Thursday, July 25, 2013

"मन के प्रतिबिम्ब" और छुट्टियां ...

लन्दन में मौसम की खूबसूरती अपने चरम पर है , स्कूलों की छुट्टियां शुरू हो गई हैं और नया सत्र सितम्बर से आरम्भ होने वाला है. ऐसे में हम जैसे के माता पिता के लिए (जिनके बच्चे स्कूल जाते हैं ) यही समय होता है जो भारत जाकर इन छुट्टियों का सदुपयोग कर आयें. तो हम जा रहे हैं एक महीने की छुट्टी पर. मुंबई, गोवा, दिल्ली आदि जगह पर घूमते हुए आते हैं वापस, जल्दी ही, यहीं , इसी जगह 🙂

हाँ जाते जाते आप सब के साथ एक सूचना साझा करनी है.
कविता लिखना मेरा शौक नहीं, मेरी जरुरत है. और यह काव्य संग्रह है  मेरे 

मनोभावों का प्रतिबिम्ब। यह सपना है मेरे स्वर्गीय पिता का जो तब से उनकी पलकों में पला जब १२ वर्ष की अवस्था में मेरी पहली ही रचना एक स्थानीय पत्रिका ने छापी। तब से कवितायेँ पहले मेरी डायरी में, फिर ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं से होती हुई आज इस काव्य संग्रह तक पहुँच गईं हैं.  


आज सुभांजलि प्रकाशन के सौजन्य से यह काव्य संकलन आप सबके सुपुर्द है. 

इसी मौके पर मैं उन सभी मित्रों, पाठकों और गुरुजनों का आभार प्रकट करना चाहती हूँ, जिन्होंने मेरी कविताओं को पढ़ा, सराहा, अपनी अमूल्य प्रतिक्रया दी और मार्गदर्शन भी किया। आपसब का यही स्नेह मुझे निरंतर लिखने के लिए प्रेरित करता है. 

आप यह पुस्तक खरीदने के लिए निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं. पुस्तक का मूल्य हार्ड बाउंड 170/- और पेपर बैक 100/- रु है जो क्रमश: 10% और 20% की छूट पर उपलब्ध है. 
पुस्तक आपको VPP द्वारा भेजी जाएगी. निकट भविष्य में फ्लिप्कार्ट पर भी आने की संभावना है.

Subhanjali Prakashan (https://www.facebook.com/subhanjali.prakashan?fref=ts )28/11, Ajitganj Colony, T. P. Nagar, Kanpur-208023, 

Email : subhanjaliprakashan@gmail.com
Mobile : 09452920080



ओके टाटा, नमस्कार . मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद. 🙂

Thursday, July 18, 2013

हमारा धर्म और हम.

सामान्यत: मैं धर्म से जुड़े किसी भी मुद्दे पर लिखने से बचती हूँ। क्योंकि धर्म का मतलब सिर्फ और सिर्फ साम्प्रदायिकता फैलाना ही रह गया है। या फिर उसके नाम पर बे वजह एक धर्म को बेचारा बनाकर वोट कमाना या फिर खुद को धर्म निरपेक्ष साबित करना। परन्तु आजकल जिस तरह मीडिया में हिन्दू मुस्लिम राग चला हुआ है मुझे कुछ अनुभव याद आ रहे हैं और उन्हें लिखे बिना मुझसे रहा नहीं जा रहा . 

