
Friday, September 27, 2013
आये हाय ये मजबूरी ...

Sunday, September 22, 2013
गली ग़ालिब की..
इंग्लैण्ड के स्टार्ट फोर्ड अपोन अवोन तक और मास्को के पुश्किन हाउस से
लेकर लन्दन के कीट्स हाउस तक। ज़ब जब किसी लेखक या शायर का घर , गाँव सुन्दरतम तरीके से संरक्षित देखा हर बार मन में एक हूक उठी कि काश ऐसा ही कुछ हमारे देश में भी
होता। काश लुम्बनी को भी एक यादगार संग्रहालय के तौर पर संरक्षित रख, यात्रियों और प्रशंसकों के लिए विकसित किया जाता, काश
महादेवी वर्मा का घर कौड़ियों के दाम न बेचा जाता, काश आगरा की उस आलीशान हवेली
में लड़कियों का कॉलेज न खोल
दिया जाता जहाँ बाबा-ए-सुख़न पैदा हुआ.
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
नहीं,या फिर जिस देश में अनगिनत नागरिकों के पास छत नहीं वहां
किसके पास फुर्सत है जो इन कलमकारों के घरों को संजोयें।
दिल्ली में ग़ालिब की एक हवेली अब भी मौजूद है. जहाँ उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के कुछ आखिरी वर्ष बिताये। तब से इच्छा थी कि एक बार उस सुखनवर से मिल कर आया जाए.
रहने वाला भारत प्रवास, गर्मी का मौसम और उसपर चांदनी
चौक की बल्लीमारान गलियों का खौफ, चाह कर भी हिम्मत न
होती थी कि अकेले ही कभी वहां घूम आया जाए.
के बाहर हम खड़े यह सोच रहे थे कि अब कहाँ चला जाये,अभिषेक ने
लाल किला सुझाया। तभी मेरे दिमाग की घंटी बजी कि लाल किला भी तो पुरानी दिल्ली में
ही है. यानि चांदनी चौक भी ज्यादा दूर नहीं होगा। अत: ग़ालिब चाचा से मुलाकात का
मौका बन सकता है. तुरंत यह मंशा अभिषेक के सामने रखी. अब भतीजे की इतनी हिम्मत
नहीं थी कि चचा से
मिलने को मना कर सके, या फिर मुझे ही मना कर सके :)हालाँकि
वह वहां पहले भी जा चुका था. अत: हमने ऑटो पकड़ा और चल दिए ग़ालिब चाचा की हवेली।
जाहिर है किसी नई सुविधा जनक स्थान पर तो होगी नहीं। दुनिया में जहाँ भी ऐसे घर या
संग्रहालय हैं पुराने इलाकों में ही हैं. और वहां आने जाने के लिए भी आधुनिक सुविधाएं नहीं होतीं। सो यह जानकार कि ऑटो कुछ दूर तक जाएगा और
उसके बाद रिक्शा लेना पडेगा ,मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी
बल्कि थोडा उत्साह ही था कि इसी बहाने कुछ पुराना/वास्तविक सा माहौल देखने को मिलेगा। परन्तु कल्पना में
और हकीक़त में बहुत फ़र्क हुआ
करता है. पहले तो ऑटो के रास्ते पर ही इतना ट्रैफिक था कि हमारे गाइड महोदय को भी लगने लगा कि मेट्रो की जगह ऑटो
से आना गलत फैसला था. उसके बाद जो रिक्शा का रास्ता था
उसमें तो पांच मिनट के रास्ते के लिए हमें आधा घंटा लगा.
रहा था. जिसका जैसा मन वैसे चल रहा था. जहाँ मन वहां गाड़ी खड़ी करके बैठा था. और
जिसका जितनी जोर से मन उतनी जोर से बीच सड़क पर फ़ोन पर चिल्ला- चिल्ला कर बातें कर रहा था. खैर अब आ ही गए थे तो बजाय इन सब से परेशान
होने के हमने इनका आनंद लेना ज्यादा उचित समझा। और उस इलाके की मशहूर जलेबियों और कचौरियों की चर्चा करते हम धैर्य के साथ रिक्शे में बैठे रहे.
