहिर होती है जब ट्रेन में एक रोमांटिक फिल्म शुरू हो गयी थी जिसका क्लाइमैक्स आने से पहले ही ये मुँह ढककर सो गयी थी.
 
किसी मुसीबत में कोई मनुष्य जब फरिश्ता बनकर आता है तब अनायास ही यह भावना भीतर आ जाती है कि जरूर हमने कभी अच्छे कर्म किये रहे होंगे या हमारे माता-पिता का आशीर्वाद होगा या फिर अब हमें भी दूसरों की मदद करनी चाहिये. अन्य देशों के सिविक सेन्स के बारे में पढ़ा था कि कैसे वे अपने देश को साफ सुथरा रखते हैं, शायद जापान के बारे में ज्यादा सुना था लेकिन रूस में भी लोग ऐसे होते हैं यह पहली बार पढ़ रहा था. पुस्तक के इस पड़ाव पर लेखिका सभ्य नागरिक बनने पर मजबूर हो रही थी.
अगले हिस्से पर आकर हमें आश्चर्य हुआ कि अन्तरिक्ष में सबसे पहले जाने वाले देश में दैनिक जरूरतों की ऐसी कमी थी और दूसरा आश्चर्य तब हुआ जब यह जाना कि रूसी लड़कियाँ मात्र टीशर्ट गिफ्ट करने से ही पट जाती हैं. लेकिन इस बात से कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि यह काम भारतीय लड़के करते हैं. सच ही लिखा है – लड़कियाँ तो होती ही इमोशनल फूल हैं, दुनिया में चाहे कहीं की भी हों. लेकिन कुछ लम्बी नाक वाली लड़कियाँ भी होती है जिनकी अपनी अलग शान होती है. भारत से जोड़े में आये लड़के लड़कियों का भाई-बहन बन जाना एक जबरदस्त हँसी का संचार करता है, माया जो न करा दे.
 
अक्सर अकड़ू स्वभाव और बोल्ड इमेज वाले नारियल से होते हैं ऐसा ज्यादातर मामलों में पाया जाता है, जिन्हें बाहर तो खूब हँसते-हँसाते हुए पाया जाता है लेकिन कमरे में आते ही किसी न किसी बात पर खुद इमोशनल होकर सब रोने लग जाते हैं. आगे पढ़ा तो जाना कि देशों की आर्थिक हालत में भी ऐसे उतार चढ़ाव होते हैं.
इन्सान को सपने ज़रूर देखने चाहिये तभी उसके पूरा होने की उम्मींद की जा सकती है. किताब में लिखी यह एक ऐसी पंक्ति है जिसे जीया पहले, जाना बाद में… और पढ़ अभी रहे हैं. इस सत्य से तकरीबन वे सभी मनुष्य वाक़िफ होंगे जिन्होंने सपने देखे होंगे और उन पर भरोसा किया होगा. “काश!!” के बाद आने वाली इच्छायें यदि प्रबल हों तो फिर आकाश और प्रकाश सब दिखायी देने लग जाता है. जैसे लेखिका को मॉस्को यूनिवर्सिटी की ऊँची इमारत नज़र आ रही थी.
 
राष्ट्र पर आर्थिक संकट आ जाये तो उस देश का सामाजिक ताना-बाना कैसे टूटता है यह पढ़ना एक गम्भीर विचार को जन्म देता है खासकर भूख से जूझती एक माँ से जुड़े सन्दर्भ को पढ़कर, जो अपनी बच्ची को मात्र एक चौथाई केला खिलाकर बहाने से तीन चौथाई खुद खा जाती है… आगे पढ़ा तो जाना कि भूख से समाज नरभक्षी भी बन सकता है.
आगे यह पढ़कर थोड़ी खुशी हुई कि लेखिका भी हॉस्टल के छात्र जीवन की हवा का शिकार हुई थी, जिसमें एक ही मंत्र उच्चारित किया जाता है – हो जायेगा यार!! जिसके बाद कुछ नहीं होता… बस मस्ती और पार्टी होती है. लेकिन वोदका-शोदका न लेने की शपथ पर कायम रहना लेखिका की दृढ़ इच्छाशक्ति को दर्शाता है.  “आई टॉनिक” जैसे शब्द हमें पहले समझ नहीं आते थे, लेकिन इस किताब में इसका उल्लेख पाकर यह जानकारी हुई कि इस शब्द का इस्तेमाल अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है. जब इस शब्द की व्याख्या हमें एक सज्जन ने सुनाया था तो हमने कहा था – टॉनिक तो बीमार लोग पीते हैं न… या फिर वो जिनमें कुछ कमी होती है. जिसे सुनकर वो भड़क गये थे… या शायद उन्हें अपनी बीमारी अथवा कमी का एहसास हो गया था.
 
