Friday, September 27, 2013

आये हाय ये मजबूरी ...

भाषा – मेरे लिए एक माध्यम है अभिव्यक्ति का. अपनी बात सही भाव में अधिक से अधिक दूसरे  तक पहुंचाने का. अत: मैं यह मानती हूँ कि जितनी भी भाषाओं का ज्ञान हो वह गर्व की बात है परन्तु तब तक, जब तक किसी भाषा को हीन बना कर वह गर्व न किया जाये। 

यूँ जरुरत के वक़्त भाषा को किसी भी रूप में, कैसे भी इस्तेमाल किया जाए, मतलब भाव प्रकट करने  से होना चाहिए। आपकी बात सामने वाले तक सही अर्थ में पहुंचे, भाषा का मुख्य उद्देश्य यही है इस बात से मुझे कदापि इनकार  नहीं। परन्तु किसी भी भाषा के अनावश्यक, उपयोग के समर्थन में, मैं नहीं हूँ.


भाषाई नियम भी यही कहता है कि आप किसी भी भाषा में बात शुरू करें, परन्तु यदि सामने वाला दूसरी भाषा में जबाब दे रहा है और आपको उसकी वह भाषा आती है तो आपको आगे के संवाद उसी भाषा में करने चाहिए।
मैं अधिकतर इसी नियम का पालन करती हूँ. लेकिन कभी कभी बैठे बिठाए खुराफ़ात का दिल भी कर ही आता है. ऐसे में फेसबुक बड़ा कारगार सिद्ध होता है.
कुछ भाषा के विद्वान वहां हमेशा ही मिल जाया करते हैं. और उससे भी बड़ा सौभाग्य होता है, जब वे बड़ी शान से मैसेज बॉक्स में प्रकट होते हैं तथा अंग्रेजी में संवाद शुरू करते हैं,  अंग्रेजी भी ऐसी कि यदि अंग्रेजी खुद पढ़ ले तो “ओये बल्ले बल्ले करने लगे”- अत: मैं जबाब देती हूँ हिंदी में।  तुरंत वहां से फिर सवाल आता है अंग्रेजी में ही “आप लन्दन में रहती हैं” ? इस वाक्य के पीछे से आवाज आती है – “लगती तो नहीं… हुंह”। । मेरा भी मन पीछे से मुझे धक्का मार कर कहता है बोलो बोलो – नमक हलाल का वो डायलॉग – “हाँ जी एकदम रहती हूँ, लन्दन में ही, इवन आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वाक इंग्लिश, आई कैन लीव अंग्रेज बिहाइंड”।  पर दिमाग झिड़कता है- नहीं शिखा रानी ! सुधर जाओ, अनजानों से ज्यादा मज़ाक ठीक नहीं,तमीज़ से पेश आओ और मैं पूछती हूँ – आपको हिंदी नहीं आती ? 
वहां से जबाब आता है – “नो नो आई लव हिंदी, माय ग्रूमिंग इन हिंदी, आई राइट्स हिंदी पोएम, हिंदी में किताबें भी हैं बट इन माय कम्पूटर नो हिंदी डेट्स व्हाई”।

अब मैं उनकी हिंदी में बात न करने की मजबूरी समझती हूँ और नमस्कार कर लेती हूँ. क्योंकि मजबूरी तो मेरी भी है मुझे इतनी अंग्रेजी जो नहीं आती :(. 


Sunday, September 22, 2013

गली ग़ालिब की..

 रूस के गोर्की टाउन से कर
इंग्लैण्ड के स्टार्ट फोर्ड अपोन अवोन
 तक और मास्को के पुश्किन हाउस  से
लेकर लन्दन के कीट्स हाउस तक। ज़ब जब किसी लेखक या शायर का घर
, गाँव सुन्दरतम तरीके से संरक्षित देखा हर बार मन में एक  हूक उठी कि काश ऐसा ही कुछ हमारे देश में भी
होता। काश लुम्बनी को भी एक यादगार संग्रहालय के तौर पर संरक्षित रख
, यात्रियों और प्रशंसकों के लिए विकसित किया जाता, काश
महादेवी वर्मा का घर
 कौड़ियों के दाम न बेचा जाता, काश आगरा की उस आलीशान हवेली
में लड़कियों का
 कॉलेज न खोल
दिया जाता जहाँ
 बाबा-ए-सुख़न पैदा हुआ.

पर ये काश तो काश ही हैं. 
हुई मुद्दत कि ग़ालिबमर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
हमें अपनी धरोहर सहेजने की आदत
नहीं
,या फिर जिस देश में अनगिनत नागरिकों के पास छत नहीं वहां
किसके पास फुर्सत है जो इन कलमकारों के घरों को संजोयें।
कुछ ही समय पहले फेसबुक पर अचानक कुछ लोगों की वाल पर तस्वीरें दिखाई देने लगीं ,  मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली की तस्वीरें, तब पता चला कि पुरानी
दिल्ली में ग़ालिब की एक हवेली अब भी मौजूद है. जहाँ उन्होंने अपनी
 ज़िन्दगी के कुछ आखिरी वर्ष बिताये। तब से इच्छा थी कि एक बार उस सुखनवर से मिल कर आया जाए.
परन्तु हमेशा बेहद छोटा और व्यस्त
रहने वाला भारत प्रवास
, गर्मी का मौसम और उसपर चांदनी
चौक की बल्लीमारान गलियों का खौफ
,  चाह कर भी हिम्मत न
होती थी कि अकेले ही कभी वहां घूम आया जाए.
फिर इस बार जब दिल्ली पुस्तक मेले
के बाहर हम खड़े यह सोच रहे थे कि अब कहाँ चला जाये
,अभिषेक ने
लाल किला सुझाया। तभी मेरे दिमाग की घंटी बजी कि लाल किला भी तो पुरानी दिल्ली में
ही है. यानि चांदनी चौक भी ज्यादा दूर नहीं होगा। अत: ग़ालिब चाचा से मुलाकात का
मौका बन सकता है. तुरंत यह मंशा अभिषेक के सामने रखी. अब भतीजे की इतनी हिम्मत
नहीं थी
 कि  चचा से
मिलने को मना कर सके
, या फिर मुझे ही मना कर सके :)हालाँकि
वह वहां पहले भी जा चुका था. अत: हमने ऑटो पकड़ा और चल दिए ग़ालिब चाचा की हवेली।
यूँ बात सदियों पहले की हो तो
जाहिर है किसी नई सुविधा जनक स्थान पर तो होगी नहीं। दुनिया में जहाँ भी ऐसे घर या
संग्रहालय हैं पुराने इलाकों में ही हैं. और वहां आने जाने के लिए भी
 आधुनिक सुविधाएं नहीं होतीं। सो यह जानकार कि ऑटो कुछ दूर तक जाएगा और
उसके बाद रिक्शा लेना पडेगा
,मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी
बल्कि थोडा उत्साह ही था कि इसी बहाने कुछ पुराना/वास्तविक
 सा माहौल देखने को मिलेगा। परन्तु कल्पना में
और हकीक़त में बहुत
 फ़र्क हुआ
करता है. पहले तो
 ऑटो के रास्ते पर ही इतना ट्रैफिक था कि हमारे गाइड महोदय को भी लगने लगा कि मेट्रो की जगह ऑटो
से आना गलत
 फैसला था. उसके बाद जो रिक्शा का रास्ता था
उसमें तो पांच मिनट के रास्ते के लिए हमें आधा घंटा लगा.
 