बात सन 1998 की है जब हम पहली बार लन्दन आये थे। नवरात्रों का मौसम था, हालाँकि किसी भी तरह के पूजा पाठ में मेरी दिलचस्पी न के बराबर है परन्तु हर तरह के त्योहार मनाने का मुझे बहुत शौक है और जहाँ तक संभव हो सके मैं उन्हें परंपरागत रूप में मनाने की कोशिश किया करती हूँ। अत: नवरात्रों में भी “कन्या पूजन” मुझे करना था। नए होने के कारण किसी से जान पहचान नहीं थी, सिवाय हमारे ही घर के नीचे रहने वाले एक हम उम्र पाकिस्तानी परिवार के, वह लड़की मुश्किल से आठवीं पास थी, पर उर्दू में शायरी लिखा करती थी और शायद यही वजह थी कि हम दोनों में जल्दी ही अच्छी बनने लगी थी। उसकी भी हमारी बेटी के बराबर ही एक बेटी थी। और पास ही रहती थी उसकी एक बहन और उसकी भी एक बेटी। अत: मैंने बिना कुछ भी सोच विचार किये झट से उसे और उसकी बहन को न्योता दे दिया कि मुझे पूजा करनी है अत: वह फलाने दिन अपनी बच्चियों को लेकर मेरे घर आ जाये। उसने भी झट से न्योता मान लिया और अष्टमी के दिन वे दोनों बहने अपनी बच्चियों को सजा संवार कर मेरे घर ले आईं। मैं उन बच्चियों को बिठा कर सारी पूजा करती रही और वे दोनों बड़े चाव और उत्साह से मेरी गतिविधियाँ देखती रहीं . फिर कुछ दिन बाद ही ईद आई और वह मेरी बेटी को ईदी देकर गई। 
आज कई साल बीत गए। हम सारी दुनिया घूम कर इत्तफाक से फिर लन्दन आ गए। पर अब हमारे घर दूर दूर हैं, फिर भी उसके बच्चों के लिए मेरी ईदी हमेशा उसके यहाँ पहुँच जाती है।
मेरे दिल ओ दिमाग के किसी कोने में भी यह बात नहीं आई कि एक हिन्दू पूजा में , मैं एक मुस्लिम परिवार की बच्चियों को बुला रही हूँ, और न यह कि वह भी सामने से मना कर सकती थी। परन्तु यह एहसास मुझे इसके एक साल बाद ही तब हुआ जब यही नवरात्रे हमें अमेरिका में पड़े। वहां एक ही कैम्पस में, एक ही कम्पनी के बहुत से लोग रहा करते थे और उन्हीं में शामिल था एक भारतीय मुस्लिम परिवार बड़े ओहदे पर और उच्चशिक्षित।उनकी भी छोटी छोटी दो बच्चियां थीं।
अत: कन्या पूजन के लिए मैंने बाकी बच्चियों के साथ उन्हें भी आमंत्रित किया . तो उनका टका सा जबाब आया – “नहीं ये आपकी पूजा है न , इसमें हम अपनी बच्चियों को नहीं भेज सकते”। मुझे लगा शायद उन्होंने कुछ गलत समझा है, हो सकता है वो कुछ टोना टोटका सा समझ रही हों , मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की , कि  “अरे ऐसी कोई पूजा नहीं करती मैं,  बच्चियां आएँगी उन्हें खाना खिलाऊँगी, कुछ उपहार दूंगी बस। एक उत्सव है और कुछ नहीं”। परन्तु मैं गलत थी . उनका जबाब अब भी यही था – कि  “है तो पूजा ही न आपकी, हम नहीं शामिल हो सकते सॉरी”। 
खैर बात हमें समझ में आ गई। कुछ ही दिन बाद दिवाली थी । हम सब लोगों ने पॉट लक (जिसमें सब प्रतिभागी एक एक खाने की चीज बना कर लाते हैं) के माध्यम से दिवाली का त्योहार एक साथ मनाने का सोचा और मिल बैठ कर इस दिवाली पार्टी की रूपरेखा बनाने लगे। तभी हममें से एक ने, उसी मुस्लिम महिला से पूछा – आप आएँगी न ?क्या बना कर लायेंगीं? वह बोलीं, हाँ बताती हूँ। 
अब मैंने उन्हें यह बताना उचित समझा कि – हम इस पार्टी में लक्ष्मी पूजा और आरती भी करेंगे। तो उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी ? वे तुरंत बोलीं – “नहीं .. फिर हम नहीं आयेंगे। अगर आप लोग पूजा भी करोगे तो”।
बात उनकी धार्मिक भावनाओं की थी तो हममें से कोई कुछ नहीं बोला और हमने अपने ढंग से दिवाली मना ली।
कुछ समय बाद पता चला कि उन्हें इस बात का बुरा लगा था कि उन्हें दिवाली पार्टी में शामिल नहीं किया गया।
यह बात आजतक मेरी समझ से बाहर है कि आखिर उन्हें कैसे और क्यों बुरा लगा, जबकि बुरा तो शायद हमें लगना चाहिए था। 
परन्तु एक बात जरूर समझ में आई कि किसी की भी सोच का किसी धर्म से कतई कोई ताल्लुक नहीं होता। किसी का अल्पसंख्यक हो जाना यह बिलकुल भी नहीं जताता कि उसके साथ अन्याय होता है। हर जगह, हर धर्म में अलग अलग तरह के लोग होते हैं, उनसे किसी धर्म विशेष की सोच को नहीं जोड़ा जा सकता।

Sunday, July 14, 2013

बॉसिज्म..

