Sunday, May 31, 2015

अंकों के खेल में डोलता भविष्य...

पिछले सप्ताह भारत में सी बी एस सी के बारहवीं के रिजल्ट्स आए और मुख्य मिडिया से लेकर सोशल मीडिया तक काफी गहमा गहमी रही. फोन पर, मेल में हर माध्यम से खुशी की ख़बरें सुनाई दीं.जहाँ तक सुनने में आया ऐसा लगा जैसे ९० % से कम नंबर किसी के आते ही नहीं. हाँ बल्कि शत प्रतिशत वाले भी हैं. 
हालाँकि यह भी सोचने वाली बात है कि वह शत प्रतिशत वाला क्या वाकई परफेक्ट है? वह उस ९०% प्रतिशत वाले से किस तरह से बेहतर होगा या ९० % वाला ९५ % वाले से किस तरह कम होगा. यूँ देखा जाये तो इन प्रतिशतों के खेल में खुश सभी होंगे अविभावक भी और विद्यार्थी भी, परन्तु सुरक्षित कोई भी नहीं नजर आया. 
अधिकतर यही कहते पाए गए कि नंबर तो ठीक हैं पर इंजीनियरिंग – मेडिकल में चयन हो तब बात बने या देश के प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला तो मिले. क्योंकि यह ९० या इससे भी अधिक प्रतिशत भी सुरक्षित भविष्य की गारंटी नहीं हैं. अब जब यह हाल इतने अधिक नंबरों वाले छात्रों का है तो बेचारे ८० प्रतिशत वालों का क्या होगा उन्हें तो शायद किसी अच्छे संस्थान में दाखिला ही न मिले और फिर ७० या ६० प्रतिशत से कम वाले बच्चे ? उनका क्या होगा? वे तो शायद असफल की गिनती में गिने जा रहे होंगे. 
रिजल्ट के बाद ऐसे ही कुछ बच्चों से बात की तो बेहद निराशा पूर्ण बातें सुनने को मिलीं. किसी के माता पिता और घरवाले उन्हें ताने दे देकर मारे डाल रहे हैं तो कोई खुद ही शर्म और डर से अपनी जान लेने की सोच रहा है. कोई इन सब से दूर कहीं भाग जाना चाहता है और फिर कभी लौट कर नहीं आना चाहता. तो कोई बेहद अवसाद की अवस्था में है और उसे अपनी जिंदगी का कोई मकसद या भविष्य का कोई रास्ता अब दिखाई नहीं देता. यह हाल देश के उस तथाकथित भविष्य का है जिनकी (युवाओं) सर्वाधिक संख्या वाला देश होने का गुमां हम पाले बैठे हैं और जिनके बूते पर भारत विश्व शक्ति बनने के सपने देखता है. 
परन्तु इस स्थिति में गलती इन बच्चों की तो कतई नहीं है. इस गला काट प्रतियोगिता के युग में दोष माता पिता को भी नहीं दिया जा सकता. फिर समस्या है कहाँ ? जाहिर है कोई कमी अवश्य ही व्यवस्था में है जहाँ सामान्य से अधिक नंबर पाने वाला बच्चा भी अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित नहीं है और एक कुशल युवा महज कुछ नंबरों की कमी की वजह से इस नंबर रेस में पीछे छूट जाता है और सारे मौकों से हाथ धो बैठता है. नतीजा – युवाओं में बढता असंतोष, अवसाद और बढ़ती आत्महत्याओं की संख्याएँ.

आजकल यहाँ ब्रिटेन में बारहवीं कक्षा की परीक्षाएं चल रही हैं. दसवीं के बाद यह एक ऐसा इम्तिहान होता है जिस पर विद्यार्थियों का पूरा भविष्य निर्भर होता है. इन्हीं के परिणाम के आधार पर उनके आगे के विषय और यूनिवर्सिटी टिकी होती हैं. जाहिर है स्कूलों में और इस उम्र के बच्चों वालों घरों में माहौल कुछ तनावपूर्ण है. आखिर लन्दन में बसे एशियाई मूल के लोगों में भी वही दिल है जो नंबरों और ग्रेड को लेकर धड़कता है. आलम यह हो गया है कि स्कूल में टीचर के पूछने पर जब कोई बच्चा कहता है कि वह डॉक्टर या इंजिनियर बनना चाहता है या A* से कम उसे मंजूर नहीं तो तुरंत सवाल आता है कि “क्या आप भारतीय हैं ?” of course asian parents.