लोकतंत्र वहां अपने चरम पर नजर आ
रहा था. जिसका जैसा मन वैसे चल रहा था. जहाँ मन वहां गाड़ी खड़ी करके बैठा था. और
जिसका जितनी जोर से मन उतनी जोर से बीच सड़क पर फ़ोन पर चिल्ला-
 चिल्ला कर बातें कर रहा था. खैर अब आ ही गए थे तो बजाय इन सब से परेशान
होने के हमने इनका आनंद लेना ज्यादा उचित समझा। और उस इलाके की मशहूर जलेबियों और
 कचौरियों की चर्चा करते हम धैर्य के साथ रिक्शे में बैठे रहे. 
बल्लीमारान के उस इलाके में,  पहली और आखिरी बार मैं यही कोई ८-१० वर्ष की
अवस्था में गईं होऊँगी।ज्यादा कुछ याद तो नहीं था. पर इतना फिर भी याद है कि उस
समय भी वे गलियाँ आज जैसी ही थीं. शायद लोगों की उम्र के अलावा कहीं कुछ नहीं बदला
था वहां। तब भी वहां ग़ालिब की हवेली को कोई नहीं जानता था. आज भी उसी गली में होते
हुए भी किसी रिक्शे वाले को उसका पता न था. यदि साथ में अभिषेक न होता तो
 यकीनन ग़ालिब की उस कासिम खान गली तक पहुँच कर
भी उनकी  हवेली तक मैं नहीं पहुँच
 सकती थी. 
खैर हम उस हवेली के मुख्य द्वार तक
पहुँच गए जो खुला हुआ था.
 जहां १५० साल पहले उर्दू का
वह महान शायर रहा करता था.जहां १८६९ में ग़ालिब की मौत के बाद फ़ोन बूथ व अन्य
दुकाने खुल गईं थीं
, लोगों ने अपना कब्जा कर लिया था.और आज
भी जिसके अधिकाँश हिस्से में यही सब काबिज है.
 
सन २००० में भारतीय सरकार की
आँखें खुलीं और उन्होंने इस हवेली के कुछ हिस्से को कुछ कब्जाइयों से
 छुड़ा कर उस महान शायर की यादों के हवाले कर
दिया। आज उसी छोटे से हिस्से के बड़े से गेट पर
 चौकीदार  कम गाइड कम परिचर एक बुजुर्गवार बैठे हुए थे.
https://mail.google.com/mail/u/0/images/cleardot.gif
हमारे अन्दर घुसते ही वे पीछे
पीछे आ गए और जितना उन्हें उस हवेली के छोटे से हिस्से के बारे में मालूम था प्रेम
से बताने लगे.
उन्होंने ही बताया कि सरकार के इस
हिस्से को संग्रहालय के तौर पर हासिल करने के बाद भी कोई यहाँ नहीं आता था
, वो तो कुछ वर्ष पहले गुलज़ार के यहाँ आने के बाद यह हवेली लोगों की निगाह
में आई और अब करीब १०० देसी
, विदेशी यात्री यहाँ रोज ही आ
जाया करते हैं.
 

हालाँकि उनकी इस बात पर उस समय
मेरा यकीन करना कठिन था
, क्योंकि जहाँ पहुँचने में हमें इतनी परेशानी हुई थी. वहां
बिना किसी बोर्ड
, दिशा निर्देश के कोई बाहरी व्यक्ति किस
प्रकार आ पाता
 होगा। और उस समय भी और जबतक हम वहां रहे
तब तक
, हमारे अलावा वहां कोई भी नहीं आया था. पर शायद यह
बताने
 के पीछे उन सज्जन का एक और उद्देश्य था – वह शायद
बताना चाहते थे कि
,  यूँ तो वह सरकार के कर्मचारी हैं
और निम्नतम तनख्वाह पर ग़ालिब की सेवा करते हैं पर आने जाने वाले यात्री ही कुछ
श्रद्धा भाव दे जाते हैं.
खैर हवेली में प्रवेश करते ही
सामने ग़ालिब की प्रतिमा दिखी जिसे गुलज़ार साहब ने वहां लगवाया है और साइड में
ग़ालिब अपनी बड़ी सी तस्वीर में से कहते जान पड़े –
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है! कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं.
वाकई उस बड़ी सी हवेली के उस छोटे
से हिस्से में कुछ गिना चुना २-४ सामान ही पड़ा हुआ है।  
वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां,
वह शब-ओ- रोज़ -ओ-माह -ओ -साल कहाँ।
यहाँ तक कि उस बरामदे की छत को भी
अभी हाल में ही कबूतरों के आतंक से तंग आकर बनवाया गया है. कुछ दो चार बर्तन हैं।
 जो ग़ालिब के थे वे तो पिछले दिनों चोरी हो गए
, अब उनकी नक़ल रख दी गई है।  कुछ दीवान हैं शायर के, एक चौपड़ , एक शतरंजऔर
दीवारों पर शायर की
 कहानी कहती कुछ तस्वीरें। शायद बस यही रहे हों साथी उनके आखिरी दिनों में , और
शायद इसीलिए उन्होंने कहा –
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों
के ख़ुतूत
,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ
निकला ।
हालाँकि वहां उपस्थित उन सज्जन ने
बताया कि सरकार की तरफ से केस चल रहा है और उम्मीद है कि पूरी हवेली को हासिल करके
कायदे से ग़ालिब के हवाले किया जाएगा। क्योंकि ग़ालिब की अपनी सातों  संतानों
में से कोई जीवित नहीं रही अत: उस हवेली का कोई कानूनन वारिस अब नहीं है. लोगों ने
अनाधिकारिक तौर पर कब्जा किया हुआ है. हमने चाहा तो बहुत कि उसकी इस बात पर भरोसा
कर लें. तभी एक बोर्ड पर राल्फ़ रसल के ये शब्द दिखे
 –
यदि ग़ालिब अंग्रेजी भाषा में लिखते, तो विश्व एवं इतिहास के महानतम कवि होते “
 मेरे मन में आया – यदि ग़ालिब भारत की जगह इंग्लैण्ड
में पैदा होते
, तो वहां इनके नाम का पूरा एक शहर संरक्षित होता।
 भारत में उनके नाम की उनकी गली भी नहीं।
सरकार से तो उम्मीद क्या करनी एक
दरख्वास्त गुलज़ार साहब से ही करने का मन है
, एक प्रतिमा हवेली
के अन्दर लगवाई
, तो हवेली प्रकाश में आई, कम से कम एक बोर्ड और बल्लीमारान गली के बाहर लगवा दें तो वहां तक आने
वालों को भी कुछ सुविधा हो जाये.
हम उस हवेली से निकल आये उस गली
को पीछे छोड़ आये पर साथ रह गया चचा का यह शेर –
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन 
खाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर
होते तक