रूसी लड़कियों का जिक्र इस किताब में कई बार आता है. जिनकी सुन्दरता का बखान रूस जाने के लिये प्रेरित करता है और उनकी मेहनतकश प्रवृत्ति के बारे में पढ़कर उन्हें भारत उठा लाने की भी प्रेरणा मिलती है… और यह लिखते हुए हमें तनिक भी शर्म नहीं आ रही क्योंकि “स्तीदना कामू वीदना”. इसका मतलब समझना हो तो किताब पढ़िये… या रूसी भाषा समझिये. फिर जीवन में आपको भी कभी शर्म नहीं आयेगी. हमारा मन रूसी लड़कियों के बारे में सोचकर विह्वल हुआ जा रहा है, बेचारियों के साथ कितना अन्याय होता है. उनके प्रेम को १७ बरस में ही फौजी उठा ले जाते हैं जिसका फायदा भारतीय लड़के उठाते हैं और एक भारतीय लड़का तो उन्हें वहाँ से ही उठा लाने की बात कर रहा है… किताब में जिस तरह उनके हसीन चेहरे का जिक्र किया गया है उससे पहली बार भारतीय स्कूलों की उस शपथ को दोहराने में प्रसन्नता महसूस हो रही है जिसमें कहा गया है कि सभी भारतीय हमारे भाई और बहन हैं. वैसे भी इस किताब के अनुसार रूस में जाते ही भारतीय जोड़े भाई-बहन में कनवर्ट हो जाते हैं.
 
इस किताब को पढ़ना रूस में एक छात्र बनकर घूमने जैसा अनुभव देता है, कुछ चीजें जो पर्यटक नहीं देख सकते लेकिन वहाँ रहने वाले छात्र बखूबी देखते हैं और समझते हैं… क्योंकि वे वहीं जीते हैं और इनकी जीवन शैली भी तो रोमांच, मस्ती, नये अनुभवों और किताबी उठापटक से भरी होती है, जिसमें नीरसता की बजाय उमंग होती है. किताब का अन्त पढ़कर ज़िन्दगी का वह सबक एक बार फिर सामने आ गया – अपना हक़ किसी को मिलता नहीं, माँगना पड़ता है और माँगने से भी न मिले तो छीनना पड़ता है.
 

तो भइया अब हम जा रहे हैं रूस… अपना हक़ माँगने, न मिले तो छीनने… लेकिन पहले उस रूसी लड़की से पूछ भी लेंगे… भारत चलोगी…!! 


Manish Yadav

M.Tech. (Civil Engineering)
Indian Institute of Technology Kanpur

Wednesday, October 7, 2015

पर्वकाल देश के पार...

वह इतनी धार्मिक कभी भी नहीं थी. बल्कि अपने देश में होने वाले त्यौहारों की रस्मों पर अक्सर खीज कर उनके औचित्य पर माँ से जिरह कर बैठती थी. उसे यह सब कर्मकांड कौरी बकवास और फ़ालतू ही लगा करता था. फिर माँ के बड़े मनुहार के बाद उनका दिल रखने के लिए वह उन रस्मों को निभा लिया करती थी. परन्तु यहाँ आकर न जाने वो कौन से संस्कार थे या फिर बचपन से पिलाई गई वो घुट्टी कि अब हर छोटे बड़े त्यौहारों को भारत में घरवालों से पूछ पूछ कर अपने स्तर पर मनाने की वह भरपूर कोशिश करती है. नौकरीबच्चे और बिना किसी घरेलु मदद के घर- बाहर के काम होने के वावजूद वह फ़ोन पर विधि पूछ कर कृष्ण जन्माष्टमी पर फलाहार और गणपति पर मोदक बनाती है. बड़े बड़े मंडपों में सजी विशाल दुर्गा पूजा की प्रतिमा को देखने और खिचड़ी का प्रसाद चखने भी जाती है और पड़ोस में नवरात्रों में सजी गुड़ियाएं भी निहारने जाती है. चाँद निकलने की कोई गारेंटी नहीं होती, पति को भी परमेश्वर नहीं, एक साथी मानती है फिर भी चाव से करवा चौथ का व्रत भी रखती है और तीज पर बिछिये पहन कर मेहंदी भी लगा लेती है.

जिन रस्मों पर वह खीजा करती थी, यहाँ अब उन्हीं को सहेजने के लिए वह सब कर्मकांड करती है. शायद उसे यह अपनी पहचान को बनाये रखने का एक माध्यम लगता है या फिर अपनों से जोड़े रखने की एक कड़ी, जो वह अपने बच्चों को विरासत में दे जाना चाहती है. 
यह अकेले उसी की कहानी नहीं बल्कि शायद हर प्रवासी भारतीय की कहानी है जो अपनी संस्कृति और पहचान को बनाए रखने के लिए अपने त्यौहारों और परम्पराओं को शिद्दत से निभाते हैं.