यानि लंदन में बढ़ते बहुदेशीय परिवेश के चलते पिछले कुछ समय में परीक्षाओं और परिणामों का तनाव काफी बढ़ा है परन्तु ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि A  ग्रेड से कम पाने वालों के लिए कोई मौके या स्थान ही नहीं है. बच्चों में परीक्षाओं को लेकर तनाव तो होता है परन्तु इतना नहीं कि वे हताश हो जाएँ, या आत्महत्या करने लगें। कम अंक आने से उनके आगे के रास्ते बंद नहीं होते बल्कि और ढेरों रास्ते उनके लिए खोले जाते हैं.  मार्गदर्शन स्कूल और कॉलेजों की तरफ से किया जाता है. वैकल्पिक विषयों की सूचना दी जाती है. अप्रेन्टिसशिप के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. सामान्य अंक पाने वाले विद्यार्थियों को हिराकत की नजर से नहीं देखा जाता न उनके सामने से किसी भी तरह के मौके हटाये जाते हैं. बल्कि उनमें और संभावनाएं तलाशी जाती हैं और उन्हें आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया जाता है. आखिर अधिक अंक ही तो कुशलता की पहचान नहीं हो सकते।

Friday, May 29, 2015

वह एक शहर जाना अनजाना सा...

उस शहर से पहली बार नहीं मिल रही थी मैं, बचपन का नाता था. न जाने कितनी बार साक्षात्कार हुआ था. उस स्टेशन से, विधान सभा रोड से और उस एक होटल से. यूँ तब इस शहर से मिलने की वजह पापा के कामकाजी दौरे हुआ करते थे जो उनके लिए अतिरिक्त काम का और हमारे लिए एक छोटे से पहाड़ी शहर से इतर एक बड़े से मैदानी शहर में छुट्टियों का सबब हुआ करता था. स्कूल से दूर कुछ दिन एक बड़े शहर में वक़्त बिताना इतना रोमांचकारी हुआ करता था कि पापा की व्यस्तता के समय, दिन भर होटल में बैठे रहना, टीवी देखना, और खिड़की से बाहर विधान सभा भवन या मुख्य सड़क पर चलते, अंकुरित चने और मूंग की चाट के ठेले झांकते रहना भी नहीं खलता था. 
शाम को फिर हजरत गंज की सैर और चाट का कार्यक्रम लगभग फिक्स हुआ करता था. भारत के सबसे बड़े राज्य की इस राजधानी के विधान सभा मार्ग से हजरत गंज तक का यह छोटा सा इलाका हमारे लिए किसी पसंदीदा पिकनिक स्पॉट से कम नहीं था. यदा कदा उस शहर के दर्शनीय स्थल भी देखने चले जाते परन्तु सही मायनों में वह शहर हमारे लिए घर से बाहर एक और घर जैसा ही था टूरिस्ट प्लेस नहीं।

कुछ जगहों,  लोगों से, यूँ ही नाते हुआ करते हैं. बिना वजह. शायद इस शहर से भी कुछ ऐसा ही नाता है मेरा। बचपन बीता, जिंदगी ने रफ़्तार पकड़ी तो यह शहर भी पीछे छूट गया. तब कभी नहीं सोचा था कि फिर इस शहर से मुलाकात होगी वह भी किसी काम से. जैसे इतिहास दोहराता है खुद को. माध्यम स्वयं बनते ही जाते हैं. और इस बार यह आधिकारिक दौरा पापा का नहीं उनकी बेटी का था. 

