Friday, June 28, 2013

कड़वा सच ...

कल यहाँ (लन्दन में ) बी बी सी 3 पर भारत में हुए दामिनी हादसे और उसके प्रभाव पर एक कार्यक्रम दिखाया जा रहा था. जिसमें भारतीय मूल की एक ब्रिटिश लड़की नेट आदि पर उस हादसे को देखकर इतना विचलित होती है कि  वह खुद भारत जाती है, वहां लड़कियों की स्थिति का जायजा लेने। जाने से पहले वह अपनी अलमारी खोल कर ले जाने के लिए कपड़े  देख रही है और सामान्यत: पहने जाने वाले पश्चिमी परिधान भी उसे भारत में पहनने के लिए उपयुक्त नहीं लग रहे। 


वहाँ दिल्ली में उसकी दिल्ली में ही रहने वाली एक मित्र उसे बाजार में सुरक्षित चलने के तरीके समझाती है, और बाताती है कि कैसे वहाँ पुरुष उसे अनुचित जगह छूने की उससे भिड़ने की कोशिश करेंगे, और कैसे वहाँ लड़कियों को देखने वाला हर लड़का आँखों से ही रेप करने पर उतारू रहता है। 


दिल्ली में उसके माध्यम से दामिनी केस की पूरी डिटेल के साथ साथ, चुन चुन कर ऐसे ऐसे हादसों को दिखाया/ बताया गया जो बेशक पूरी तरह सत्य थे। परन्तु यदि चुनने पर ही आ जाया जाए तो ऐसे अपराध या शायद इससे भी खतरनाक, घृणास्पद हादसे दुनिया के हर देश में पाए जायेंगे। लन्दन में भी आये दिन सडकों और घरों में हुईं खौफनाक वारदातों की खबरे आती रहती हैं।

भारत के वर्तमान हालातों पर बने इस कार्यक्रम को देख कर लगा जैसे, बात किसी लोकतान्त्रिक देश की नहीं,बल्कि असभ्य, अनपढ़, अव्यवस्थित समाज से युक्त एक ऐसे देश की हो रही है जहाँ के निवासियों के लिए लडकी किसी दुसरे ग्रह से आई कोई चीज़ है,जिसे उन्होंने कभी देखा, छुआ नहीं और उसे सड़क पर देखते ही वे झपटा मारने को बेताब हो जाते हैं। और यह सब देख कर भी कोई कुछ नहीं करता।

इसमें कोई शक नहीं कि दामिनी केस बाद विदेशों में भारत की छवि एकदम से बेहद खराब हुई है। और प्रत्यक्ष पीड़ितों से साक्षात्कार और स्वंय उस लड़की के भारत में हुए अनुभव के द्वारा जो कुछ भी उस कार्यक्रम में दिखाया गया सच ही था। 

परन्तु एक भारतीय होने के नाते अपने देश के प्रति मुझसे यह कड़वा सच बर्दाश्त नहीं हो रहा। और मुझे इस कार्यक्रम के लिए बी बी सी पर गुस्सा आ रहा है  🙁
Feeling ashamed, angry, sad and helpless at the same time.

Monday, June 17, 2013

गृह विज्ञान ..किसके लिए ?

एक दिन स्कूल से आकर एक बच्ची ने कहा – मुझे एक साफ़ कपड़ा चाहिए हमें डी टी (डिजाइन एंड टेक्नोलॉजी) में शॉर्ट्स सिलने हैं। वह तभी ही प्राइमरी स्कूल से सेकेंडरी में आई थी  सातवीं क्लास में। उसकी बात सुनते ही, बचपन से पनपी मानसिकता और पूर्वाग्रहों से युक्त मैं ..तुरंत पूछा, अच्छा ? फिर क्लास के लड़के उस पीरियड में क्या करेंगे ? अब चौंकने की बारी उस बच्ची की थी , बोली अरे जो हम करेंगे वही वे भी करेंगे , वो भी शॉर्ट्स सिलेंगे। 