 “एक अनुचित और नियम के विरुद्ध स्थानांतरण में,मैंने शासन के कड़े निर्देश का उल्लेख करते हुये ऐसा करने से मना कर दिया। तो महाशय जी ने कलेक्टर से दबाव डलवाया तो मैंने डाँट खाने के बाद लिखा – “कलेक्टर के मौखिक निर्देश के अनुपालन में …. अब मुझे पता है फिर मुझे बहुत बुरी लताड़ पढ़ने वाली है. यहाँ जीना है तो, न चाहते हुए भी बॉस की उचित अनुचित सब बातें माननी ही होती हैं.”

एक दिन एक मित्र ने अपनी व्यथा मुझसे उपरोक्त शब्दों में जाहिर की, मेरा मन उसी दिन से इस झंझावत में उलझा हुआ था, मैं इसपर कुछ लिखना चाहती थी। परन्तु मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस बॉसिज्म की उत्पत्ति का स्रोत कहाँ है। भारत में तो इसका यह रूप कभी देखने को नहीं मिला करता था। हाँ राजा महाराजाओं के राज्य में, उनका हुकुम चला करता था।परन्तु आम लोगों के बीच यह बॉस संस्कृति शायद नहीं थी।   ज़ाहिर है  कि इसका आगमन भी हमारे यहाँ पश्चिम से आये महानुभावों के साथ ही हुआ होगा। कुछ दिमागी घोड़े दौड़ाये और खोजबीन की तो पता लगा कि इसके बीज अमरीका में उगे थे. वहां बॉसिज्म की परिभाषा कुछ इस तरह इजाद हुई थी – A situation in which a political party is controlled by party managers/ bosses.यानि विशुद्ध राजनैतिक। 

यहीं से इसके बीज उड़ते हुए बाकी दुनिया में फैले होंगे और फिर अंग्रेजों के साथ उनकी “सर” संस्कृति के द्वारा इसने हमारे देश में घुसपैठ की होगी। परन्तु फिर भी काफी हद  तक यह शक्ति या संस्कृति राजनैतिक क्षेत्रों तक ही सिमित थी। फिर इसने सरकारी क्षेत्रों में प्रवेश किया और न जाने कब और कैसे धीरे धीरे जीवन के बाकी क्षेत्रों में भी इसका पदार्पण  होता चला गया।  आलम यह कि जीवन के हर पहलू में यह शब्द इस तरह समा गया कि हर व्यक्ति किसी न किसी का बॉस बनने की इच्छा करने लगा और यह बॉसी आचरण इस कदर फैला कि अपना मूल अर्थ ही खो बैठा। राजनैतिक अधिकार और पावर से निकल कर इसने तानाशाही और मन्युप्लेशन का सा रूप ले लिया।

इसके साथ ही “बॉस इज ऑलवेज राईट” इस सूक्ति का जन्म हो गया. परन्तु बॉस या सर इस शब्द ने इतनी लम्बी यात्रा या इतना विकास शायद सिर्फ भारत में ही किया क्योंकि जहां से यह पनपा था वहां तो प्रत्यक्ष रूप से यह दिखाई ही नहीं पड़ता। उदाहरण के तौर पर – यहाँ के लोग जब भारत से आये कर्मचारियों को बॉस के नाम से थरथराते देखते हैं तो हँसते हैं। उनका कहना होता है कि भारत में बॉस के नाम पर उन्हें वे वजह पावर  दिखाने का शिगूफा है , और लोग उसका पालन भी करते हैं। परन्तु यहाँ बॉस कोई हौवा नहीं आपका ही एक साथी है।
पश्चिमी देशों में मानव अधिकारों के उदय के साथ ही इस शब्द का भी प्रभाव कम हो गया। जहां राजनीती में प्रजातंत्र ने अपनी जगह बनाई वहीं कॉपरेट जगत में एक नए स्लोगन ने जन्म लिया  – आप कंपनी के लिए नहीं, बल्कि कम्पनी के साथ काम करते हैं” यहाँ कोई बॉस नहीं होता सब कुलीग होते हैं। यूं अधिकारिक तौर पर हर कर्मचारी के ऊपर एक कर्मचारी होता है जिसे उससे अधिक अधिकार या पॉवर प्राप्त होता है। परन्तु उनका उपयोग वह अपने पदहस्त किसी कर्मचारी से अपनी किसी भी जायज या नाजायज मांग को पूरा करवाने में नहीं कर सकता।