एक नास्टॉल्जिया कार्यक्रम की रूपरेखा सामने आते ही आँखों में छाने लगा. और बिना एक  भी सवाल किये मैंने आयोजकों को शहर का नाम सुनते ही हाँ कर दी थी. बिना किसी इंतज़ाम के एक अलग ही शहर में जाकर अनजानों के बीच, अकेले एक कार्यक्रम में बतौर चीफ गेस्ट शामिल होकर जाना मेरा पहला अनुभव था. परन्तु शायद वह उस शहर से पुरानी पहचान का नतीजा था जो मुझे कोई भी चिंता करने से रोके हुए था. घर में भी सब शहर का नाम सुनकर पुरानी यादों से भरे हुए थे और काफी हद तक आश्वत थे. कि अरे उसी होटल में जाकर रहना कोई परेशानी नहीं होगी।

परन्तु शायद आपकी  जिंदगी में कुछ वाकये, कुछ जगह और कुछ लोग आने फिक्स होते हैं. वे कब कैसे और कहाँ आएंगे यह भी फिक्स होता है और शायद इसीलिए लोग इन बातों को किसी पूर्व जन्म का कनेक्शन कहते हैं.
मैंने पूर्व इंतजाम करने के लिए वेबसाइट खोलकर जैसे ही उस होटल का नाम सर्च बॉक्स में डाला कि दूसरी तरफ ऍफ़ बी पर मेसेज बॉक्स में एक सन्देश उछला। “कब आ रही हैं भारत ? आगत के स्वागत की तमन्ना है”.
यूँ इस सन्देश वाहक से मेरा नाता सिर्फ ब्लॉग पोस्ट और ब्लॉग टिप्पणियों तक ही सिमित था. फिर भी सन्देश में पूछने वाले का यह अंदाज ऐसा था कि जबाब मैं मैंने उनके शहर आने की बात भी बता दी. और उस पुराने पहचाने होटल में दो दिन की बुकिंग कराने की गुजारिश भी साथ में पकड़ा दी. इस इल्तज़ा के पीछे मेरी सिर्फ एक छोटी सी वजह थी. वह यह कि लंदन से बुकिंग करने पर नेट पेमेंट की मुश्किल थी और भारत पहुंचकर करने में देरी हो सकती थी. परन्तु जबाब में मुझे एक बेहद आग्रह भरा आमंत्रण मिला कि बिलकुल नहीं, आप यहाँ आएँगी तो हमारे घर ही रहेंगी यह पक्का है. उस समय मैंने इसे एक सहृदय व्यक्ति का शिष्टाचार समझ कर टाल दिया। और यह समझ कर भारत आ गई कि वह नहीं तो किसी और होटल में इंतज़ाम हो ही जायेगा।
परन्तु कभी कभी दुनिया आपके अनुभवों और उम्मीदों से अधिक अच्छी निकलती है. और कुछ लोग बेहद अच्छे और सहृदय होने का पूरा भार अपने कन्धों पर उठाये रहते हैं. और ऐसे ही उस हंसों के जोड़े ने मुझे अपनी बातों और अपनेपन के व्यवहार से उनका मेहमान बनने के लिए मना लिया।
मैं नहीं जानती वह क्या था, क्यों मैंने विश्वास किया उन दोनों पति – पत्नी पर जिनसे मैं पहली बार मिली थी. पर कुछ तो था जो वे अनजान नहीं लग रहे थे – तेरा मुझसे से पहले का नाता कोई… यूँ ही नहीं दिल लुभाता कोई… यह गीत वक़्त बे वक़्त बेक ग्राउंड में बजता जा रहा था.