अब मैं अपने अतीत से वर्तमान में आई। हाँ ठीक तो है .जब क्लास एक , टीचर एक , तो पाठ अलग अलग क्यों भला। 
उसके कुछ दिन बाद वह एक शॉर्ट्स बनाकर घर लाई, जिसमें उन्हें कटिंग, नाप और सिलाई के अलावा। कच्चा टांका करना , तुरपन करना, बटन लगाना आदि सभी सिखाया गया था। और यही नहीं “फ़ूड एवं टेक्नोलॉजी” एक विषय के अंतर्गत हर सप्ताह एक खाद्य पदार्थ भी बनाना सिखाया जाता था जिसकी सामग्री घर से मंगवाई जाती और छीलने , काटने से लेकर बेक करने , उबालने ,सेंकने ,सजाने और उस डिश की न्यूट्रीशन वैल्यू तक सारे काम सिखाये जाते हैं। फिर उनपर नंबर भी दिए जाते हैं। इस तरह पूरी बेसिक शिक्षा के आधार पर २ साल में उन्हें, एक जिम्मेदार नागरिक और बेहतर इंसानी जिन्दगी से जुड़े सारे काम जैसे – सूप, ब्रेड, पिज़्ज़ा, केक आदि बनाना, बेसिक सिलाई , छोटी मोटी रिपेयर,और बच्चों, बुजुर्गों की सेहत की देखभाल की शिक्षा दे दी जाती है। जिससे वह अपने काम स्वयं करने में तो सक्षम हो ही सकें, आगे अपनी रूचि के मुताबिक कैरियर चुनने में भी उन्हें मदद मिल सके। और यह काम क्लास के सभी बच्चे एक ही तरह से करते हैं फिर चाहे वे लड़के हों या लडकियां। 



मुझे याद आया। हमारे भी स्कूल में होम साइंस नाम का एक विषय हुआ करता था। जिसमें यह सब सिखाया जाता था। बस फर्क इतना था कि वह विषय सिर्फ लड़कियों के लिए था। लड़कों के लिए नहीं। न तो आठवीं तक अनिवार्य विषय के रूप में, और न ही उसके बाद वैकल्पिक या इच्छित विषय के रूप में। 
यानि घर समाज तो छोडो, शिक्षा के समान अवसर और समान हक़ देने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था भी लड़कों और लड़कियों में यह भेद करती थी। और बड़ी आसानी से मान और समझ लिया गया था कि घर चलाना , बच्चे पालना , खाना बनाना या सिलाई  कढ़ाई  करना सिर्फ लड़कियों का काम है। 

हालाँकि तब भी घरों में बेटा और बेटी की परवरिश में भेद करना बहुत कम हो गया था। खाने में लड़कों को पौष्टिकऔर लड़कियों को कुछ भी बचा- खुचा खाना देना सिर्फ दादी नानी की कहानियों में ही दिखाई पड़ता था। परन्तु समाज और व्यवस्था में वह बहुत ही आसानी से ऐसे घुसा हुआ था कि कभी किसी को सवाल तक उठाने की जरुरत नहीं महसूस होती थी। 

