Monday, November 18, 2013

"डब्बा वाला" ऑफ लन्दन

यूँ सामान्यत: लोग जीने के लिए खाते हैं परन्तु हम भारतीय शायद खाने के लिए ही जीते हैं. सच पूछिए तो अपने खान पान के लिए जितना आकर्षण और संकीर्णता मैंने हम भारतीयों में देखी है शायद दुनिया में किसी और देश, समुदाय में नहीं होती। 

एक भारतीय, भारत से बाहर जहाँ भी जाता है, खान पान उसकी पहली प्राथमिकता भी होती है और मुख्य समस्या भी. घर में माँ से लेकर मिलने जुलने वालों तक, हर व्यक्ति उसके बाहर जाने पर उसके खाने पीने को लेकर ही सबसे ज्यादा परेशान नजर आता है. यहाँ तक कि इस समस्या को सुलझाने के लिए उसे उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सलाह तक दे दी जाती है कि “शादी कर लो तब जाओ जहाँ जाना है, वरना खाने पीने की परेशानी हो जायेगी”। 
 
मैंने आजतक कभी किसी अंग्रेज को कहीं भी, अपने देश से बाहर जाने पर खाने पीने की इतनी चिंता करते हुए नहीं देखा। मैंने कभी नहीं देखा कि उन्हें कहीं बाहर जाकर अपने बेक्ड बीन्स और टोस्ट या पोच्ड अंडे की क्रेविंग होती हो. हाँ स्वास्थ्य को मद्देनजर रखते हुए वे इन चीजों को खोजते नजर आ सकते हैं. परन्तु कोई भारतीय किसी दुसरे देश के हवाई अड्डे पर उतरते ही कोई भारतीय भोजनालय ढूँढता नजर आता है. किसी से नई जगह की जानकारी लेते हुए उसका मुख्य प्रश्न होता है – क्या वहाँ आसपास कोई इंडियन टेक आउट है ?. दिन के किसी एक समय सम्भव है कि वह जो भी उपलब्ध हो वह खा कर काम चला ले. परन्तु दूसरा पहर होते होते उसकी अंतड़ियां रोटी के लिए कुलबुलाने लगती हैं. और वह भी घर की बनी रोटी। भारतीय भोजन जैसा स्वाद और परम्परा कहीं और नहीं. यह भी सच है कि एक बार यह मुंह को लग जाए तो लत बन जाती है. और इसके आकर्षण से विदेशी भी नहीं बच पाए इसका इतिहास गवाह है. आदि काल से ही भारतीय मसालों की सुगंध से बशीभूत हुए न जाने कितने ही विदेशी यात्रियों और व्यापारियों ने भारत के बंदरगाहों पर डेरा डाला और कुछ ने तो इसी बहाने पूरे देश पर कब्जा तक कर डाला.आज भी भारतीय भोजन की अपनी एक अलग साख है.

अब ऐसे में अपने घर वालों की आज्ञा मानकर कोई शादी करके बाहर आया हो और इत्तेफ़ाक़ से उसकी पत्नी घर में रहकर खाना बनाने को तैयार हो तो कोई समस्या नहीं। वरना और किसी दूसरे हालात में समस्या विकट हो जाया करती है. सारा दिन बाहर काम करके घर में घुसने पर बिना किसी मदद के भारतीय भोजन बनाना और फिर उसे समेटना, एक कामकाजी अकेले व्यक्ति या जोड़े के लिए एक और अभियान सा ही हुआ करता है. खासकर तब तक तो हर एक के लिए ही समस्या होती है जब तक नए परिवेश, नई जगह पर रहने, खाने, और पकाने की समुचित सुविधा न मिल जाए. ऐसे में अपने स्वदेशीय भोजन के आदी हमारे देशवासियों के लिए लंदन में कुछ डिब्बे वाले देवदूत का काम करते हैं.
 
लंदन में ऐसी कई छोटी- बड़ी संस्थाएं हैं, जो मुम्बई के “डब्बा वाला” की तर्ज़ पर घर का बना खाना आपके घर या ऑफिस के दरवाजे तक पहुंचा देती हैं. फर्क सिर्फ इतना होता है कि यह खाना खुद वही संस्थाएं बनवाती भी हैं , आपके घर से बना बनाया टिफ़िन लेकर नहीं पहुंचातीं।
ज्यादातर संस्थाओं की अपनी वेबसाइट्स हैं. जिनपर पूरे हफ्ते के शाकाहारी- मांसाहारी मेनू से लेकर उनकी रेट लिस्ट तक सब मौजूद है. वरना बहुत सी छोटी संस्थाएं जो कुछ इलाकों तक सीमित हैं, अपने निर्धारित इलाकों में ही यह डिब्बा बहुत ही कम दामों में आपतक पहुंचाने का काम करतीं हैं. ज्यादातर ये संस्थाएं एक घर के सदस्यों द्वारा ही चलाई जातीं हैं और इन्हीं सदस्यों द्वारा ही इन डिब्बों का वितरण भी किया जाता है. और आपको घर या ऑफिस में बैठे बैठे ही, सिर्फ एक फ़ोन कॉल पर, कम कीमत पर घर का बना, पंजाबी, गुजराती , बंगाली जैसा चाहें, खाना नसीब हो जाता है.
 
बेशक लंदन के ये डिब्बे वाले, मुम्बई की तरह विस्तृत क्षेत्र पर काम नहीं करते परन्तु लंदन में रहने वाले भारतीयों के लिए अवश्य ही ईश्वर के भेजे किसी दूत से कम नहीं होते। और कम से कम इनकी बदौलत उन्हें अपने पेट और जीभ की क्षुधा शांत करने के लिए तो विवाह करने की जरुरत नहीं होती। 
 
 
“लन्दन डायरी” १६/११/१३ 
दैनिक जागरण (राष्ट्रीय) में हर दूसरे शनिवार नियमित कॉलम।

 

Thursday, November 7, 2013

बदलते मौसम...