उनकी मेहमाननवाजी में मुझे दो बातों का खटका हुआ था. एक तो यह कि मैं वाकई किसी देश की क्वीन हूँ ? दूसरा यह कि ये लोग कोई एंजल हैं. जाहिर है पहली बात तो बेहद बेबकूफ़ाना और काल्पनिक ही हो सकती थी परन्तु दूसरी बात बहुत जल्दी ही सच साबित हो गई. क्योंकि वह कपल वाकई एंजल था जो अपने घर आये दोस्तों की खातिर तवज्जो बिलकुल “अतिथि देवो भव:” स्टाइल में करता था . खैर इस तथाकथित “आभासी” मित्र जोड़े के साथ बीते २ दिन और ब्लॉगर साथियों के साथ बीता समय पहले ही कई  ब्लॉग्स-
“मेरी बातें” http://abhi-cselife.blogspot.in/2015/04/blog-post.html ) पर लिखा जा चुका है. उसे दोहराने का कोई फायदा नहीं। और अमित निवेदिता की भी ज्यादा तारीफ़ की तो नजर लग जाने का ख़तरा है. 
तो हम फिर आते हैं उस शहर पर. स्टेशन से घर लाते वक़्त जानबूझकर एक लंबा रास्ता लिया गया जिससे थोड़ा बहुत लखनऊ का मिज़ाज़ मुझे दिखाया जा सके.
कार की खिड़की से झांकते हुए और उस रॉयल हाथी पार्क से गुजरते हुए मुझे अपने बचपन के उस शहर जैसा कुछ नजर नहीं आ रहा था और मेरी आँखें किसी पहचाने रास्ते को खोज रही थीं. पर बराबर की सीट पर कार का स्टेरिंग थामे बैठा वह शख्स शायद कोई जादू जानता था. उसने गाड़ी एक तरफ बढ़ाई और इशारे से कुछ दिखाया। तुरंत ही मेरे नास्टॉल्जिक कीटाणु जाग्रत हो गए और मेरे मन के किसी एक कोने में दबा वह लखनऊ शहर अचानक मेरे सामने आ गया. बाहर अगस्त की गर्मी हवाओं में थी अत: बंद शीशे से ही वह इलाका निहारते हम गोमती नगर में उनके घर आ गए. उसके बाद २ दिन खाने- खिलाने , घुमाने और मिलने -मिलाने के दौर कुछ ऐसे चले कि हँसते हँसते जबड़ों में दर्द होने लगता पर माहौल था कि वह तभी थमा जब लौटती ट्रेन ने लखनऊ का स्टेशन छोड़ा।

स्टेशन तो छूट गया पर उस शहर से जुड़ा बहुत कुछ फिर वहीं छूट गया. शायद यह बार बार मुझे वहां बुलाने का बहाना रहा होगा। और यह बहाना हर बार मुझे अब मिल जाता है फिर से उस शहर में जाने के लिए, हर बार उस रिश्ते में जुड़ जाते हैं कुछ और मोती, हर बार एक धागा और मजबूत हो जाती है रिश्ते की यह माला और हर बार  वहां से लौटते वक़्त मैं छोड़ आती हूँ फिर एक बहाना वहां लौटने का. क्योंकि पाश्र्व में अब भी बजता रहता है वह गीत – तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई … ।

Tuesday, May 26, 2015

थेम्स के तट से गंगा- जमुनी खुशबू...

कोई आपसे कहे कि लंदन की थेम्स से आजकल गंगा – जमना की खुशबू आ रही है तो क्या आप यकीन करेंगे? शायद नहीं, शायद क्या, बिलकुल नहीं करेंगे। क्योंकि ज़माना कितना भी आगे बढ़ गया हो इतना तो अभी नहीं बढ़ा कि नदियों की खुशबू सात समुन्द्र पार मोबाइल से पहुँच जाए. परन्तु लंदन में दस दिन से ऐसा ही कुछ नजर आ रहा है. लगता है लन्दन के दिल में “छोटा भारत” नामक नगर बसा दिया गया है. असल में बात यह है कि थेम्स के किनारे बने साउथ बैंक के इलाके में आजकल साउथ ईस्ट मेला लगा हुआ है. जिसमें पन्द्रह मई से पच्चीस मई तक भारत, पाकिस्तान, , श्रीलंका, बंगलादेश आदि देशों से सम्बंधित लगातार गतिविधियां और कार्यक्रम हो रहे हैं. पूरा इलाका एशियाना बना हुआ है. 