Tuesday, September 17, 2013

कच्ची मिट्टी... (समापन)

 http://shikhakriti.blogspot.co.uk/2013/09/blog-post_15.html  यहाँ से आगे। 


अब तक यह तो विजया की समझ में आने लगा था कि घर की तीसरी मंजिल पर रहने वाले निखिल के सगे भैया, भाभी क्यों अजनबियों की तरह रहते हैं, क्यों उन्होंने घर में आने जाने का रास्ता भी बाहर से बना लिया है, और क्यों त्योहारों पर भी वह एक दूसरे को विश तक नहीं करते। हालाँकि बात उलटी भी हो सकती है, हो सकता है भैया, भाभी का यह रवैया ही मम्मी जी के ऐसे व्यव्हार का कारण हो, हो सकता है इसीलिए वो इस घर पर सिर्फ अपना अधिकार चाहती हों, हो सकता है इसीलिए निखिल के लिए वह इतना असुरक्षित महसूस करती हों। यह ख़याल आते ही उसे मम्मी जी से सहानुभूति होने लगी। बेचारी अकेली हैं। एक बेटे ने तो भुला ही दिया है, माँ है आखिर क्या बीतती होगी उनपर। पर जो भी हो ऐसे कब तक चलेगा। उसे माँ- बेटे के प्रेम से कतई कोई आपत्ति नहीं पर कुछ हिस्सा उसका भी तो होना चाहिए, आखिर वह किसके सहारे जिए। आज वह निखिल से बात करके ही रहेगी आखिर पता तो चले कि माजरा क्या है। रात को नीचे ही टीवी देखकर जब निखिल साढ़े बारह बजे ऊपर आया तो छेड़ ही दिया विजया ने। अब पता नहीं वह नींद में था या ऑफिस की कुछ परेशानी , भड़क गया एकदम – देखो विजया ! मुझे इन सब में मत धकेलो, मैं मम्मी के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता , गलत हो या सही बस वह करो जो मम्मी कहती हैं ..बात ख़त्म। 

ठगी सी खड़ी रह गई विजया और निखिल कपडे बदल कर सो गया। उस रात सोई नहीं वो और न जाने कितनी ही रातें ऐसे ही गुजर गईं। आखिरकार एक दिन मम्मी जी ने कह दिया , विजया के हाथ का खाना हमें नहीं अच्छा लगता, कोई काम ढंग से नहीं करती,उससे कह दो अपना खाना अलग बनाये, हम अपना अपने आप बना लेंगे। इस बार बिल्कुल आश्चर्य नहीं हुआ विजया को। उसने सबकुछ वैसे ही करने की ठान ली थी जैसे मम्मी जी कहती थीं। वह अपना और निखिल का खाना अलग बनाने लगी। पर तब भी निखिल नीचे ही खाकर आधी रात को ऊपर आता और आकर सो जाता। विजया कभी कुढ़ कर तो कभी रो कर सो जाती। एकदम असंवेदनशील होती जा रही थी वो। अपनी तरफ से वह घर में शांति रखने की और मम्मी जी को खुश रखने की हर संभव कोशिश करती थी। पर जैसे उन्होंने तो उसे ज़लील  करके इस घर से, बेटे की जिन्दगी से निकालने की ठान ली थी। एक दिन तो उसने एक बैगन भूना, भरता बनाने के लिए। उसमें से आधा उसने मम्मी जी के लिए रख दिया और आधे का भरता अपने लिए बना लिया. शाम को निखिल के आने पर उसे आवाज आई – बैगन के बीज बीज मेरे लिए छोड़ गई और गूदा सारा खुद ले गई, मेरे दांत अब कमजोर हो गये हैं बीज अटक जाते हैं उसमें। दूसरे दिन विजया ने सब्जी वाले से दो बैगन लिए और एक मम्मी जी को दे दिया – अब इसके बीज भी आपके और गूदा भी आपका। उसे अब किसी भी बात से रोना नहीं आता था। पर मन के एक कोने में हमेशा एक टीस सी होती रहती थी। ऐसे ही समय में लन्दन जाने की बात हुई थी तो अचानक जैसे रेगिस्तान में बारिश आ गई। उसके मन का सूखा हुआ सोता फिर से आबाद होने लगा , उम्मीद की एक किरण उसे दिखाई देने लगी थी। 
लन्दन आकर उसकी उम्मीदों में पंख लग गए थे। उसने सोचा था अब वह अपनी डिग्री का भी इस्तेमाल कर पाएगी। कुछ काम कर लेगी. एक पार्टी में एक पढ़ी लिखी स्मार्ट सी एक लड़की मिली थी उसे , उसने बड़ी आशा से उसे पूछ लिया था ..आप कोई जॉब क्यों नहीं करतीं. उसने हंस कर जबाब दिया इस कम्पनी में पति हो तो अपना कैरियर भूल जाओ। बड़ी अजीब लगी वो औरत उसे, अजीब है काम नहीं करना तो यह बहाना सही। हिंदुस्तानी लड़की, कहीं भी चली जाए अपना पति राग नहीं छोड़ सकती। खुद को हमेशा सबसे पीछे ही रखती है। पहले शादी हो गई, फिर पति, फिर बच्चे, खुद का तो कुछ है ही नहीं। पता नहीं क्यों पढ़ती लिखतीं हैं फिर। वह तो नहीं रह सकती ऐसे निष्क्रीय सी। वो कल ही जाकर जॉब सेंटर में खुद को रजिस्टर करवा कर आएगी। अब तो निखिल के स्वभाव में भी सुधार है। लगता है पटरी पर आ जाएगी जिन्दगी अब उसकी।

परन्तु जल्दी ही उसे एहसास हो गया था की वह लड़की इतनी भी अजीब नहीं थी। कहीं न कहीं उसका अनुभव था जो उसकी हंसी में बोल रहा था। बहुत कोशिशों के बाद भी विजया को कोई काम नहीं मिल रहा था। यह पश्चिमी देशों में मंदी का दौर था। हालाँकि खाली बैठने के बजाय वह किसी सुपर स्टोर तक में नौकरी करने को तैयार थी। हाँ अब क्लीनर का काम तो नहीं होता उससे , वह तो शायद उसे मिलेगा भी नहीं उसके लिए वो “ओवर क्वालिफाइड” जो ठहरी। नहीं तो हो सकता था कि वह, यह काम भी करने को आखिर तैयार हो ही जाती। आखिर यहाँ अपने घर में भी तो यही सब करती ही है। यह भी अजीब फंडा है लन्दन में, काम मिलेगा तो आपकी योग्यता अनुसार ही। न ज़रा सा ऊपर न ज़रा सा नीचे। इतने आवेदन भेजे उसने, तो कुछ के जबाब में लिखा आया “सॉरी यू आर ओवर क्वालिफाइड फॉर दिस जॉब” . खैर जो भी हो ..लन्दन में सुकून तो था। रोज की चिक चिक नहीं थी, कुछ अच्छे दोस्त भी बन गए थे। अपना घर था जिसे वो अपने हिसाब से रख सकती थी। पर कुछ था जो अब भी ठीक नहीं था। निखिल के स्वभाव में कुछ नरमी जरूर आई थी ,परन्तु उसकी परवाह जैसे उसे अभी भी नहीं थी।