हालाँकि अप्रत्यक्ष रूप से बॉसिज्म हमेशा चलता रहा परन्तु परेशानी की स्थिति में इसके निराकरण का अधिकार हमेशा कर्मचारियों के पास होता है।इसका जितना परेशानी भरा रूप भारत में देखने को मिलता उन पश्चिमी देशों में नहीं मिलता जहां से इसका जन्म हुआ। 
उदाहरण के तौर पर अभी कुछ दिन पहले ही मेरी एक महिला मित्र जो भारत में ही एक कम्पनी में काम करती हैं।अपने बॉस से बेहद परेशान थीं। वह अपने पद के अधिकारों का प्रयोग अपने गलत इरादों को पूरा करने के लिए कर रहा था। और इनकार की दशा में उसे वेवजह मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी। वह इन हालातों से लड़ रही थी, परन्तु इससे छुटकारे के लिए उसके हिसाब से सिर्फ दो ही  रास्ते थे, या तो वह उस बॉस की बातें मान ले या फिर वह नौकरी ही छोड़ दे। क्योंकि उस छोटी सी कम्पनी में उसकी शिकायत करने से भी कुछ नहीं होने वाला।

उसकी इस बात पर मुझे कुछ साल पहले लन्दन में ही एक भारतीय कम्पनी में हुआ एक वाकया याद आया। जहाँ कंपनी की एक महिला कर्मचारी ने अपने तथाकथित एक बॉस की शिकायत एच आर में की थी कि वह बात करने के दौरान उसे वेवजह स्पर्श कर रहा था। इस बात के कई पहलू हो सकते थे। यह लड़की की गलतफहमी भी हो सकती थी। परन्तु शिकायत को गंभीरता से लिया गया और उस बॉस से न सिर्फ लिखित में माफी नामा लिया गया बल्कि उसका उस साल का अप्रेजल भी खराब किया गया और उसे पदावनति कर वापस भारत भेज दिया गया।

ऐसे में जब एक भारतीय मित्र यह कहते हैं कि “रोज बॉस की डांट खाने की तो आदत पड़ गई है बस इतनी ख्वाइश है कि कुत्ते की तरह न लताड़ा जाए” तो मैं सोचती हूँ आखिर क्यों हम ही अब तक ढो रहे हैं यह बॉसिज्म ???


Tuesday, July 9, 2013

नफरत ऐसी भी.. :)

मुझे नफरत है 

नम आँखों से मुस्कुराने वालों से 

मुझे नफरत है 
दिल के छाले छिपा जाने वालों से।

मुझे नफरत है 
ऍफ़ बी पर गोलगप्पे से सजी प्लेट की 
तस्वीर लगाने वालों से 
नफरत है मुझे 
रोजाना चाट उड़ाने वालों से। 
मुझे नफरत उनसे भी है 
जो पानसिंह तोमर देखने के बाद 
नुक्कड़ की दुकान पर 
दही – गुलाब जामुन खाते हैं 
और उनसे भी, 
जो आधी रात उठकर मैगी बनाते हैं। .
मुझे नफरत है 
दोस्तों के साथ आवारा गर्दी करने वालों से 
मुझे नफरत है 
सुबह ४ बजे तक दोस्तों से गपियाने वालों से।
हाँ मुझे नफरत है 
दोस्त की बरात में नाचने वालों से 
और मुझे नफरत है 
टोली बनाकर फिल्म देखने वालों से.
हालाँकि मुझे नफरत है 
अपनी मजबूरी को नफरत बताने से मगर,
फिर भी,
मुझे नफरत है…. नफरत है ….नफरत है … 🙂 🙂

Missing India and Old friends 🙁 🙁