एशियाई मूल के कलाकारों का हुनर हो या ब्रिटेन में एशियाई लोगों की समस्या या उपलब्धियां सभी पर विभिन्न चर्चाओं से साउथ बैंक सेंटर गूंजता रहता है. 
कोहिनूर, कराची, अफगानिस्तान की लोक कथाएं, भारतीय संगीत और नृत्य का जादू, युवाओं का बैंड या फिर बीबीसी में एशियन, कोई भी विषय इस मेले से अछूता नहीं है. और किसी भी कार्यक्रम में सीटें खाली मिलें ऐसा भी नहीं है. जाहिर है कि बहुसांस्कृतिक इस शहर के लोग वाकई इतने संस्कृति प्रिय हैं कि एक ही जगह पर पूरे दक्षिणी एशिया को देखने और समझने का मौका वे महँगी टिकट के वावजूद भी छोडना नहीं चाहते. 
रॉयल फेस्टिवल हॉल में घुसते ही कानों में पुराने हिंदी फिल्मों के मधुर गीतों की ध्वनि पड़ती है. मैं उत्सुकता वश उस तरफ कदम बढाती हूँ तो पुरानी फिल्मों के पोस्टर से सजा एक बड़ा सा कोना दिखाई पड़ता है और उसके सामने महफ़िल को सजाने के पूरे इंतजाम गद्दे और मसंद लगा कर किये गए हैं. पता चलता है वहाँ हिन्दुस्तानी संगीत का कोई कार्यक्रम होने वाला है. मैं उसका समय पता कर आगे बढती हूँ तो रिवर साइड टेरेस कैफे पर समय- समय पर विभिन्न संगीत समूहों द्वारा प्रदर्शन की पूरी लिस्ट की एक बुकलेट मिलती है. यानि १० दिन तक थेम्स के सानिध्य में संगीत लहरियों से रूह को सहलाने के पूरे प्रबंध हैं. एक फब्बारे को पार कर आगे बढती हूँ तो दो दिन के लिए कुइन एलिजाबेथ हॉल में जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल होने की सूचना देता एक बड़ा सा पोस्टर दिखाई पड़ता है. कुछ इंग्लैंड से और कुछ भारत से आये प्रतिष्ठित व्यक्तियों, वी एस नायपॉल से लेकर शबाना आज़मी तक की सूची को पढ़ती हुई मैं अंदर घुसती हूँ तो वहाँ एक छोटा सा भारत बसा हुआ दिखाई पड़ता है. सामने दीवार पर हिंदी, पंजाबी, उर्दू फिल्मों के पोस्टर, भारतीय संस्कृति को दर्शाने के लिए कुछ खास सामान और स्पीकर पर आती हुई भारतीय संगीत ध्वनि. कहीं महाभारत पर चर्चा है तो कहीं नारीवाद पर, कहीं हिन्दुस्तानी भाषा पर तो कहीं बॉलीवुड पर. कुछ क्षण के लिए यकीं नहीं होता कि इस जगह के बाहर कोई दूसरा देश है. 
परन्तु यह काफी नहीं है.दूसरी तरफ देखिये तो एशियाई व्यंजनों की खुशबू बेचैन किये रहती है. एक बड़े से इलाके में विभिन्न दक्षिणी एशियाई व्यंजनों के छोटे- बड़े स्टाल रही सही कसर भी पूरी कर देते हैं. हर स्टाल पर व्यंजन प्रेमियों की भीड़ और बड़े चाव से भेलपूरी, पानी पूरी और कबाब , बिरयानी का लुत्फ़ उठाते देशी विदेशी नागरिक – वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा को चरितार्थ करते दिखाई पड़ते हैं. देशी व्यंजनों के नाम अपने खास अंदाज में उच्चारित कर उसका स्वाद पूछते विदेशी ग्राहक, चाय, मेंगो लस्सी और पकोड़ों के जल्दी जल्दी खतम होते स्टॉक और हाथ में डोसे, जलेबी के पैकेट लिए बैठने की जगह तलाशते लोग, ऐसा माहौल बना रहे थे कि १० दिन के लिए थेम्स के किनारे इस खूबसूरत इलाके में सच में गंगा जमना बहा दी गई हो. या फिर पूरे दक्षिण एशिया को छोटा सा करके कुछ दिन के लिए यहाँ स्थापित कर दिया गया हो. किसी शायर ने क्या खूब कहा है – 
नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक, 
मुझ को मेरा घर बहुत याद आ रहा है.
जो भी हो पर अंग्रेजी बहार के इस मौसम में अपनी मिट्टी की खुशबू लिए यह दस दिन का महोत्सव एशियाई मूल के लन्दन वासियों के लिए, एक वतन से आए हवा के झोके सा तो अवश्य ही है. 
जैसे कि कैफ़ी आज़मी कहते हैं –
मेरा बचपन भी साथ ले आया 
गाँव से जब भी आ गया कोई. 