शायद यही कारण है कि जो त्यौहार भारत में एक खास क्षेत्र तक सीमित रहते हैं यहाँ आकर वैश्विक रूप धारण कर लेते हैं. यहाँ दुर्गा पूजा करने वाले गणपति विसर्जन भी करते हैं और पोंगल मनाने वाले गरबा भी खेलने जाते हैं. यह शहर भी उनकी इस उत्सव धर्मिता में अपना पूरा पूरा सहयोग देता है. 
सावन की बौछारें भारत में पड़नी शुरू होती हैं तो उनकी महक सात समुन्दर पार लंदन तक भी आ जाती है. त्यौहारों के इस मौसम में अपने देश से दूर भारतीय मूल के लोग भी कान्हां और गणेश के आगमन की तैयारी करने लगते हैं. यूँ उस देश में शायद इन त्यौहारों का स्वरुप समय काल के साथ परिवर्तित होने लगा है. उत्सव अब उस जोश ओ खरोश से नहीं मनाये जाते जैसे कभी मनाये जाते थे. वक़्त का तकाज़ा भी है और परिवेश का परिवर्तन भी कि अब बहुत से त्यौहार तो रहे ही नहीं. जो रहे भी हैं उनका रूप और तरीका काफी बदल गया है. परन्तु अपनी धरती से दूर उसकी मिट्टी को सहेज लेने की मंशा से यहाँ लंदन में प्रवासी भारतीय कृष्ण जन्माष्टमी से लेकर अन्नकूट तक सभी त्यौहार पूरे जोश और श्रद्धा से मनाते हैं. 
जहां भारत में नवरात्रों के समय गरबा पर रात ११ बजे के बाद रोक लगा दी जाती है वहां लंदन में ऐसा कोई नियम नहीं लगाया जाता। पूरे शहर में अलग अलग स्थानो में अलग अलग स्तर पर गरबा का आयोजन होता है. सुबह तीन – चार बजे तक संगीत के सुरों पर रास गरबा खेला है और बड़ी संख्या में हर देशजातिधर्म के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं. दिलचस्प होता है यह देखना कि कैसे आपके विदेशी मित्र महीनों पहले ही गरबा की जानकारी और उसमें पहनने वाले परिधान जुटाने में लग जाते हैं और सभी के साथ मिलकर यह त्यौहार मनाते हैं.हाँ इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि आयोजन के दौरान शोर शराबे से बाकी नागरिकों को असुविधा न हो.

लंदन में गणपति भी मनाया जाता है. एक ऐसा त्योहारजिसे पर्यावरण  के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता,  परन्तु फिर भी यहाँ रह रहे हिन्दू निवासियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए  और उनकी सुविधानुसार  इसे परंपरागत रूप से मनाने के लिए सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं .देश  के कुछ बड़े समुद्री  किनारों पर बाकायदा  विसर्जन की व्यवस्था की  जाती है जिसमें सभी सरकारी महकमो का पूर्ण रूप से योगदान रहता है.
पास ही एक “साऊथ एंड बाये सी” पर यह उत्सव मनाया जाता है. शहर और शहर के बाहर से लोगों को लाने के लिए खास बसों का इंतज़ाम किया जाता है और यह सब किसी एक खास समुदाय के लोग नहीं बल्कि सभी समुदाय के लोग मिलकर किया करते हैं. समुन्द्र तट पर बहुत बड़ा पंडाल लगाया जाता है. सुरक्षा के तौर पर पूरी पुलिस टीम मौजूद होती है,आपातकालीन एम्बुलेंस की व्यवस्था भी होती है और आने जाने वालों के लिए सुबह से शाम तक का भंडारा भी. “गणपति बाप्पा मोरिया” के स्वर क्षितिज तक गूंजते हैं. समुन्द्र  के एक छोटे से किनारे को काट कर एक खास स्थान बना दिया जाता है जहाँ पर विसर्जन किया जाता है .सरकरी महकमे के कई गणमान्य व्यक्ति वहां मौजूद होते हैं और भाषा की अनभिज्ञता के वावजूद उत्सव में पूरे जोश के साथ हिस्सा लेते देखे जा सकते हैं . वे अपने नागरिकों के उत्सवों में सहयोग करके स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं.
दिवाली जैसा त्यौहार बेशक भारत में अब एक दिन और कुछ घंटों की आतिशबाजी तक सिमट गया हो परन्तु लन्दन में कई कई दिनों तक आकाश आतिशबाजी की रौशनी और आवाज से गुंजायमान रहता है. देसी बाजार हों या विदेशी सुपर स्टोर औरमॉल सभी दिवाली की सामग्री और दिवाली सेल से भरे रहते हैं.  यहाँ तक कि दिवाली और ईद जैसे त्योहारों पर पर लन्दन केट्रेफेल्गर स्क्वायर  पर भव्य रंगारंग कार्यक्रम भी किया जाता है.
बेशक यह बहाना हो अलमारी में रखी साड़ियों और कुरते पजामों को निकालने का या फिर रोज की बनी बनाई व्यस्तम जिन्दगी से कुछ समय उधार लेकर अपनी जड़ों को सींच लेने का, या फिर कुछ परम्पराओं और रिवाजों को निभा कर अपनी पहचान बनाए रखने का. परन्तु अपनी मिट्टी से दूर विदेशी धरती पर इन त्योहारों का परंपरागत रूप से मनाना यह तो तय करता है कि आप एक भारतीय को भारत से बाहर भेज सकते हैं पर उसके दिल से भारत बाहर नहीं निकाल सकते.