Tuesday, November 27, 2012

गई थी गर्व से, निराश हो आई....

कभी कभी कुछ भाव ऐसे होते हैं कि वे मन में उथल पुथल तो मचाते हैं पर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए हमें सही शैली नहीं मिल पाती। समझ में नहीं आता की उन्हें कैसे लिखा जाये कि वह उनके सटीक रूप में अभिव्यक्त हों पायें। ऐसा ही कुछ पिछले कई दिनों से  मेरे मन चल रहा था।  अचानक कैलाश गौतम जी की एक रचना को पढने का सौभाग्य मिला और उसने इतना प्रभावित किया कि लगा, मेरे भावों को भी यही शैली चाहिए बस। और आनन् फानन इन पंक्तियों ने उन भावों का रूप ले लिया।ज़ाहिर है कैलाश गौतम की रचना के आगे मेरी पंक्तियाँ कुछ भी नहीं, पर मेरे मन की उथल पुथल शांत हो गई है।


गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

लोगों का सत्कार देखकर 
रिश्तों का व्यापार देखकर 
वाल मार्ट से प्यार देखकर 
धन का तिरस्कार देखकर 
फैशन का बाजार देखकर 
जेबों का आकार देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

नेताओं की नीति देखकर 
बाबा की राजनीति देखकर 
कर्तव्यों से अप्रीति देखकर 
राज्यों की रणनीति देखकर 
घोटालों से प्रीति देखकर 
आरोपों से कीर्ति देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

शिक्षा की हुंकार देखकर 
संस्थानों की भरमार देखकर 
पल पल बढते भाव देखकर 
अंकों की पड़ताल देखकर 
छात्रों का सुरताल देखकर 
बदलते हालात देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

सावन के त्यौहार देखकर 
पतझड़ से रिवाज़ देखकर 
मिठाई में घोल माल देखकर 
गर्मी में बिजली का हाल देखकर 
ए  सी का साम्राज्य देखकर 
पानी का बर्ताव देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

(कैलाश गौतम की कविता ” गाँव गया था , गाँव से भागा” से प्रेरित )

Wednesday, November 21, 2012

कभी कभी यूँ भी ....

देश में आजकल माहौल बेहद राजनीतिक हो चला है. समाचार देख, सुनकर दिमाग का दही हो जाता है.ऐसे में इसे ज़रा हल्का करने के लिए कुछ बातें मन की हो जाएँ.
हैं एक रचना लिखने के लिए पहले सौ रचनाएँ पढनी पड़ती हैं।परन्तु कभी कभी कोई एक रचना ही पढ़कर ऐसे भाव विकसित होते हैं मन में, कि रचना में ढलने को कुलबुलाने लगते हैं। ऐसे ही अभी फिलहाल में, बातों बातों में संगीता (स्वरुप) दी ने मुझे अपनी एक रचना पढवाई और उसे पढ़कर तुरंत जो भाव उपजे मैंने उन्हें लिख भेजे।फिर ख्याल आया कि ये तो जुगलबंदी टाइप कुछ हो गई तो क्यों न आप लोगों से साझा कर ली जाए। पहले ऐसी जुगलबंदियां बहुत किया करते थे हम। अब समयाभाव के कारण कम हो गईं हैं।अत: हाल फिलहाल की हमारी ये जुगल तुकबंदी आपकी नजर :). 
पहले दी की रचना।


मैं और तुम
और ज़िन्दगी का सफर
चल पड़े थे 
एक ही राह पर ।
पर तुम बहुत व्यावहारिक थे
और मैं हमेशा 
ख़्वाबों में रहने वाली ।
कभी हम दोनों की सोच
मिल नही पायी
इसीलिए शायद मैं
कभी अपने दिल की बात 
कह नही पायी ,
कोशिश भी की गर
कभी कुछ कहने की
तो तुम तक मेरी बात
पहुँच नही पायी ।