Saturday, May 16, 2015

हॉर्न संस्कृति.


आज से कुछ वर्ष पूर्व जब इस देश में आना हुआ था तब सड़कों में भारी मात्रा में वाहन होने के बावजूद गज़ब की शांति महसूस हुआ करती थी. कायदे से अपनी -अपनी लेंन में चलतीं, बिना शोरगुल के लेन बदलतीं, ओवेरटेक करती गाडियां मुझे अक्सर आश्चर्य में डाल दिया करतीं कि आखिर बिना हॉर्न  दिए यहाँ का यातायात इतना सुगम तरीके से कैसे चला करता है. पहले पहल मुझे लगा कि यह शायद यहाँ के शिष्टाचार में शामिल है कि बिना वजह हॉर्न  नहीं बजाना है. यदि बजाया इसका मतलब सामने वाले का अपमान किया है. परन्तु धीरे धीरे पता चला कि यह सिर्फ शिष्टाचार ही नहीं है बल्कि यहाँ का कानून भी है कि जब तक आपको सड़क पर चलते किसी वाहन को किसी खतरे के प्रति सावधान न करना हो, आप  हॉर्न नहीं बजा सकते, आपकी गाड़ी यदि खड़ी अवस्था में है तो हॉर्न  बजाना जुर्म है और उसके लिए आपको जुर्माना या सजा हो सकती है. यहाँ तक कि कुछ इलाकों में विशेष तौर पर हॉर्न  बजाना सख्त मना है. 
अभी कुछ समय पहले एक समाचार पत्र में पढ़ा कि एक कार चालक को एक बुजुर्ग के सड़क पार करते समय, अपनी कार को रोककर हॉर्न  बजाने पर कोर्ट ने दोषी पाया और उसपर भारी जुर्माना लगया गया. यानि कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रिटेन (और ज्यादातर सभी पश्चिमी देशों ) के यातायात के नियमों के अनुसार सड़क पर  हॉर्न बजाना कानूनी जुर्म है. आप  हॉर्न  का प्रयोग चलती गाड़ी में सिर्फ तभी कर सकते हैं जब आपको आसपास की किसी गाड़ी को अपनी उपस्थित को लेकर आगाह करना हो या उसे किसी खतरे के प्रति चेताना हो.