वह आता, खाना खाता और सो जाता। कभी यह तक नहीं पूछता था कि उसने भी खाना खाया है या नहीं। बल्कि वह जब कभी प्यार जताने की कोशिश करती या कोई बात करने की,झिड़क देता – तुम्हें यही सब फालतू काम सूझता है हमेशा, कोई और काम नहीं है क्या .  
अंतरंगत पलों में करीब आने के बजाय वह अब भी उससे दूर भागने के बहाने तलाशा करता था। कभी ऑफिस का काम लेकर बैठ जाता , कभी कोई फिल्म देखने, नहीं तो सो ही जाता। शादी के तीन सालों में मुश्किल से तीन बार वह एक दूसरे के समीप आये थे वह भी विजया के ही पहल करने पर। उस पर भी वह इनकार के सारे हथकंडे अपना लेता था। उसका यह बर्ताव विजया की समझ से बाहर था आखिर ये कैसा आदमी है? क्या इसका कभी भी मन नहीं करता? या निखिल को वह पसंद ही नहीं? उसकी पहली तीनो गर्लफ्रेंड की तस्वीर देखीं हैं उसने। तीनो एक दम सिंगल हड्डी थीं तो क्या निखिल को एकदम पतली लडकियां पसंद हैं, क्या उसका कद- काठी में ठीक- ठाक होना उसके इस बर्ताव की वजह है ? आखिर कोई तो वजह होगी ही , वरना कभी तो और कुछ न सही कुछ रोमांस ही करने का मन तो करता उसका। सोचते सोचते अपने दिमाग में ही जाला सा बनता लगने लगता, और विजया उसी जाले में उलझती चली जाती . कोई सिरा ही नहीं मिलता उसे। इसी उहापोह में एक दिन उसने अपने मन की यह गिरह साक्षी के सामने खोल के रख दी थी। उसे जाने क्यों बड़ी अपनी सी लगा करती थी साक्षी। और फिर यहाँ और उसका था भी कौन। यह बातें वह अपने घर वालों से तो कह नहीं सकती थी। और ससुराल में ले दे कर एक ननद थी जिससे कुछ बात उसकी हुआ करती थी। पर अपने मन की यह दुविधा वह उससे भी कैसे  कहती। 
साक्षी ने उससे कहा था। तू उसे थोड़ा समय दे विजया। हो सकता है तेरी इस हबड़ तबड़ और घर की परेशानियों की वजह से वो और चिढ जाता हो। तू शांत रह कुछ समय, देख शायद उसे खुद ही एहसास हो। वह साक्षी से नहीं कह सकी कि – नहीं साक्षी उसे कभी एहसास नहीं होगा छ: छ: महीने गुजर जायेंगे फिर भी। पर फिर भी उसने एक बार साक्षी की ही बात मान लेने का मन बना लिया। एकदम अकेला छोड़ दिया निखिल को, कोई भी शिकायत ही करनी बंद कर दी। अब पता नहीं यह उसका असर था या उस दिन उसकी किस्मत अच्छी थी कि एक शाम को एक फिल्म देखते ही देखते सोफे पर ही वह दोनों कडल अप हो गए थे। कितनी खुश थी उसदिन विजया सुबह निखिल के जाते ही उसने साक्षी को फ़ोन करके थैंक्स कहा था। फ़ोन में उसकी ख़ुशी छलक छलक पड़ रही थी। पर शायद उस दिन भगवान् को ही उसपर दया आ गई थी , उसके बाद निखिल का फिर वही रवैया शुरू हो गया था। उसे आश्चर्य होता। अजीब अजीब बहाने बनाता था वो, एक दिन तो उसने यहाँ तक कह दिया कि तुमसे बदबू आती है। सर से पैर तक कांप गई विजया। उसी दिन बाजार जाकर जाने क्या -क्या खरीद लाइ थी। गज़ब का बाजारवाद है यहाँ। न जाने कैसी- कैसी क्रीम और साबुन आते हैं। हंसी आई उसे खुद पर। जो समस्या थी ही नहीं उसका इलाज करने निकली थी वो। उफ़ ये क्या हो गया है उसे। वह किसी भी तरह बस निखिल का प्यार पाना चाहती थी। और फिर कुछ समय बाद इंडिया से मम्मी जी के सन्देश आने लगे थे कि अब वापस आ जाओ , वो अकेली हैं , बीमार हैं। और निखिल ने जाने का फैसला कर लिया था। 
अरे अभी तक पेकिंग नहीं हुई तुम्हारी ? हर काम कछुए की चाल से करती हो। निखिल के इस ताने से वह वर्तमान में आई। अब सोचने से फायदा क्या . चलो ठीक है। निखिल ने कह ही दिया है कि एक ही घर में रहेंगे पर अलग अलग घर की तरह। और वह भी इंडिया जाते ही कोई काम शुरू कर देगी। अपने काम में मन लगा लेगी। शादी के ४ साल बाद भी निखिल बच्चा नहीं चाहता था। तो ठीक है न। अपने ही काम पर ध्यान देगी वो .
पर उसका यह इरादा भी धूल में जा पड़ा था। इंडिया जाकर फिर से दिन भर की चकल्लस शुरू हो गई थी। इतने गेप के बाद न तो उसे कोई नौकरी देने तो तैयार था , न ही अपना कोई काम शुरू करना इतना आसान था । उसने फिर भी कोशिश की। खुद ही यहाँ वहां हाथ पैर मार कर प्रदर्शनियों में अपना काम लगाया, परन्तु एक नए खिलाड़ी का बिना पैसों के कहीं भी जमना कहाँ आसान था। सारे दिन अपने एक कमरे में पड़ी विजया बोर हो जाती। निखिल से कभी शिकायत करती तो वो कहता अपना काम करो न तुम्हें क्या मतलब है किसी और चीज से। विजया को समझ में नहीं आता था कौन सा अपना काम करे वो , और कहाँ ? इस घर में कुछ भी करने की उसे इजाजत नहीं थी। निखिल के भी सारे काम मम्मी जी करती थीं . वह तो सिर्फ सोने ऊपर आया करता था। और कभी कभी तो वो भी नहीं, वहीँ सोफे पर ही सो जाता था टीवी देखते हुए। क्या अपना काम करे वो, उसका काम है क्या।। 
उसपर अब नाते रिश्तेदारों ने बच्चे के लिए भी कहना शुरू कर दिया था। निखिल की बहन तो एक बार सिर्फ यही कहने के लिए आई थी। उसे समझ में नहीं आता था कि कैसे समझाए उन्हें ? कहाँ से आयेगा बच्चा ? क्या यह वह युग है कि बच्चे की इच्छा की , सूर्य या समुन्दर को देखा और बच्चा हाजिर। अरे बच्चे के लिए एक स्त्री के साथ एक पुरुष भी चाहिए होता है। जो उसके पास है तो, पर उसके साथ नहीं होता।  कहाँ से टपका कर दे दे वो बच्चा ..खीज जाती विजया। नंदरानी कहती हैं किसी डॉक्टर से क्यों नहीं राय लेती तुम, जाकर चेकअप तो कराओ, उसका मन हुआ कह दे , हाँ चलो आप साथ, मैं तो तैयार हूँ पर वहां डॉक्टर के सवालों के जबाब आप देना , कह देना मेरा भाई तो देवता है अपनी दिव्य दृष्टि से ही इसे प्रेग्नेंट कर सकता है। कमी तो इसमें ही है। फिर भी उसने कोशिश करके निखिल से बात की थी। कुछ विशेषज्ञों से राय लेने को भी कहा था। पर निखिल को तो कुछ भी गलत लगता ही नहीं था . उसके हिसाब से तो विजया ही ओवर रियेक्ट करती है, हर बात का इशू वही बनाती थी। परेशान हो गई थी विजिया . उसने निखिल के दोस्तों को , बहन को सबको कहा की उसे समझाएं पर निखिल उससे और ज्यादा चिढ गया, बेतहाशा चिल्लाया एक दिन कि वह अपनी कमजोरी और गलती उसपर लादना चाहती है, उसे बदनाम करना चाहती है। वह एकदम ठीक है। जिस किसी भी डॉक्टर को दिखाना है विजया खुद को दिखाये. वह किसी की कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं था। हे भगवान् ये कैसा पढा लिखा अनपढ़ इंसान पल्ले पड़ा है उसके। टूट गई थी विजिया। उसके पापा ने बड़ी आशा से उसका नाम विजया रखा था। पर अब हारने लगी थी वो। कहीं कुछ भी ठीक होता हुआ उसे नहीं लग रहा था। तो एक दोस्त की सलाह पर कुछ दिन के लिए अपने शहर अपने मम्मी पापा के पास चली गई . 
और वह आ गई थी अपने शहर। फिर से अपनी जिन्दगी के बारे में नए सिरे से सोचने। कुछ दिन तक निखिल के कभी कभी फ़ोन आते रहे थे औपचारिकता वश। पर किसी में भी विजया को अपने लिए जरा सा भी एहसास नहीं महसूस होता था। निखिल वहां अपनी दुनिया में मस्त था, दोस्तों के साथ घूम रहा था, नए -नए दोस्त बना रहा था। अब उसे माँ की कोई परवाह नहीं थी। बस विजया को दुखी करने के लिए ही उसका मातृप्रेम उफनता था. सच ही है निखिल जैसे लोग कभी किसी के भी नहीं होते।एक दिन तो निखिल की “ऍफ़ बी वाल” पर उसने एक औरत का आपत्तिजनक कमेंट भी देखा और उसपर निखिल का उससे मिलने का समय मांगना भी, शायद गलती से इनबॉक्स की जगह वाल पर ही सन्देश भेज रहे थे वो दोनों, और दूसरे ही दिन वह कमेंट डिलीट भी हो गए थे। वह फिर भी निखिल के ही साथ एक बार और कोशिश करना चाहती थी। उससे यह बात हजम ही नहीं होती थी की आखिर ८ सालों के इस रिश्ते में क्या निखिल ने कभी भी उसे नहीं चाहा, क्या उसके दिल में जरा सी भी जगह अपनी पत्नी के लिए नहीं। आखिर प्यार है क्या, वह मानती है कि यूँ अचानक किसी से प्यार नहीं हो जाता, प्यार भी जिम्मेदारी, परवाह और विश्वास के धरातल पर ही पनपता है। और उसके लिए आठ साल बहुत होते हैं। प्यार न सही एक जिम्मेदारी के तहत तो निखिल के मन में उसके लिए कुछ एहसास होने ही चाहिए। धीरे -धीरे निखिल के फ़ोन आने भी बंद हो गए थे। 
उसने भी सोचना छोड़ कर उसी शहर में कोई नौकरी तलाशना शुरू कर दिया था। कि कोई काम होगा तो तनाव से दूर रह सकेगी वो। फिर एक दिन महीनों बाद निखिल का फ़ोन आया। वह हैदराबाद में था वहां उसका एक्सीडेंट हो गया था। पैर की हड्डी टूट गई थी। जाहिर था उसे विजया की जरुरत थी। विजया भी बिना एक पल गंवाए पहुँच गई वहां।  पैर में स्केट से बाँध लिए विजया ने , उसका एक कमरे का घर संवारा,उसकी नर्स, ड्राइवर, नौकरानी सब बन गई, पत्नी तो थी ही, जिसका हक निखिल ने उसे कभी नहीं दिया था। फिर १०  दिन बाद उसे मुंबई वापस लौटना था और वह विजया को दूसरे दिन का उसके शहर का टिकट थमा कर चला गया।
जड़वत अपने शहर वापस आ गई विजया, खाली हाथ, ठगी हुई , इन १०  दिनों में बात करने की कोशिश की उसने निखिल से, पर हमेशा टाल दिया उसने। विजया के दोस्त उसे सलाह देते अपनी नई जिन्दगी शुरू करने के लिए। पर इतनी हिम्मत विजया जुटा नहीं पाती थी। कैसे वह उस बंधन को तोड़ दे, निखिल ने न सही, पर उसने तो अपनी जिन्दगी के महत्वपूर्ण पल दिए हैं निखिल को। वह तो उससे बंधा महसूस करती है अब भी। हमारे देश में लडकियां पैदा भी कच्ची मिट्टी सी होती हैं और ताउम्र वैसी ही रहती हैं। जो जैसा चाहे , जब चाहे अपने हिसाब से ढाल ले, वो ढलती ही जाएँगी, बार बार , लगातार, नए – नए आकार लेती जाएँगी। 
निखिल ने उसके बाद कभी फ़ोन नहीं किया।