इसी तरह  आठवीं के बाद (यू पी बोर्ड में  आठवीं के बाद ही तब विषयों का विभाजन होता था/है ) जब कला और विज्ञान वर्गों के विभाजन की बात आई तो बिना एक बार भी विचारे हमने कला वर्ग चुन लिया। क्योंकि सुना था कि विज्ञान लेने से अगले साल मेंढक काटना पड़ेगा, और जिस जीव को देखने भर से अपनी रुह फ़ना होती हो उसे पकड़ कर उसकी शल्य क्रिया की बात अपने सबसे भयंकर सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी। परन्तु हमारी गणित की अध्यापिका को मेरा फैसला नहीं सुहाया और उन्होंने बुलाकर कहा “बाकी फैसला तुम्हारा है परन्तु तुम्हारा गणित अच्छा है अत: तुम्हें विज्ञान वर्ग लेना चाहिए”। अब असमंजस की स्थिति हमारे लिए थी। मैं  गणित लेना चाहती थी, परन्तु उसके लिए विज्ञान वर्ग लेना जरूरी था, और विज्ञान लिया तो मेंढक काटना जरूरी था। थोड़े हाथ पैर इधर उधर मारे तो पता चला कि , कला वर्ग के साथ भी कुछ स्कूलों में गणित विषय का  ऑप्शन है। जब यह मालूम किया ज्ञान लेकर अध्यापिका के पास पहुंचे, तो पता लगा कि यह  ऑप्शन  सिर्फ लड़कों और लड़कों के स्कूल के लिए है। क्योंकि वहां होम साइंस विषय नहीं है . अत: इसके बदले वह कला वर्ग में होते हुए भी गणित का चुनाव कर सकते हैं। जिससे आगे जाकर वह चाहें तो कॉमर्स में अपना कैरियर बना सकें। गुस्सा तो बहुत आया। पर कर कुछ नहीं पाए, मेंढक   से अपने डर से पार पाया नहीं गया तो कला वर्ग में ख़ुशी ख़ुशी रम गए. परन्तु बाद में जब होम साइंस लेकर आगे पढने के लिए दूसरे  किसी  विश्व विद्यालय में पता किया तो पता चला कि आगे इस विषय में सिर्फ विज्ञान वर्ग की छात्राओं को ही प्रवेश मिलता है, क्योंकि यह होम “साइंस ” है होम “आर्ट” नहीं …अजीब  औ  गरीब बवाल था। मुझे पता नही कि तब भी वह लड़कों के लिए उपलब्ध था या नहीं। पर लड़कियों के लिए ज्यादती थी. यानि कि जबरदस्ती उन्हें वह विषय पढाया जाता था , जिसे कि बाद में वह लेकर आगे पढ़ कर उसमें कैरियर  नहीं बना सकतीं थीं.बस  घरेलू काम काज के लिए यह विषय उनके लिए अनिवार्य था।

उस समय न तो इतनी समझ थी न इतना हौसला कि इस मुद्दे पर लड़ सकते अत: घर , दोस्तों में ही गुस्सा निकाल कर रह गए। 
परन्तु सवाल वहीं के वहीं रह गए – कि आखिर जो विषय विज्ञान के अंतर्गत आता है, जिसमें घर परिवार की देख भाल , व्यवस्था, सेहत , बुजुर्गों की देखभाल , पौष्टिक खाद्य पदार्थ , सफाई , वगैरह वगैरह जैसे जीवन के लिए अनिवार्य विषय सिखाये -पढाये जाते हैं वह सिर्फ लड़कियों के लिए ही अनिवार्य क्यों है ? क्या यह जिम्मेदारी समाज की बाकी आधी  जनसंख्या की नहीं ? क्या उन्हें इस विषय की बेसिक जानकारी नहीं होनी चाहिए? फिर आखिर क्यों उनके लिए अनिवार्य तो छोडिये , एक वैकल्पिक विषय के रूप में भी यह ऑप्शन नहीं होता।

घर , समाज , परिवार की तो बात ही क्या , सामान अधिकारों की शिक्षा देने वाले हमारे शिक्षा संस्थान तक इस मामले में लड़का और लड़की में मूल भेदभाव करते हैं। और शुरू से ही वह बच्चों में इस आधार पर उनके कामों का विभाजन कर देते हैं। फिर क्यों दोष दें हम समाज के उन ठेकेदारों को को जो कहते हैं कि “लड़की हो , ज्यादा उड़ो मत , घर में बैठो और घर बार  संभालो, हमारे लिए खाना बनाओ और बच्चे पालो। यह तुम्हारा काम है।
फिर क्यों दोष दें हम उन लड़कों को जो शादी के लिए अब भी “गृह कार्य में निपुण लड़की” का विज्ञापन देते है। आखिर इस भेदभाव का बीज तो उनमें बचपन से ही डाल दिया जाता है। 

मुझे नहीं पता , आज भी किसी स्कूल,कॉलेज या  विश्व विद्यालय में यह विषय लड़कों के लिए खुला है या नहीं, या कहीं है भी तो, कोई लड़का इस विषय को लेकर पढता होगा इसमें मुझे संदेह है। परन्तु इतना अवश्य है कि यदि हमें एक सभ्य और पढ़े लिखे समाज का गठन करना है तो एक बेसिक और अनिवार्य विषय के तहत इस विषय को लड़के और लड़कियों को सामान रूप से पढाया जाना चाहिए।

Monday, June 10, 2013

ठौर कहाँ ...