अवस्था में गईं होऊँगी।ज्यादा कुछ याद तो नहीं था. पर इतना फिर भी याद है कि उस
समय भी वे गलियाँ आज जैसी ही थीं. शायद लोगों की उम्र के अलावा कहीं कुछ नहीं बदला
था वहां। तब भी वहां ग़ालिब की हवेली को कोई नहीं जानता था. आज भी उसी गली में होते
हुए भी किसी रिक्शे वाले को उसका पता न था. यदि साथ में अभिषेक न होता तो यकीनन ग़ालिब की उस कासिम खान गली तक पहुँच कर
भी उनकी हवेली तक मैं नहीं पहुँच सकती थी.
पहुँच गए जो खुला हुआ था. जहां १५० साल पहले उर्दू का
वह महान शायर रहा करता था.जहां १८६९ में ग़ालिब की मौत के बाद फ़ोन बूथ व अन्य
दुकाने खुल गईं थीं , लोगों ने अपना कब्जा कर लिया था.और आज
भी जिसके अधिकाँश हिस्से में यही सब काबिज है.
आँखें खुलीं और उन्होंने इस हवेली के कुछ हिस्से को कुछ कब्जाइयों से छुड़ा कर उस महान शायर की यादों के हवाले कर
दिया। आज उसी छोटे से हिस्से के बड़े से गेट पर चौकीदार कम गाइड कम परिचर एक बुजुर्गवार बैठे हुए थे.
पीछे आ गए और जितना उन्हें उस हवेली के छोटे से हिस्से के बारे में मालूम था प्रेम
से बताने लगे.
हिस्से को संग्रहालय के तौर पर हासिल करने के बाद भी कोई यहाँ नहीं आता था, वो तो कुछ वर्ष पहले गुलज़ार के यहाँ आने के बाद यह हवेली लोगों की निगाह
में आई और अब करीब १०० देसी , विदेशी यात्री यहाँ रोज ही आ
जाया करते हैं.
हालाँकि उनकी इस बात पर उस समयमेरा यकीन करना कठिन था, क्योंकि जहाँ पहुँचने में हमें इतनी परेशानी हुई थी. वहां
बिना किसी बोर्ड , दिशा निर्देश के कोई बाहरी व्यक्ति किस
प्रकार आ पाता होगा। और उस समय भी और जबतक हम वहां रहे
तब तक, हमारे अलावा वहां कोई भी नहीं आया था. पर शायद यह
बताने के पीछे उन सज्जन का एक और उद्देश्य था – वह शायद
बताना चाहते थे कि, यूँ तो वह सरकार के कर्मचारी हैं
और निम्नतम तनख्वाह पर ग़ालिब की सेवा करते हैं पर आने जाने वाले यात्री ही कुछ
श्रद्धा भाव दे जाते हैं.
सामने ग़ालिब की प्रतिमा दिखी जिसे गुलज़ार साहब ने वहां लगवाया है और साइड में
ग़ालिब अपनी बड़ी सी तस्वीर में से कहते जान पड़े –
से हिस्से में कुछ गिना चुना २-४ सामान ही पड़ा हुआ है। वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां,
अभी हाल में ही कबूतरों के आतंक से तंग आकर बनवाया गया है. कुछ दो चार बर्तन हैं।
जो ग़ालिब के थे वे तो पिछले दिनों चोरी हो गए , अब उनकी नक़ल रख दी गई है। कुछ दीवान हैं शायर के, एक चौपड़ , एक शतरंज, और
दीवारों पर शायर की कहानी कहती कुछ तस्वीरें। शायद बस यही रहे हों साथी उनके आखिरी दिनों में , और
शायद इसीलिए उन्होंने कहा –
के ख़ुतूत,
निकला ।
बताया कि सरकार की तरफ से केस चल रहा है और उम्मीद है कि पूरी हवेली को हासिल करके
कायदे से ग़ालिब के हवाले किया जाएगा। क्योंकि ग़ालिब की अपनी सातों संतानों
में से कोई जीवित नहीं रही अत: उस हवेली का कोई कानूनन वारिस अब नहीं है. लोगों ने
अनाधिकारिक तौर पर कब्जा किया हुआ है. हमने चाहा तो बहुत कि उसकी इस बात पर भरोसा
कर लें. तभी एक बोर्ड पर राल्फ़ रसल के ये शब्द दिखे –
में पैदा होते, तो वहां इनके नाम का पूरा एक शहर संरक्षित होता।
भारत में उनके नाम की उनकी गली भी नहीं।
दरख्वास्त गुलज़ार साहब से ही करने का मन है, एक प्रतिमा हवेली
के अन्दर लगवाई, तो हवेली प्रकाश में आई, कम से कम एक बोर्ड और बल्लीमारान गली के बाहर लगवा दें तो वहां तक आने
वालों को भी कुछ सुविधा हो जाये.