मैं निराश हो गई
हताश हो गई
और फिर मैं अपनी बात
कागजों से कहने लगी ।

मेरे अल्फाज़ अब
तुम तक नही पहुँचते हैं
बस ये मेरी डायरी के
पन्नों पर उतरते हैं
सच कहूं तो मैं
ये डायरियां भी
तुम्हारे लिए ही लिखती हूँ
कि जब न रहूँ मैं
तो शायद तुम इनको पढ़ लो
और जो तुम मुझे
अब नही समझ पाये
कम से कम मेरे बाद ही
मुझे समझ लो ।
जानती हूँ कि उस समय
तुम्हें अकेलापन बहुत खलेगा
लेकिन सच मानो कि
मेरी डायरी के ज़रिये
तुम्हें मेरा साथ हमेशा मिलेगा ।

बस एक बार कह देना कि
ज़िन्दगी में तुमने मुझे पहचाना नहीं
फिर मुझे तुमसे कभी
कैसा भी कोई शिकवा – गिला नहीं ।
चलो आज यहीं बात ख़त्म करती हूँ
ये सिलसिला तो तब तक चलेगा
जब तक कि मैं नही मरती हूँ ।
मुझे लगता है कि तुम मुझे
मेरे जाने के बाद ही जान पाओगे,
और शायद तब ही तुम
मुझे अपने करीब पाओगे ।
इंतज़ार है मुझे उस करीब आने का
बेसब्र हूँ तुम्हें समग्रता से पाने का
सोच जैसे बस यहीं आ कर सहम सी गई है
और लेखनी भी यहीं आ कर थम सी गई है.(संगीता स्वरुप )


****************

अब मेरी –


व्यावहारिकता, संवेदनहीनता तो नहीं होती 

ये बस बहाना भर है 
न समझने का 
कितना आसान होता है कह देना 
की हम दोनों अलग हैं 
हमारी सोच नहीं मिलती 
शायद कुछ रिश्तों की सोच 
कभी भी नहीं मिलती 
निभते हैं बस वह, 
क्योंकि निभाने होते हैं 
अपनी अपनी सोच के साथ 
बस चलते जाने होते हैं।
अकेलेपन का एहसास शायद हो 
किसी एक के बाद 
या हो सकता है न भी हो 

क्या फरक पड़ता है 
कोई आत्मा देखने नहीं आती 
की उसने मुझे समझा या नहीं 
जाना या नहीं,
ये बातें है सब रूहानी 

इसलिए दिखा देनी चाहिए डायरी 
जीते जी 
बेशक न हो कुछ असर 
पर सुकून तो रहेगा कि 
कोशिश की हमने समझाने की 
किया अपना फ़र्ज़ पूरा 
हो सकता है पूरा न सही 
थोडा सा एहसास हो ही जाए।
पिछले तो गए 
बचे कुछ पल ही संवर जाएँ।
(शिखा वार्ष्णेय )


Monday, November 19, 2012

"जब तक है जान " यश चोपड़ा की खातिर...

हालाँकि प्रीव्यू देखकर लग रहा था की फिल्म ऐसी नहीं होगी जिसके लिए जेब हल्की की जाये। परन्तु यश चोपड़ा नाम ऐसा था कि, उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फिल्म देखना अनिवार्य सा था। आखिरकार एक रविवार यश चोपड़ा को श्रद्धांजलि देने के तौर पर हमने “जब तक है जान” के नाम कर दिया। और जैसा कि अंदाजा लगाया था कि शाहरुख़ का क्रेज तो अब रहा नहीं परन्तु फिल्म में खूबसूरत दृश्य तो कम से कम देखने को मिलेंगे ही, वैसा ही हुआ फिल्म मेरे अंदाजे पर पूरी तरह से खरी उतरी। आधी फिल्म में लन्दन और आधी में लेह लद्दाख व कश्मीर का सौंदर्य खुल कर दिखाया गया है। यश चोपड़ा की फिल्मों की खासियत के मुताबिक कोई टीम टाम नहीं। सहज , स्वाभाविक , प्राकृतिक सौन्दर्य।इसके अलावा फिल्म में यश चोपड़ा ब्रांड बहुत कम दिखाई दिया। 


“जबतक है जान” यश चोपड़ा के निर्देशन में, आदित्य चोपड़ा की कहानी और प्रोडक्शन और यश राज के बैनर तले बनी, एक त्रिकोण प्रेम पर आधारित रोमांटिक फिल्म है। कहानी के बारे में इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं बताऊंगी,वह आप लोग खुद देख कर जानिये।