उसे इंडिया वापस जाना है.


क्योंकि यहाँ उसे घर साफ़ करना पड़ता है , 
बर्तन भी धोने होते हैं , 
खाना बनाना पड़ता है. 
बच्चे को खिलाने के लिए आया यहाँ नहीं आती. 

जब उसे जुखाम हो जाए तो उसकी माँ नहीं आ सकती .
 फिल्मो में होली,दिवाली के दृश्य देखकर उसे हूक उठती है. कि उसका बच्चा वह मस्ती नहीं कर पाता. 
उसे शिकायत है कि उसका बच्चा हिंदी नहीं बोलता. 
यहाँ से जब वह फ़ोन पर बात करता है तो उसकी अंग्रेजी का भी अनुवाद करके उसे अपनी माँ को बताना पड़ता है. 
कोई रिश्तेदार यहाँ नहीं हैं. 
छुट्टी में जाओ तो समय कितना कम होता है. कितनी खूबसूरत जगह हैं इंडिया में , देखने का समय ही नहीं मिलता. 
वहां उसके भाई के यहाँ दो – दो काम वालियां आती हैं, और कुक अलग. 
भाभी ठाठ से रहती है. 
उसके बेटे को खाना खिलाते वक़्त आसपास ४ लोग इकठ्ठा हो जाते हैं.
यहाँ दो कमरों के फ़्लैट में उसकी जिन्दगी सिकुड़ कर रह गई है .

वहां जाकर वो कहेगी… 

उफ़ कितनी गर्मी है यहाँ , 
बिजली नहीं आती, 
काम वाली ने नाक में दम कर दिया है, 
बच्चा है कि कितने भी अच्छे स्कूल में डाल दो 
अंग्रेजी ढंग से नहीं बोलता,
बेकार के त्योहारों में पैसा, समय बर्बाद करते हैं, 
 रिश्तेदारों ने जीना हराम कर दिया है , 
कितना सुकून है तुम्हें वहां , न कोई किट किट न पिट पिट.
अपनी मर्जी के मालिक. 
पूरा यूरोप, अमेरिका घूमो, यहाँ तो मुल्ला की दौड़ नैनीताल, मसूरी तक. उसके लिए भी कितना सोचना पड़ता है .
जिन्दगी जंजाल है.

और मुझे ख़याल आ रहा था हाल में देखी एक फिल्म का संवाद – कितना भी, सब पाने के लिए यहाँ वहां भागो कुछ न कुछ तो छूट ही जायेगा. बेहतर है, जहाँ जिस वक़्त हो वहां खुश रहो.

Tuesday, June 4, 2013

मस्ती से भरपूर.फिल्म "यह जवानी है दीवानी".

मैं रणवीर कपूर की फैन नहीं हूँ , न दीपिका मुझे सुहाती है , और कल्कि तो मुझसे “जिन्दगी न मिलेगी दुबारा” में भी नहीं झेली गई. फिल्म का शीर्षक भी बड़ा घटिया सा लग रहा था। फिर भी लन्दन में यदा कदा मिलने वाला एक “सनी सन्डे”,कुछ दोस्तों के कहने पर हमने इन तीनो की फिल्म यह जवानी है दीवानी को समर्पित करने का निश्चय किया . दोस्ती का यही जज़्बा अगर आपके अन्दर भी हो तो यह फिल्म आप भी जरूर देख आइये.