को पीछे छोड़ आये पर साथ रह गया चचा का यह शेर –
होते तक
Tuesday, September 17, 2013
कच्ची मिट्टी... (समापन)
http://shikhakriti.blogspot.co.uk/2013/09/blog-post_15.html यहाँ से आगे।
अब तक यह तो विजया की समझ में आने लगा था कि घर की तीसरी मंजिल पर रहने वाले निखिल के सगे भैया, भाभी क्यों अजनबियों की तरह रहते हैं, क्यों उन्होंने घर में आने जाने का रास्ता भी बाहर से बना लिया है, और क्यों त्योहारों पर भी वह एक दूसरे को विश तक नहीं करते। हालाँकि बात उलटी भी हो सकती है, हो सकता है भैया, भाभी का यह रवैया ही मम्मी जी के ऐसे व्यव्हार का कारण हो, हो सकता है इसीलिए वो इस घर पर सिर्फ अपना अधिकार चाहती हों, हो सकता है इसीलिए निखिल के लिए वह इतना असुरक्षित महसूस करती हों। यह ख़याल आते ही उसे मम्मी जी से सहानुभूति होने लगी। बेचारी अकेली हैं। एक बेटे ने तो भुला ही दिया है, माँ है आखिर क्या बीतती होगी उनपर। पर जो भी हो ऐसे कब तक चलेगा। उसे माँ- बेटे के प्रेम से कतई कोई आपत्ति नहीं पर कुछ हिस्सा उसका भी तो होना चाहिए, आखिर वह किसके सहारे जिए। आज वह निखिल से बात करके ही रहेगी आखिर पता तो चले कि माजरा क्या है। रात को नीचे ही टीवी देखकर जब निखिल साढ़े बारह बजे ऊपर आया तो छेड़ ही दिया विजया ने। अब पता नहीं वह नींद में था या ऑफिस की कुछ परेशानी , भड़क गया एकदम – देखो विजया ! मुझे इन सब में मत धकेलो, मैं मम्मी के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता , गलत हो या सही बस वह करो जो मम्मी कहती हैं ..बात ख़त्म।
परन्तु जल्दी ही उसे एहसास हो गया था की वह लड़की इतनी भी अजीब नहीं थी। कहीं न कहीं उसका अनुभव था जो उसकी हंसी में बोल रहा था। बहुत कोशिशों के बाद भी विजया को कोई काम नहीं मिल रहा था। यह पश्चिमी देशों में मंदी का दौर था। हालाँकि खाली बैठने के बजाय वह किसी सुपर स्टोर तक में नौकरी करने को तैयार थी। हाँ अब क्लीनर का काम तो नहीं होता उससे , वह तो शायद उसे मिलेगा भी नहीं उसके लिए वो “ओवर क्वालिफाइड” जो ठहरी। नहीं तो हो सकता था कि वह, यह काम भी करने को आखिर तैयार हो ही जाती। आखिर यहाँ अपने घर में भी तो यही सब करती ही है। यह भी अजीब फंडा है लन्दन में, काम मिलेगा तो आपकी योग्यता अनुसार ही। न ज़रा सा ऊपर न ज़रा सा नीचे। इतने आवेदन भेजे उसने, तो कुछ के जबाब में लिखा आया “सॉरी यू आर ओवर क्वालिफाइड फॉर दिस जॉब” . खैर जो भी हो ..लन्दन में सुकून तो था। रोज की चिक चिक नहीं थी, कुछ अच्छे दोस्त भी बन गए थे। अपना घर था जिसे वो अपने हिसाब से रख सकती थी। पर कुछ था जो अब भी ठीक नहीं था। निखिल के स्वभाव में कुछ नरमी जरूर आई थी ,परन्तु उसकी परवाह जैसे उसे अभी भी नहीं थी।