अब हम जैसे देशों के मूल निवासियों के लिए यह कानून सुकून दायक तो था परन्तु समझ से बाहर था. आखिर हम जिस देश से आए थे वहाँ तो हॉर्न  बजाना नागरिक के मूल अधिकार जैसा था. बल्कि वाहनों के पीछे बड़े- बड़े अक्षरों में लिखा होता है कि “कृपया हॉर्न बजाएं” बल्कि यदि कोई बिना  हॉर्न बजाये चले तो उसे झिडकी सुनाई जा सकती है कि “गाड़ी में हॉर्न  नहीं है क्या ?” और तो और बिना  हॉर्न बजाये कार, बस, ट्रक तो क्या, साइकिल चलाना भी संभव नहीं है. फिर  यह परम्परा कोई आज की नहीं है.  हॉर्न का इतिहास हमारे देश में बहुत पुराना है. शायद नारद मुनि ने इसकी शुरुआत की हो. वह हमेशा अपने प्रकट होने से पहले अपनी वीणा के सुरों और नारायण -नारायण की ध्वनि से अपने आने की चेतावनी दिया करते थे. फिर उनसे प्रेरणा लेकर धरती पर मानव ने जानवरों के सींगों से भोंपू बनाने शुरू किये होंगे और इसका प्रयोग वह आपस में एक दूसरे को सन्देश देने के लिए किया करते थे. फिर धीरे धीरे इन भोपुओं का प्रयोग संगीत में होने लगा परन्तु मुख्य उद्देश्य फिर भी आपस में एक दूसरे को अपनी उपस्थिति से आगाह कराना ही रहा और इसी उद्देश्य के साथ वाहनों में हॉर्न  स्थापित करने का और उसका प्रयोग करने का नियम बना होगा. बरहाल विभिन्न देशों की लोकतांत्रिक गहनता को देखते हुए इस  हॉर्न के नियम कायदे भी विभिन्न रहे. जहाँ पश्चिमी देशों में इसके प्रयोग पर सख्ती बरती गई वहीँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इसे बड़ी दिलेरी और सहजता से लिया गया जहाँ अपनी उपस्थिति को लेकर हॉर्न का प्रयोग लगभग मौलिक अधिकार समझा जाता है.
परन्तु वक्त ने करवट ली और ग्लोबलाइजेशन का असर इस भोंपू व्यवस्था पर भी पड़ने लगा.
जहाँ अब  भारत जैसे देशों में भी कुछ खास इलाकों में  हॉर्न बजाने को लेकर कुछ नियम बना दिए गए हैं वहीँ लन्दन जैसे शहर में पहले की अपेक्षा अब हॉर्न  की काफी आवाजें सुनाई देने लगीं हैं. आप एक सेकेण्ड के लिए ट्रैफिक लाईट पर रुके रह जाओ, पीछे से लोग  हॉर्न बजाने लगते हैं, ज़रा सी कम गति से वाहन चलाओ हॉर्न  सुनाई दे जाता है. और हॉर्न  ही नहीं बल्कि उसके साथ कुछ शील -अश्लील टिप्पणियाँ भी उछल कर सुनने को मिल जाती हैं. जहाँ यह शहर मशहूर था इस बात के लिए कि यहाँ एक आदमी के सड़क पार करने के लिए, रुकी हुई गाड़ियों की लंबी लाइन लग जाया करती है, वहीँ अब गाड़ी धीमी तक करने पर, कोई भी हॉर्न बजा देता है. अब यह पता नहीं ग्लोबलाइजेशन का असर है या वाकई यहाँ के लोग भी बेसब्रे होते जा रहे हैं. जो भी हो पर हॉर्न संस्कृति अपना रूप बदल रही है और साथ ही इस शहर का यातायात भी. 
प्रत्येक रविवार “नवभारत” के संडे मैंगजीन में नियमित स्तम्भ -“लंदन नामा”

Sunday, May 3, 2015

ऐसा भी चुनाव प्रचार !

कुछ दिन पहले एक दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी,जाकर देखा  तो सूटबूटटाई में ३- ४ महानुभाव खड़े थे. उनमे से एक ने बड़ी शालीनता से आगे बढ़कर एक परचा थमाया और धन्यवाद कहकर चले गए. दरवाजा बंद करके मैंने पर्चे पर नजर डाली तो समझ में आया कि वह एक राजनैतिक पार्टी के चुनाव प्रचार का परचा है जिसमें उस पार्टी को वोट देने की गुजारिश की गई है. पर्चे पर मौजूद एक तस्वीर पर नजर पड़ी तो समझ में आया कि परचा पकड़ाने वाला खुद इस इलाके का एम पी था. एक बार फिर देखने के लिए खिड़की से झाँका तबतक वह लोग काफी आगे जा चुके थे. कमाल था. उनके पीछे लोगों की न तो भीड़ थीन आगे पीछे गाड़ियों का रेलान बॉडी गार्ड और न ही नारे लगाते पार्टी के लोग. 
असल में सात मई को यू के में जनरल चुनाव होने वाले हैं. हालाँकि चुनाव के मैदान में काफी पार्टियां है परन्तु मुख्य मुकाबला लेबर और कंजरवेटिव पार्टी के बीच ही है. हालाँकि कयास यह भी लगाया जा रहा है कि बहुमत किसी भी पार्टी के हिस्से नहीं आएगा. 