वह खुद ही कभी फ़ोन करती तो वह उसे ही दोषी ठहराना शुरू कर देता . उसकी माँ और उसके ख़याल से विजया शादी के रिश्ते के लायक ही नहीं थी। उसे परिवार में रहना ही नहीं आता था। और अब निखिल उसके साथ रहना भी चाहता तो शर्तों पर – की वह माँ को जबाब नहीं देगी, उससे किसी तरह की मांग नहीं करेगी, उसके घरवालों की सब बात मानेगी। निखिल के अनुसार विजया एक दिखावटी इंसान थी, उसके एहसास, प्यार , आंसू सब दिखावा ही था, निखिल के लिए , उसके घरवालों के लिए, उसकी माँ के लिए, बहन, बहनोई, भांजों के लिए किसी के लिए कभी, कुछ भी नहीं किया था विजया ने। स्तब्ध थी विजया। आखिर इन आठ सालों में कितना समझा उसने निखिल को। वह अब चाहता ही क्यों था उसे अपने घर में वापस, जबकि उसकी जिन्दगी में तो विजया के लिए शायद जगह ही नहीं थी। ग्लानी होने लगी विजया को खुद पर। क्या इसीलिए उसके पापा ने उसे इतना पढ़ाया -लिखाया, आत्मनिर्भर बनाया था कि एक दिन वह अपने ही पति के हाथों जानवर की तरह बोली लगाके बिक जाए। उस पूरी रात रोती रही विजया। पर सुबह उठी तो उसकी आँखें एकदम साफ़ थीं . उसे सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था। जल्दी जल्दी उठकर , तैयार होकर वह निकल गई थी। एक कंपनी से कल ही एक इंटरव्यू कॉल आया था। नौकरी छोटी थी पर ठीक है। आज उसे अपनी जिन्दगी जीने से कोई नहीं रोक सकता था। वह कोई अनपढ़, मजबूर औरत नहीं है , जिसे जो चाहे जैसे चाहे अपने घर में बाँध ले। अब अपनी जिन्दगी वह अपने हिसाब से जीयेगी। यहीं रहकर अपने बूढ़े हो रहे माता- पिता का सहारा बनेगी। और अपनी जिन्दगी अब एक नए सिरे से फिर शुरू करेगी। जिसमें न निखिल होगा, न निखिल के साथ उसकी की गई गलतियां।

वह तेज़ कदमों से सड़क पर चली जा रही थी। सर के ऊपर सूर्य अपनी पूरी उष्मा के साथ मौजूद था। पर विजया के चेहरे पर बहता पसीना आज चमक रहा था। विजया के अपने होने का पसीना, उसके वजूद का पसीना, विजया की विजय का पसीना। अब जिन्दगी को फ़ास्ट ट्रेक पर ले जाने का वक़्त आ गया था। कच्ची मिट्टी फिर एक नया आकार लेने वाली थी।



समाप्त। 


Sunday, September 15, 2013

कच्ची मिट्टी...




जब से लिखना शुरू किया, हमेशा ही मेरे मित्र मुझे कहानी भी लिखने को कहते रहे. परन्तु मुझे हमेशा ही लगता रहा कि its not my cup of tea.
फिर लगातार कुछ दोस्तों के दबाब के कारण और कुछ अपनी क़ाबलियत आजमाने के स्वाभाव 
के चलते यह पहला प्रयास किया .. और यह मेरी पहली कहानी इस माह (सितम्बर) की “बिंदिया” पत्रिका में प्रकाशित हुई है. 
प्रयास मेरा है और विश्लेषण आपका.