एक बात जो सबसे अच्छी इस फिल्म में मुझे लगी, वह यह कि और फिल्मों में,जहाँ लन्दन के नाम पर हीथ्रो से निकल कर किसी बार का दरवाजा खुलता ही दिखाया जाता है, जहाँ कोई तथाकथित अल्ट्रा मॉडर्न लड़की हीरो का इंतज़ार करती पाई जाती है, इससे इतर एक सही रूप इस शहर का दर्शाया गया है। फिर वह बात चाहे चरित्रों के परिधानों की हो या लन्दन की सड़कों पर गिटार बजाते हीरो के पंजाबी गाने की।शहर का एक बेहद वास्तविक स्वरुप पेश किया गया है।पर हाँ इसके अलावा कहानी पूरी तरह से इल – लोजिकल लगती है और शाहरुख़ के चरित्र की अधिकाँश बातें हाजमोला खाकर भी पचने को तैयार नहीं होतीं। 

अदाकारी के लिहाज से भी शाहरुख़ ने अपने आप को सिर्फ दोहराया है, कैटरीना अपनी क्षमता से बेहद कमजोर लगीं पर इनसब से बाजी मार ले गई अनुष्का शर्मा। यहाँ तक कि मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि वह इस फिल्म की पैसा वसूल हैं। एक एक भाव जिस शिद्दत और फुर्ती से उनके चेहरे पर आता है कमाल कर जाता है, वह इस फिल्म का एक सबसे सशक्त पहलू हैं और यह फिल्म एक उनकी वजह से ही देखने लायक साबित हो जाती है। 

फिल्म का दूसरा मजबूत पक्ष इसका गीत संगीत है, रहमान के संगीत पर गुलज़ार के गीत सुनने में अच्छे लगते हैं।लन्दन में भारतीय गीतों का सीधा मतलब पंजाबी गीत हैं , फिल्म में पंजाबी गीतों का समावेश इस बात को जाहिर करता है और एक काल्पनिक कहानी को थोड़ा वास्तविक स्वरुप देने की कोशिश करता है।

फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष इसकी कहानी है और उसके बाद फिल्म का संपादन। खूबसूरत और विदेशी दृश्यों से भरी होने की बावजूद कई जगह पर फिल्म “अरे यार कब ख़त्म होगी ” कहने पर मजबूर कर देती है।

फिल्म में छोटी छोटी भूमिकाएं नीतू, ऋषि कपूर और अनुपम खेर की भी हैं। नीतू , ऋषि कपूर तो अब ऐसी छोटी “परफेक्ट, लविंग कपल” की भूमिकाओं के लिए प्रडिकटेबल हो चुके हैं परन्तु अनुपम खेर को पूरी तरह इस भूमिका में व्यर्थ किया गया है।

कहने का मतलब यह कि “जब तक है जान ” किसी भी नजरिये से कभी कभी, सिलसिला, लम्हे या दीवार के स्तर तक नहीं पहुँचती, फिर भी एक बार देखने लायक तो बनती है।  

Saturday, November 10, 2012

ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं...




आँखों में ये खारा पानी कहाँ से आता है किस कैमिकल लोचे से यह होता है,सबसे पहले किसकी आँख में यह लोचा हुआ और क्यों ? और कब इसे एक इमोशन से जोड़ दिया गया,और कब एक स्त्रियोचित गुण बना दिया गया,यह सब हमें नहीं मालूम। हाँ इतना जरूर मालूम है कि, काफी समय से इस पर महिलाओं की मोनोपोली रही है। मर्दों के लिए यह लगभग पुरुषत्व की अवमानना और शर्म का विषय रहा है . जहाँ पुरुष अपनी उफनती भावनाओं को इन आंसुओं के रास्ते बहा देने के लिए किसी एकांत को ढूंढते हैं और एकांत में बड़ा हिचकते हुए, अपने अहम् को पीछे धकेलते हुए इस काम को अंजाम देते हैं,अपने करीबी से करीबी मित्र के कंधे पर भी वह रोना गवारा नहीं करते। वहीँ महिलायें बड़े गर्व से इन्हें हर सुख दुःख में किसी भी मित्र के सहानुभूति पूर्ण कंधे पर बहा कर तृप्त हो लेती हैं।।इसके लिए न तो उन्हें किसी एकांत की जरुरत होती है, न ही किसी अहम् नाशक तत्व की। यहाँ तक कि वो तो इसे एक आभूषण समझती हैं जो उनकी भावात्मक अभिव्यक्ति को और प्रभावी बना देता है और कभी -कभी एक अचूक औजार भी, जहाँ कोई और नुस्खा न चले वहां आज़मा लिया ज्यादातर सफलता मिल ही जाती है।और शायद महिलाओं के इसी एक  गुण या अस्त्र से पुरुष समाज थोड़ा घबराता है। हिंदी फिल्मो में भी “मैं तुम्हें रोता हुआ नहीं देख सकता” या “तुम जानती हो तुम्हारे आँसू मुझे कमजोर बना देते हैं ” जैसे संवाद आम तौर पर पाए जाते हैं।  इससे बचने के लिए एक मुहावरा भी ईजाद कर लिया गया – घडियाली आँसू  …पर इसका भी कुछ खास असर नहीं हुआ और आँसुओं पर महिलाओं का वर्चस्व बना रहा। 