वह खुद ही कभी फ़ोन करती तो वह उसे ही दोषी ठहराना शुरू कर देता . उसकी माँ और उसके ख़याल से विजया शादी के रिश्ते के लायक ही नहीं थी। उसे परिवार में रहना ही नहीं आता था। और अब निखिल उसके साथ रहना भी चाहता तो शर्तों पर – की वह माँ को जबाब नहीं देगी, उससे किसी तरह की मांग नहीं करेगी, उसके घरवालों की सब बात मानेगी। निखिल के अनुसार विजया एक दिखावटी इंसान थी, उसके एहसास, प्यार , आंसू सब दिखावा ही था, निखिल के लिए , उसके घरवालों के लिए, उसकी माँ के लिए, बहन, बहनोई, भांजों के लिए किसी के लिए कभी, कुछ भी नहीं किया था विजया ने। स्तब्ध थी विजया। आखिर इन आठ सालों में कितना समझा उसने निखिल को। वह अब चाहता ही क्यों था उसे अपने घर में वापस, जबकि उसकी जिन्दगी में तो विजया के लिए शायद जगह ही नहीं थी। ग्लानी होने लगी विजया को खुद पर। क्या इसीलिए उसके पापा ने उसे इतना पढ़ाया -लिखाया, आत्मनिर्भर बनाया था कि एक दिन वह अपने ही पति के हाथों जानवर की तरह बोली लगाके बिक जाए। उस पूरी रात रोती रही विजया। पर सुबह उठी तो उसकी आँखें एकदम साफ़ थीं . उसे सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था। जल्दी जल्दी उठकर , तैयार होकर वह निकल गई थी। एक कंपनी से कल ही एक इंटरव्यू कॉल आया था। नौकरी छोटी थी पर ठीक है। आज उसे अपनी जिन्दगी जीने से कोई नहीं रोक सकता था। वह कोई अनपढ़, मजबूर औरत नहीं है , जिसे जो चाहे जैसे चाहे अपने घर में बाँध ले। अब अपनी जिन्दगी वह अपने हिसाब से जीयेगी। यहीं रहकर अपने बूढ़े हो रहे माता- पिता का सहारा बनेगी। और अपनी जिन्दगी अब एक नए सिरे से फिर शुरू करेगी। जिसमें न निखिल होगा, न निखिल के साथ उसकी की गई गलतियां।
समाप्त।
Sunday, September 15, 2013
कच्ची मिट्टी...
जब से लिखना शुरू किया, हमेशा ही मेरे मित्र मुझे कहानी भी लिखने को कहते रहे. परन्तु मुझे हमेशा ही लगता रहा कि its not my cup of tea.
फिर लगातार कुछ दोस्तों के दबाब के कारण और कुछ अपनी क़ाबलियत आजमाने के स्वाभाव
के चलते यह पहला प्रयास किया .. और यह मेरी पहली कहानी इस माह (सितम्बर) की “बिंदिया” पत्रिका में प्रकाशित हुई है.
प्रयास मेरा है और विश्लेषण आपका.
कच्ची मिट्टी…
स्लो मोशन में विजया,जाने किस धुन में सूटकेस में कपड़े भरे जा रही थी, ऐसा भी नहीं था कि वह कुछ सोच रही थी। सोचना तो उसने कब का बंद कर दिया था। अब तो बस खुद को किसी अनजान शक्ति के भरोसे सा छोड़ दिया था उसने। क्या कुछ नहीं किया था उसने। कितनी पोजिटिव हुआ करती थी वो, सोचा था इस माहौल से निकल कर कुछ सुधार हो ही जाएगा। पर इस १ साल में लन्दन की खुशगवार फिजा, आपस का साथ, अच्छे दोस्त कुछ भी तो सहायक नहीं हुए थे। बल्कि अब तो हालात और बुरे होते दिखने लगे थे उसे, निराशा भी हावी होने लगी थी।