कच्ची मिट्टी…

स्लो मोशन में विजया,जाने किस धुन में सूटकेस में कपड़े भरे जा रही थी, ऐसा भी नहीं था कि वह कुछ सोच रही थी। सोचना तो उसने कब का बंद कर दिया था। अब तो बस खुद को किसी अनजान शक्ति के भरोसे सा छोड़ दिया था उसने। क्या कुछ नहीं किया था उसने। कितनी पोजिटिव हुआ करती थी वो, सोचा था इस माहौल से निकल कर कुछ सुधार हो ही जाएगा। पर इस १ साल में लन्दन की खुशगवार फिजा, आपस का साथ, अच्छे दोस्त कुछ भी तो सहायक नहीं  हुए थे। बल्कि अब तो हालात और बुरे होते दिखने लगे थे उसे, निराशा भी हावी होने लगी थी। 

कितनी खुश थी वह जब निखिल ने आकर उसे सुनाया था कि कम्पनी उसे १ साल के किसी प्रोजेक्ट के लिए लन्दन भेज रही है। खिल गई थी वो, कि चलो एक साल ही सही घर के इस माहौल से तो निकलेगी, उसे निखिल के साथ अकेले समय मिलेगा, बिना टोका- टाकी  वह एक दूसरे को कम से कम, समझने की कोशिश तो कर सकेंगे। उसे पूरा विश्वास था कि यह वक़्त जरूर उसकी शादीशुदा जिन्दगी के लिए वरदान साबित होगा। ख़्वाहिश थी ही क्या उसकी। सिर्फ इतनी कि एक सामान्य शादी शुदा जोड़े की तरह वह अपनी जिन्दगी जियें। शहर के सबसे नामी इंस्टीटयूट से उच्चस्तरीय पढाई की थी उसने। लोग मरा करते थे वहां दाखिला लेने के लिए। उसने सोचा था शादी होकर क्या बिगड़ जाएगा, क्या हुआ जो निखिल की माँ हमारे साथ रहेगी। अच्छा ही है। वह शादी के बाद अपना कोई काम शुरू कर लेगी, बिज़ी हो जाएगी तो निखिल को और उसे, माँ का सहारा रहेगा। एक छोटी सी दुनिया में खुश रहेंगे सब।निखिल ने कहा था की वह अपनी माँ से अलग नहीं रहेगा। वह सब उस की माँ के घर ही रहेंगे। कितना खुश हुई थी विजया तब। उसने सुना था कहीं, कि जो लड़का अपनी माँ से प्यार करता है वह अपनी बीवी को भी उतना ही चाहता है। 
पर पहले ही दिन उस घर में पहुँचते ही उसे लगा कि जैसे उसे यहाँ नहीं होना चाहिए। फिर उसने अपने दिमाग को झिड़क दिया। आखिर अनजान जगह है, अनजान लोग हैं ऐसा तो लगेगा ही। और फिर वह दूसरे ही दिन निखिल के ही एक दोस्त की जिद पर औपचारिकता के लिए हनीमून पर, पास के ही हिल स्टेशन पर चले गए थे। निखिल अपनी माँ को छोड़कर नहीं जाना चाहता था। उसकी माँ का भी कहना था कि जरुरत ही क्या है , यहाँ भी कौन सी भीड़ है , इतना बड़ा घर है और तीन प्राणी .मैं अकेली बूढ़ी  क्या तुम्हें डिस्टर्ब करुँगी। यह बात भी विजया को बाद में एक दिन, उसी दोस्त ने बातों बातों में बताई थी। तब तो वे चले ही गए थे। कितनी ऊर्जा थी विजया में तब, कितना बोलती थी . सारे रास्ते वही बोलती गई। निखिल कभी अपनी माँ से तो कभी ऑफिस में किसी न किसी से फ़ोन पर बात करता रहा। एक बार टोका भी विजया ने। तो उसने बेरुखी से कह दिया शादी की थकान है बहुत।अब बात तो सारी जिन्दगी तुम्हीं से करनी है ,और चद्दर तान के सो गया था। उसके बाद ७ दिन का हनीमून ३ दिन में समेट दिया, उसने ऑफिस में काम का बहाना बनाकर. वे तीन दिन भी विजया को हर पल लगता रहा जैसे हनीमून उसका अकेली का है निखिल तो कहीं उसके साथ है ही नहीं . कहीं कुछ दरका तो जरूर पर समझा लिया उसने खुद को। कोई जरूरी है हर आदमी एक सा ही हो, उसका निखिल उसकी सहेलियों के पतियों से अलग भी तो हो सकता है। जिनके पूरे हनीमून के दौरान होटल के बंद कमरे में पत्नियों पर टूटे पड़े होने के किस्से वो सुनती आई थी। आखिर यही तो हनीमून का मतलब नहीं। और सारी जिन्दगी पड़ी है साथ साथ ..जरूरी है सब कुछ हनीमून पर ही निबटा लिया जाये। यूँ उसे खुद भी तो उन ऊँचे पहाड़ों पर हाथ में हाथ डाल कर चढ़ने का ही मन था। परन्तु निखिल कुछ ज्यादा ही थका हुआ था ,हो भी क्यों न , उसका अपना घर तो भरा पूरा था। मम्मी , पापा दोनों के तरफ के रिश्तेदार इतने आपस में गुंथे हुए थे कि कभी लगता ही नहीं था अलग- अलग घर में रहते हैं। शादी का सारा काम कब कैसे हुआ पता ही नहीं चला , पर निखिल के यहाँ तो वह और उसकी माँ ही सब देख रहे थे। जाहिर है थकान तो होगी ही। अच्छा हुआ जल्दी ही जा रहे हैं घर। ४ छुट्टियां बाकी थीं निखिल की। घर पर आराम कर लेगा वो.