परन्तु अब सदियों बाद लग रहा है कि इस पर से महिलाओं की मोनोपोली ख़त्म होने वाली है। विश्व के सबसे ताक़तवर देश के सबसे ताक़तवर इंसान ने अपनी ख़ुशी में सबके सामने आंसू बहाकर पुरुषों के लिए भी यह रास्ता खोल दिया है। जी हाँ जब अमरीका का राष्ट्रपति अपनी भावनाओं के उबाल को आँखों के इस खारे पानी के माध्यम से जाहिर कर सकता है तो किसकी मजाल जो कहे कि यह काम मर्दों का नहीं। बल्कि उन्होंने सिद्ध कर दिया कि राष्ट्रपति के लिए भी यह गुण होना एक सकारात्मक तत्व है न कि नकारात्मक। आज के दौर में एक संवेदनशील, भावात्मक और कोमल ह्रदय नेता को जनता ज्यादा पसंद करती है।और उन्हें अपनी भावनाओं को दबाना नहीं चाहिए। 


याद कीजिये इतिहास में कितने ही ऐसे महापुरुष हुए जो सार्वजनिक तौर पर भी अपनी गीली आँखें नहीं छुपाते थे, नेहरु को लता मंगेशकर के “ए मेरे वतन के लोगो ” गीत पर आंसुओं के साथ देखा गया, तो राणा प्रताप को चेतक के लिए,2006 में अपने आखिरी प्रोफेशनल खेल की समाप्ति पर आंद्रेय अगासी हारने के वावजूद दर्शकों के खड़े होकर उनके लिए ताली बजाने पर रो पड़े थे। और जोर्ज वाशिंगटन भी राष्ट्रपतिपद की शपथ लेने के बाद अपने आंसू पोंछते देखे गए थे। 


तो रोना पुरुषार्थ को कम नहीं करता बल्कि उसे बढाता है, उसे महापुरुष बनाता है .पुरषों को अपने आंसुओं को ज़ब्त करने की अब कोई जरुरत नहीं। कोई जरुरी नहीं कि दुखों का पहाड़ टूटे तभी एक पुरुष को रोना चाहिए। एक इंसान को और एक अच्छे इंसान को अगर रोना आये तो जरुर रो लेना चाहिए बेशक आप विश्व के सबसे ताक़तवर व्यक्ति ही क्यों न हों।

Tuesday, November 6, 2012

हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स की एक शाम और निदा फ़ाज़ली ...

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता 

कहीं ज़मीं  तो कहीं आसमां  नहीं मिलता .

बहुत छोटी थी मैं जब यह ग़ज़ल सुनी थी और शायद पहली यही ग़ज़ल ऐसी थी जो पसंद भी आई और समझ में भी आई। एक एक शेर इतनी गहराई से दिल में उतरता जाता कि आज भी कोई मुझे मेरी पसंदीदा गजलों के बारे में पूछे तो एक इसका नाम मैं अवश्य ही लूं।परन्तु बहुत समय तक इन लाजबाब पंक्तियों  के रचनाकार का नाम नहीं पता था। समय बीता कुछ जागरूगता आई तो जाना की इस बेहतरीन ग़ज़ल को निदा फाज़ली साहब ने लिखा है। उसके बाद – 
“घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए”.