कहने को करन जौहर द्वारा निर्मित और अयान मुखर्जी द्वारा निर्देशित इस फिल्म में कहानी जैसा कुछ भी नहीं. परन्तु करन जौहर का ख़ूबसूरती से दृश्यों को फिल्माने का स्किल और अयान मुखर्जी की “वेक अप सिद्ध” वाली इंटेलीजेन्स और सहजता इस फिल्म में भी साफ़ झलकती है।
छोटे छोटे रोजमर्रा की युवाओं की जिन्दगी से जुड़े चुटीले से संवादों से भरी यह फिल्म इस सहजता और मस्ती से आगे बढ़ती जाती है कि कहीं भी बोझिलता नहीं आने देती।

फिल्म में, बनी (रणवीर कपूर) एक लापरवाह , मस्त सा लड़का है जिसका सपना, दुनिया का एक एक कोना देख लेने का है। उसके दो खास दोस्त हैं अदिति (कल्कि) और अवि (आदित्य रॉय कपूर) अदिति, अवि से प्रेम करती है पर कभी बताती नहीं . ये तीनो घूमने मनाली की पहाड़ियों पर जाते हैं .उधर नैना एक पढ़ाकू लड़की है , मेडिकल की छात्रा है और इन तीनो की स्कूल मेट है। वह भी अपनी पढाई से ब्रेक के लिए इत्तेफाक से मनाली के उसी ट्रिप पर जाती है। चारो दोस्त मिलते हैं खूब मस्ती करते हैं। और बहुत अलग अलग होते हुए भी बनी और नैना को एक दूसरे से प्यार हो जाता है पर कोई कुछ नहीं कहता। तभी एक स्कॉलरशिप पर बनी न्यू यॉर्क चला जाता है। आठ साल बाद अदिति की शादी में फिर सब मिलते हैं और आखिर में बनी, नैना के साथ रहने का फैसला कर लेता है। इस तरह से फिल्म का हैप्पी एंड हो जाता है।

इन दोस्तों के मिलने , बिछुड़ने और फिर मिलने की छोटी सी , सामान्य सी कहानी में अगर कोई फेक्टर है जो फिल्म में बांधे रखता है वह है दोस्ती, दोस्तों के साथ मस्ती, सरल चुटीले संवाद और नेचुरल अभिनय।

रणवीर कपूर इस तरह के लापरवाह से चरित्र के लिए एकदम सही चुनाव रहते हैं। जिस सहजता से वह चलताऊ से संवाद भी अपने अंदाज से बोलते हैं हंसी आ ही जाती है। दीपिका का चरित्र फिल्म में एक सरल , पढ़ाकू टाइप लड़की का है उन्होंने भी अपने काम के साथ पूरा न्याय किया है . सबसे ज्यादा चकित और आकर्षित करती है कल्कि। उनका एक एक भाव और संवाद अदायगी काबिले तारीफ है।

अरसे बाद एक छोटी सी भूमिका में फारुख शेख ने अपनी छाप छोड़ी है और एक आइटम सॉंग से फिर से हिंदी फिल्मों में आकर माधुरी दीक्षित ने भी अपना पूरा जादू बिखेरा है. 

फिल्म में संगीत प्रीतम का है और गीतों के बोल अमिताभ भट्टाचार्य के हैं , जिसमें से बलम पिचकारी , और बद्द्तमीज दिल काफी प्रचलित हो चुके हैं, काफी कैची से हैं और स्क्रीन पर देखने में भी अच्छे लगते हैं।
फिल्म के शुरू में ही माधुरी दीक्षित का आइटम सॉंग है, जिसमें वे जितनी खूबसूरत लगी हैं उतनी ही दिलकश गीत की कोरियोग्राफी भी हैं.

कुल मिलाकर यह एक हलकी फुलकी , मस्ती से भरपूर फिल्म है। जो तथाकथित नई पीढी पर फिल्माई जाने के वावजूद हर वर्ग का मनोरंजन करने में सक्षम है। हाँ फिल्मो में आदर्श और अलग कहानी ढूँढने वालों को शायद यह फिल्म न पसंद आये।
तो आप यदि दोस्तों में और दोस्ती निभाने में विश्वास करने वालों में से हैं तो अगली फुर्सत में ही पूरे परिवार के साथ जा कर देख आइये।

पर हाँ …नई पीढी , पुरानी पीढी के भेद का चश्मा घर पर ही उतार कर जाइयेगा। शायद आपको भी आपके कॉलेज के दिन और पुराने दोस्त याद आ जाएँ :).