लंदन में इस साल अब जाकर मौसम कुछ ठंडा हुआ है. वरना साल के इस समय तक तो अच्छी- खासी ठण्ड होने लगती थी, परन्तु इस बार अभी तक हीटिंग ही ऑन नहीं हुई है. ग्लोबल वार्मिग का असर हर जगह पर है. वैसे भी यहाँ के मौसम का कोई भरोसा नहीं।शायद इसलिए
 
और हम जैसे दो नावों में सवार प्राणी इस मौसम से सामंजस्य बैठाये बीते मौसम को याद करते रहते हैं. 
खिड़की के डबल ग्लेज्ड शीशों से छनकर थोड़ी धूप आने लगी है.चलो आज यह साड़ियों वाली अलमारी ही खोलकर सम्भाल लूं.न जाने कब से बंद पड़ी है. भारी साड़ी, एक्सेसरीज, कभी निकालने का मौका ही नहीं मिलता।
 
अपने देश में अब शादियों का मौसम आ रहा है।  अरसा हो गया कोई शादी देखे। क्योंकि अपने देश में शादियां महूरत से होती हैं परन्तु यहाँ छुट्टी तो महूरत से नहीं मिलतीं न । 
 
शायद अपनी शादी में ही आखिरी बार शामिल हुई थी. उसमें तो बरात में मुझे नाचने को भी नहीं मिला।हमारे यहाँ शादियों में पता नहीं क्यों दूल्हा दुल्हन को ही बली का बकरा टाइप बना कर बैठा दिए जाता है. आँखों के आगे बचपन में देखी अनेक बारातों के दृश्य घूम गए हैं. वो नागिन धुन, मुँह में रुमाल दबाकर उसे बीन की तरह घुमाकर नाचता दुल्हे का भाई और वहीं सड़क पर नागिन बन लोटता उसका दोस्त। और फिर अचानक बजता ” ये देश है वीर जवानो का” गज़ब का जोशीला गीत. बच्चे, बूढ़े,  सब के हाथ पैर नाचने को फड़कने लगते थे. ये और बात है कि आजतक यह नहीं समझ में आया कि उस हुड़दंगी माहौल में यह देश भक्ति गीत इतना क्यों बजा करता था.
 
बड़े शहरों में आज इन बारातों का स्वरुप क्या है, पता नहीं। परन्तु सुना है लाख अंग्रेजीदां हो गए हों लोग परन्तु छोटे शहरों में आज भी यही गीत बारातों की शान हैं. 
 
हाँ हालाँकि महिला संगीत का स्वरुप काफी फ़िल्मी हो चला है. साड़ियों को यूँ ही हैंगर पर लटकाये बाहर कुर्सी पर रखकर किसी के ऍफ़ बी पर लगाए शादी के फ़ोटो देखने लगती हूँ. लोक गीतों , ढोलक की थाप और चटकीले फ़िल्मी गीतों पर नृत्य की जगह अब बाकायदा कॉरियोग्राफ किये हुए डांस परफॉर्मेंस ने ले ली है. सब कुछ यंत्रबद्ध सा लग रहा है. जहां सामने स्टेज पर अपना आइटम प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति के अतिरिक्त किसी का भी उस कार्यक्रम में इन्वॉल्वमेंट नजर नहीं आता.  सोचती हूँ कितना बोरिंग होता होगा मेहमानो के लिए. जैसे किसी शादी में नहीं किसी स्टेज शो में आये हों. एक कुर्सी पर बैठकर सामने होने वाले कार्यक्रम देखो, ताली बजाओ, खाना खाओ और चले आओ. बिना किसी के सुर में अपना बेसुरा सुर मिलाये और एकसाथ जुट कर बन्दर डान्स किये बगैर भला क्या मजा आता होगा।
 
यह भी शायद वहाँ मनोरंजन के बदलते मौसम का ही कमाल है, टीवी पर दिखाए गए नित नए गीत, संगीत, नृत्य की प्रतियोगिताएं और कार्यक्रम। आखिर हम घर में बैठे दर्शक कौन उस स्टार परिवार से जुदा हैं. अत: किसी भी आयोजन में, घर का हर सदस्य अब कॉरियोग्राफरों की मदद से एकदम शानदार और परफेक्ट परफॉर्मेंस देता दिखाई पड़ता है.
अच्छा है. सबकुछ सिस्टेमेटिक हो चला है. 
 
यहाँ की भारतीय शादियां पता नहीं कैसी होती होंगी। आजतक उनमें भी शामिल होने का मौका नहीं मिला। क्योंकि अजीब बीच की सी स्थिति में हैं हम लोग. इतने छोटे नहीं कि अपने साथ वालों की शादियां हों, इतने बड़े भी नहीं कि उनके बच्चों का नंबर आ गया हो. और रिश्तेदारी यहाँ है नहीं।
पर लगता है यहाँ सब बहुत ही सादगी से होता होगा। सोच रही हूँ एक दिन किसी की शादी में बिन बुलाये मेहमान बनकर ही पहुँच जाऊं।
 
ये लो, चली गई धूप ख्यालों को पका कर.फिर से ग्लूमी सा हो आया है मौसम। बंद कर दी मैंने अपनी यादों की अलमारी भी. फिर किसी दिन खोलूंगी अच्छा मौसम देखकर।अब चल कर बाकी काम निबटाए जाएँ।