अगले दिन घर पहुँचते ही उसने मन बना लिया था कि इस घर को वह अपने आर्ट स्किल से एकदम बदल कर रख देगी। जाने क्यों उस घर में उसे हमेशा एक उदासी बिखरी दीखा करती थी। वह उन खामोश दीवारों को सजा कर मुखर कर देना चाहती थी। और इसीलिए अपने हाथ से बना एक खुशनुमा रंगविरंगा सा पोस्टर उसने लीविंग एरिया की एक खाली दिवार पर लगा दिया था। कैसी सजीव हो उठी थी दीवार। देखकर ही एक पॉजिटिव एनर्जी महसूस होती थी। 
शाम की चाय बनाने वह ऊपर अपने कमरे से नीचे आई तो देखा कि तस्वीर गायब थी. वह झट से जाकर निखिल की मम्मी से बोली -अरे मम्मी जी एक पेंटिंग लगाईं थी मैंने कहाँ गई ? अरे बहुत ही चीप लग रही थी। मैंने स्टोर में रख दी है।तुम्हें यह सब करना है तो अपने कमरे में करो. विजया को लगा जैसे पेंटिंग के साथ साथ उसे भी स्टोर में डाल दिया गया है। फिर उसके बाद तो वह जो भी करती मम्मी जी को कभी पसंद नहीं आता था। 
 किसी भी काम को करने के बाद वह उसे खुद करतीं और फिर निखिल के ऑफिस आने पर थकान और तबियत का रोना रोतीं। निखिल कभी उसे कुछ कहता नहीं था, न ही कुछ पूछता था। हालाँकि वह चाहती थी की वह कुछ बोले तो वह भी अपनी बात कह सके। ऐसे तो वह जो भी कहेगी निखिल गलत ही समझेगा। पर ऐसा होता ही नहीं था। धीरे धीरे विजया ने काम करने कम कर दिए। बस जरुरत भर के काम ही करती। उसमें भी सारा दिन मम्मी जी की बातें सुनती। उस दिन तो हद ही हो गई जब दिवाली पर विजया की बड़े शौक से लायी मोमबत्ती भी मम्मी जी ने लगाने से मना कर दिया, और उसकी बनाई रंगोली भी फैला दी, यहाँ तक कि पूजा का दिया तक उसे जलाने न दिया। विजया भरे पूरे घर में रही थी।हर तरह के व्यक्ति से निभाने की आदत थी उसे , पर पता नहीं ये मम्मी जी किस मिट्टी की बनी थीं, उसकी समझ से एकदम बाहर की बात थी। पता नहीं वो चाहती क्या थीं। बहु तो वह नहीं मानती थीं उसे, उस घर की एक सदस्य भी नहीं, पर शायद अपने बेटे की बीवी भी नहीं मानना चाहती थीं। हालाँकि शादी उसकी, दोनों तरफ के माता पिता ने ही अरेंज की थी अत: निखिल की माँ की सहमति से ही हुई थी।परन्तु वह निखिल को विजया के पास फटकने भी नहीं देना चाहती थी। कभी विजया निखिल के पास भी बैठ जाती तो किसी बहाने उसे उठा कर खुद वहां बैठ जाती। रात को जब तक संभव होता किसी न किसी बहाने निखिल को नीचे ही रोके रखतीं। उसकी समझ में नहीं आता था कि आखिर निखिल की शादी उन्होंने की ही क्यों है, निखिल को भी शादी की कोई जरुरत महसूस नहीं होती थी। तो क्या समाज के दवाब में उन्हें घर में एक लड़की नाम की जंतु चाहिए थी बस, जो बहु बनकर उस घर के एक खूंटे से बंधी रहती और जिसकी आड़ में वह अपने बेटे की नपुंसकता छिपा सकती थीं और समाज का मुंह बंद कर सकती थीं.
क्रमश:

अगली किश्त (समापन) यहाँ 


Monday, September 9, 2013

यहाँ भी बाबा ..

“क्या आपके कारोबार में घाटा हो रहा है?,या आपके बच्चे आपका कहा नहीं मानते और उनका पढाई में मन नहीं लगता , या आपकी बेटी के शादी नहीं हो रही ? क्या आप पर किसी ने जादू टोना तो नहीं किया ? यदि हाँ तो श्री …..जी महाराज आपकी समस्या का समाधान कर सकते हैं। यदि आप पर किसी ने काला जादू किया है तो ऊपर वाले की दया से उसी समय उतार दिया जाएगा और आपको ….जी महाराज से मिलकर यह एहसास अवश्य होगा कि इतनी कम उम्र में उन्होंने इतना इल्म कैसे पाया” .
क्या लगता है आपको ? यह भारत के किसी पुराने से कस्बे में एक रिक्शे पर लगे लाउड स्पीकर की आवाज है ? जी नहीं.यह आवाज आ रही है दुनिया के सबसे विकसित और आधुनिक कहे जाने वाले शहर लन्दन में प्रसारित होने वाले एक हिंदी रेडिओ प्रसारण चैनल से. यूँ कहने को कहा जा सकता है कि यह सिर्फ एक विज्ञापन है। किसी ने पैसे दिए तो रेडियो ने चला दिया।आखिर रेडिओ स्टेशन चलाने के लिए विज्ञापन तो चाहिए ही।फिर आजकल तो मीडिया के सामाजिक सरोकार की बात करना भी फ़िज़ूल ही है। फिर भी कुछ दायित्व तो अपने श्रोताओं के, अपने समुदाय के प्रति इन मीडिया के माध्यमों का बनता ही है। खासकर तब जब आप अपने देश से बाहर दूसरे देश में अपने देश का, अपनी संस्कृति का और अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लन्दन में मुश्किल से २ या ३ एशियाई रेडियो  चैनल हैं, जिनपर भारतीय भाषाओँ के गीत और अन्य कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं और लन्दन व आसपास के इलाकों में पूरे एशियन समुदाय द्वारा प्रभुत्ता से सुने जाते हैं .ऐसे में मीडिया की कुछ तो जबाबदारी बनती ही है। बात श्रद्धा विश्वास तक सिमित हो तो किसी को एतराज नहीं होता, दुनिया में बहुत सी जगह पर सदियों से ज्योतिष और इस तरह बुरी आत्माओं के छुटकारे का वैकल्पिक इलाज प्रचलन में हैं और धड़ल्ले से किया भी जाता हैं, परन्तु जब यह श्रद्धा, अंधविश्वास का रूप लेकर घातक हो जाए तब इसका यूँ प्रचार करना नागरिकों को पथभ्रष्ट करना ही कहलायेगा।
बी बी सी समाचार के अनुसार इंग्लैंड में एक व्यक्ति को उम्रकैद की सजा हुई है जिसने अपने घरवालों के साथ मिलकर अपनी ६ महीने की गर्भवती पत्नी नैला मुमताज को 2009 में बेहोश करने की प्रक्रिया के दौरान मार डाला। लड़की के ससुराल वालों के मुताबिक मुमताज के अन्दर जिन्न था जिसे नैला के माता पिता ने पकिस्तान से उसके साथ भेजा था और जिसे वह निकालने की कोशिश कर रहे थे।
वहीं 2010 में १५ वर्षीय लड़के के साथ हुआ एक हादसा ब्रिटेन के निवासी नहीं भूल सकते,  जिसकी, उसके अन्दर के तथाकथित राक्षस को निकालने के लिए पूरे एक दिन की झाड फूंक के दौरान दर्दनाक मौत हो गई। 
यूँ इस तरह के झाड फूंक या भूत, आत्माओं को भगाने की प्रक्रिया से हुए घायलों या मृतकों का कोई अंतरराष्ट्रीय डेटा बेस नहीं है अपितु इनकी संख्या दर्जनों में है. आज भी लोग इस तरह के इलाजों में हजारों पौंड फूंक देते हैं। और बी बी सी की रिपोर्टों के अनुसार सैकड़ों एशियन लन्दन में इस तरह के इलाज करने का दावा करते हैं और बहुत से लोग आज भी मानसिक बिमारियों के लिए इन ओझाओं के पास जाना ज्यादा पसंद करते हैं।उन्हें विश्वास होता है कि उन बुरी आत्माओं को यह ओझा निकाल देंगे जिनका उल्लेख कुरान में जिन्न के रूप में किया गया है।
इन विश्वासों के आधार पर ना जाने कितने बेगुनाह अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं ,तो क्या इसके पीछे इस तरह के विज्ञापनों के राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारण की कोई जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए. कानूनी न सही मानवीय उसूलों के आधार पर इतना ख़याल तो मीडिया के किसी भी साधन को रखना ही चाहिए कि यदि वह समाज में किसी अच्छी संस्कृति का विकास नहीं कर सकते तो कम से कम कुरीतियों को बढाने में भी सहयोग न करें .
(दैनिक जागरण के “लन्दन डायरी” सतम्भ (24th aug 2013)में प्रकाशित )

Wednesday, September 4, 2013

कुछ खट्टा कुछ मीठा मेला..(भारत प्रवास २०१३ के कुछ बिखरे पन्ने-1)