यूँ सभी पार्टियों के अजेंडे में इस बार इकोनॉमी ही हैफिर भी ब्रिटेन में घरों की समस्या और उनके आसमान छूते  मूल्य, NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस) और स्वास्थ्य  समस्याएं ऐसे मुद्दे हैं जो इस चुनाव में हर पार्टी के वादों में मुख्य रूप से शामिल हैं. कामकाजी माता पिता के लिए सहज चाइल्ड केयर और किराएदारों के लिए भी कुछ सुविधाएं दोनों पार्टियों की पॉलिसी लिस्ट में शामिल हैं. वोटर्स के लिए भी यही समस्याएं  हैं जिनके निराकरण के लिए वह अपने उम्मीदवारों की तरफ देखते हैं. वहीँ युवाओं के लिए विश्व विद्यालयों की बढ़ी  हुई फीस एक अहम मुद्दा है. जो युवा इस बार पहली बार वोट देंगे उनमें खासा उत्साह है और वे चाहते हैं जो भी पार्टी जीते वह विश्विद्यालयों की फीस के लिए अवश्य कुछ करे. पिछले कुछ सालों में फीस में हुई बेतहाशा वृद्धि के चलते युवाओं में काफी चिंता और अवसाद देखा जा रहा है.वे अपनी पढ़ाई और मनपसंद कैरियर छोड़कर अपने जीवन यापन की कठिनाइयों की तरफ देखने को मजबूर हैं. अत: वे अब अपनी समस्यायों पर सरकार का तवज्जो चाहते हैं. इस चुनाव के लिए करीब एक महीने से प्रचार चल रहा है परन्तु ना तो चुनाव को लेकर कोई हल्ला ना प्रचार को लेकर कोई तमाशा. हाँ इस चुनाव की एक खास बात है वह यह कि कंजरवेटिव पार्टी के चुनाव प्रचार में एक हिंदी का गीत भी शामिल है – जिसमें इमिग्रेंट्स को साथ लेकर चलने का आवाहन किया गया है. परन्तु यह गीत भी यू ट्यूब पर है सड़कों पर नहीं बजाया जाता। दीवारें साफ़ सुथरीलाउड स्पीकर का कोई शोर नहींकोई सेलेब्रिटी प्रचार में नहीं लगा हुआ , सड़कों पर भीड़ नहीं कहीं कोईमुन्नी बदनाम हुई या शीला की जवानी पर पेरोडी नहीं सुनाई देती .
कहने का तात्पर्य यह की  बेशक ये पश्चिमी देश कितने भी अमीर होंपरन्तु प्रचार के मामले में भारत हर तरह से बाजी मार ले जाता है. इन चुनावों में ना कोई शो बाजी होती हैना हल्ला गुल्ला। कोई जनता के बीच जाकर ना कम्बल बांटता दीखता है ना उनके घर जाकर चाय पी रहा होता है.ना घर घर जाकर हाथ जोड़कर वोट देने की गुजारिश होती है. हर उमीदवार की पालिसी और प्रचार वाले फ्लायर्स जरुर घरों में आ जाते हैं. परन्तु उनपर भी ऊपर लिखा होता है कि इन्हें बनाने के लिए टेक्स पेयर के धन का इस्तेमाल नहीं किया गया है. टीवी रेडियो या संसद में अपने प्रचार सत्र के दौरान दूसरे उम्मीदवार पर घिनोने आरोप और लांछन लगाने की बजाय अपनी पालिसी और काम का ब्योरा  दिया जाता है. बहस होती है पर कहीं कोई जूते – चप्पल नहीं चलते . सब कुछ निहायत ही नीरस सा होता है. वोटिंग वाले दिन भी कोई उठापटक नहीं. अधिकांश लोग पोस्ट से ही अपना वोटिंग धर्म निभा लेते हैं.और फिर इसी तरह शांतिपूर्वक वोटिंग भी हो जाएगी और गिनती भी.और इनके आधार पर अंत में एक विजेता भी घोषित हो जायेगा पर फिर भी कोई हंगामा नहीं होगा . बन्दूक से विजेता को कोई सलामी नहीं दी जाएगी. हाँ एक समानता भारतीय व्यवस्था के अनुरूप शायद होती है कि यहाँ भी सत्ता में आने के लिए वादे तो ढेरों किये जाते हैं पर उन्हें पूरा करना कोई आवश्यक नहीं होता।खैर जीत किसकी होगी इसका फैसला जल्दी ही हो जायेगा और उम्मीद है कि अपने वादों पर न सही पर अपनी पॉलिसी पर तो कम से कम जीतने वाले कायम रहेंगे।      



(आज ३ मार्च २०१५ से नवभारत के “संडे नवभारत” में हर सप्ताह नया  स्तंभ – “लन्दन नामा”)