जैसे उनके बहुत से संवेदनशील शेरों से लेकर फिल्म “सुर” की  “आ भी जा , आ भी जा ,ये सुबह आ भी जा”.जैसी 
फ़िल्मी नज्में दिल पर दस्तक देती रहीं। और अब अरसे बाद 5 नवम्बर की एक सर्द शाम को इसी शायर से रू ब रू होने का और उन्हें सुनने का अवसर था।

5 नवम्बर की ठंडी शाम परन्तु लन्दन के हाउस ऑफ़ लार्डस के उस हाल में बेहद गर्माहट थी जहाँ यू के हिंदी समिति के तत्वाधान एवं बैरोनैस फ्लैदर के संरक्षण से वातायन : पोएट्री ऑन साउथ बैंक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया .वातायन लन्दन स्थित एक संस्था है।और प्रतिवर्ष भारत के कवियों को  कविता में योगदान के लिए सम्मानित करती है।पिछले वर्ष यह सम्मान जावेद अख्तर और प्रसून जोशी को दिए गए थे।

और इसी समारोह में प्रसिद्ध शायर और लेखक श्री निदा फ़ाज़ली एवं श्री शोभित देसाई (मुख्यत:गुजराती लेखक)  को वातायन अवार्ड से सम्मानित किया गया. बी बी सी के पूर्व प्रोडूसरसाउथ एशियन सिनेमा जर्नल के संपादक ललित मोहन जोशी ने  संचालन की बागडोर संभाली और यू के हिंदी समिति के अध्यक्ष डॉ पद्मेश गुप्ता  के स्वागत वक्तव्य और पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन  से समारोह का आगाज़ हुआ.  शोभित देसाई के सम्मान में सम्मान पत्र के वाचन का सौभाग्य मुझे मिला तत्पश्चात शोभित देसाई को समारोह में अवार्ड प्रदान किया गया। इसके बाद निदा फाजिल साहब के एक गीत को राजन सेंगुनशे उत्तरा जोशी ने सस्वर सुनाया व उनके सम्मान में बी बी सी के पूर्व प्रोड्यूसरहेल्थ एंड हैप्पीनेस पत्रिका के संपादक विजय राणा ने सम्मान पत्र पढ़ा फिर निदा साहब को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।






अब बारी थी उस कवि सम्मलेन की जिसका इंतज़ार वहां उपस्थित सभी लोग कर रहे थे। जिसकी बागडोर शोभित देसाई ने संभाली और इसमें ब्रिटेन के हिंदी/उर्दू  कवि  मोहन राणा , तितिक्षा, चमनलाल चमन, सोहन राही और स्वम निदा फाज़ली जैसे दिग्गजों ने भाग लिया। कवि  सम्मलेन बेहतरीन रहा और श्रोताओं की तालियों और वाह वाह से हॉल लगातार गूंजता रहा।





समारोह की अध्यक्षता कैम्ब्रिज विश्विद्यालय के प्राध्यापक एवं लेखक डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने की तथा प्रस्तावना यू के हिंदी समिति के अध्यक्ष और पुरवाई के संपादक डॉ पद्मेश गुप्त की रही.वातायन की संस्थापक अध्यक्ष दिव्या माथुर एवं बोरोनेस फ्लेदर ने सभी मेहमानों का धन्यवाद किया।



समारोह में लन्दन के सांस्कृतिक संस्थाओं के अध्यक्षसाहित्य और पत्रकारिता से जुड़े बहुत से गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे






इसी समारोह के कुछ पल मैंने आप लोगों के लिए सहेजे हैं . रिकॉर्डिंग मोबाइल पर की है इसलिए शायद अच्छी नहीं हुई, फिर भी आप लोगों के साथ सांझा कर रही हूँ। .मन हो तो सुनिए कि क्या सुनाया फ़ाज़ली साहब ने इस समारोह में, और क्या दिया मेरे एक प्रश्न का जबाब ...



कुछ टुकड़े और भी हैं ..वे फिर कभी।








मेरी एक सबसे बड़ी नालायकी यह है कि, हमेशा तस्वीरों के लिए औरों पर निर्भर रहती हूँ. यह तस्वीरें दीपक मशाल के कैमरे Canon 550D से साभार.



 सम्मान पत्र पढते हुए मैं.