 दिल्ली पुस्तक मेले का परिसर, खान पान में व्यस्त जनता।

किसी भी मेले का अर्थ मेरे लिए होता है, कि वहां वह सब वस्तुएं देखने, खरीदने को मिलें जो आम तौर पर बाजारों और दुकानों में उपलब्ध नहीं होतीं। और यही उत्सुकता मुझे पिछले महीने के,भारत में प्रवास के आखिरी दिन की व्यस्तता के बीच भी दिल्ली पुस्तक मेले में खींच ले गई थी. मुझे याद नहीं आखिरी बार मैं दिल्ली में होने वाले पुस्तक मेले में कब गई थी, बहुत ही छोटी रही होऊँगी पर इतना याद है, वहां मिलने वाली रंग बिरंगी  रूसी कहानियों की किताबों का आकर्षण रहा करता था,जोकि सामान्यत: किताबों की दुकानों में नहीं मिला करतीं थीं. इसी तरह इस बार मेरा मन इस मेले से कुछ नए ताज़े यात्रा वृतांत और संस्मरण इकट्ठे करना था. हालाँकि जानती थी कि इनकी संख्या न तब अधिक थी, न ही आज होगी। फिर भी कुछ तो  इज़ाफ़ा हुआ ही होगा यह सोच कर,बाकी सभी कामों को धता बताकर हम पहुँच गए थे प्रगति मैदान, जहां उम्मीद के मुताबिक ही अभिषेक पहले से मौजूद था. उसके पुस्तक मेले के पुराने अनुभव को देखते हुए हमने उसे तुरंत अपना मार्गदर्शक  नियुक्त कर दिया कि क्या पता उसके सेलिब्रिटी स्टेटस का कुछ फायदा हमें भी हो जाए, शायद कोई भूला  भटका हमें भी पहचान जाए। :):). 


यूँ हिंदी पुस्तकों के हॉल में पहुँच कर, कुछ घूम कर एहसास हुआ कि उम्मीद हमने कुछ ज्यादा ही लगा ली थी. बहुत ही कम प्रकाशन हॉउस के स्टाल वहां मौजूद थे, और जो थे भी, वहां उन लिजेंड्री किताबों का ही जमावाड़ा था जिन्हें बचपन से हम पढ़ते आये हैं. उस पर भी कहानी और उपन्यासों की ही अधिकता थी जिनमें मेरी रूचि निम्नतम रही है. आखिर जब अपनी आँखों से कुछ अपने लिए वहां नजर नहीं आया तो ज्ञानपीठ के स्टाल पर आखिर पूछ ही लिया कि क्या कोई यात्रा वृतांत भी है. बहुत सोचने विचारने के बाद वहां उपस्थित दो महानुभावों ने एक किताब दिखाई। फूलचन्द मानव की “मोहाली से मेलबर्न”. अब भागते भूत की लंगोटी भली, हम वहां उपलब्ध वह इकलौता यात्रा  वृतांत लेकर  आगे बढ़ गए. और पहुंचे एक और बड़े और स्थापित प्रकाशन के स्टाल पर. वहां जाकर उसी प्रकाशन के प्रकाशित एक यात्रा वृतांत  के बारे में पूछा जो हमें वहां कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. नाम सुन कर वहां खड़े महाशय बंगले झाँकने लगे. हमने सोचा हो सकता है यहाँ किताबें लगाने का भी उनका अपना कोई क्रायटेरिया हो सो पूछ लिया, “क्या सभी किताबें नहीं लगाते हैं आप ?” वे तुरंत तुनक कर बोले – नहीं मैंम सभी लगाते हैं. फिर उन्होंने एक महोदय की तरफ इशारा करते हुए कहा आप उनसे पूछिए उन्हें सब पता है वे आपको बता सकेंगे। परन्तु वे तथाकथित उनके सर्वज्ञाता महोदय किताब के बारे में तो क्या,पूछे जाने पर अपना नाम तक बताने के काबिल भी नजर नहीं आ रहे थे. उन्होंने  भी न में सिरा हिला दिया और हम वहां काउंटर पर उपस्थित सज्जन को एक छोटा सा लेक्चर देकर बाहर निकल आये. आखिर और हम कर भी क्या सकते थे, वे प्रकाशक हैं. क्या छापना है और क्या लगाना है उनकी मर्जी पर है, मालिक हैं वे. 

थोड़ी क्षुब्धता  से हम बाहर निकले तो एक स्टाल पर लगे टीवी पर गीताश्री (पत्रिका बिंदिया की संपादक) कुछ बोलती नजर आईं. हम ठिठके। तभी बड़े उत्साह से वहां मौजूद एक सज्जन ने बिंदिया का सितम्बर अंक हमें पकड़ा दिया- बोले मैम १० % छूट है सबके लिए, हमें उनके इस उत्साह पर आनंद आया तो मजाक में पूछ लिया “और लेखकों के लिए ?” वे फिर उसी उत्साह से बोले उनके लिए एक्स्ट्रा डिस्काउंट मैम. फिर नाम जानने  के बाद न सिर्फ उन्होंने मेरी “शुक्रवार पत्रिका की खरीद पर एक्स्ट्रा डिस्काउंट दिया बल्कि बिंदिया का ताज़ा अंक भी निशुक्ल थमा दिया जिसमें मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई है. यही नहीं बल्कि बड़े मान के साथ थोड़ी देर वहां बैठने के लिए और चाय , ठंडा पीने की भी गुजारिश की. हालाँकि उनके इस मान से कोई हमारा दो किलो खून नहीं बढना था हाँ थोडा सुकून का एहसास अवश्य हुआ कि चलो कोई तो है जो अपने लेखकों की इज्जत करता है फिर बेशक लेखक मेरे जैसे तुच्छ ही क्यों न हो.

अब इस कुछ खट्टे मीठे से अनुभव के बाद हमें कुछ पीने की तलब होने लगी. वैसे भी अभी वहीँ हमें उन दो लोगों का इंतज़ार करना था जिन्होंने वहां मिलने का वादा किया था. सो वहां मौजूद कोस्टा से कॉफ़ी लेकर हम वहीँ परिसर में पसर गए और कॉफ़ी चर्चा में मशगूल हो गए, 

इन्तजार के दौरान कॉफ़ी ख़तम हो गई तो फोटो ही खींच ली जाए.

इसी  दौरान एक एक करके दोनों माफी कॉल आ गईं, हमारे दोनों ही मित्रों ने “वर्क कम फर्स्ट” की पालिसी अपनाई थी. सो हमने भी समझदार बनते हुए उन्हें “पहले काम” की हिदायत दे डाली. इसके बाद वहां तो कुछ और देखने, घूमने को बचा नहीं था अत: भोजन के जुगाड़ में हमने परिसर के बाहर फ़ूड कोर्ट की तरफ रुख कर लिया, और एक बार फिर छोले भठूरे के साथ दुनिया की चर्चा में समा गये.

ये सारा खाना मेरे लिए नहीं है, इसमें से आधा हिस्सा उसका है जो तस्वीर ले रहा है (सूचनार्थ)

दिन अभी काफी बाकी था और अभिषेक से भी हमने औपचारिकता वश पूछ लिया था कि उसे कोई जरूरी काम तो नहीं अब ? बेचारा जब तक कहता- नहीं दीदी नहीं,  तब तक हमने अपने आप ही सुन लिया और कुछ आसपास का इलाका देखने की ठान ली.

वह आसपास क्या था इसका किस्सा अगली किश्त में जल्दी ही :)।