कभी कभी कुछ भाव ऐसे होते हैं कि वे मन में उथल पुथल तो मचाते हैं पर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए हमें सही शैली नहीं मिल पाती। समझ में नहीं आता की उन्हें कैसे लिखा जाये कि वह उनके सटीक रूप में अभिव्यक्त हों पायें। ऐसा ही कुछ पिछले कई दिनों से मेरे मन चल रहा था। अचानक कैलाश गौतम जी की एक रचना को पढने का सौभाग्य मिला और उसने इतना प्रभावित किया कि लगा, मेरे भावों को भी यही शैली चाहिए बस। और आनन् फानन इन पंक्तियों ने उन भावों का रूप ले लिया।ज़ाहिर है कैलाश गौतम की रचना के आगे मेरी पंक्तियाँ कुछ भी नहीं, पर मेरे मन की उथल पुथल शांत हो गई है।
गई थी गर्व से
Tuesday, November 27, 2012
गई थी गर्व से, निराश हो आई....
Wednesday, November 21, 2012
कभी कभी यूँ भी ....
और ज़िन्दगी का सफर
चल पड़े थे
एक ही राह पर ।
पर तुम बहुत व्यावहारिक थे
और मैं हमेशा
ख़्वाबों में रहने वाली ।
कभी हम दोनों की सोच
मिल नही पायी
इसीलिए शायद मैं
कभी अपने दिल की बात
कह नही पायी ,
कोशिश भी की गर
कभी कुछ कहने की
तो तुम तक मेरी बात
पहुँच नही पायी ।
मैं निराश हो गई
हताश हो गई
और फिर मैं अपनी बात
कागजों से कहने लगी ।
मेरे अल्फाज़ अब
तुम तक नही पहुँचते हैं
बस ये मेरी डायरी के
पन्नों पर उतरते हैं
सच कहूं तो मैं
ये डायरियां भी
तुम्हारे लिए ही लिखती हूँ
कि जब न रहूँ मैं
तो शायद तुम इनको पढ़ लो
और जो तुम मुझे
अब नही समझ पाये
कम से कम मेरे बाद ही
मुझे समझ लो ।
जानती हूँ कि उस समय
तुम्हें अकेलापन बहुत खलेगा
लेकिन सच मानो कि
मेरी डायरी के ज़रिये
तुम्हें मेरा साथ हमेशा मिलेगा ।
बस एक बार कह देना कि
ज़िन्दगी में तुमने मुझे पहचाना नहीं
फिर मुझे तुमसे कभी
कैसा भी कोई शिकवा – गिला नहीं ।
चलो आज यहीं बात ख़त्म करती हूँ
ये सिलसिला तो तब तक चलेगा
जब तक कि मैं नही मरती हूँ ।
मुझे लगता है कि तुम मुझे
मेरे जाने के बाद ही जान पाओगे,
और शायद तब ही तुम
मुझे अपने करीब पाओगे ।
इंतज़ार है मुझे उस करीब आने का
बेसब्र हूँ तुम्हें समग्रता से पाने का
सोच जैसे बस यहीं आ कर सहम सी गई है
और लेखनी भी यहीं आ कर थम सी गई है.(संगीता स्वरुप )
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अब मेरी –
व्यावहारिकता, संवेदनहीनता तो नहीं होती
ये बस बहाना भर है
न समझने का
कितना आसान होता है कह देना
की हम दोनों अलग हैं
हमारी सोच नहीं मिलती
शायद कुछ रिश्तों की सोच
कभी भी नहीं मिलती
निभते हैं बस वह,
क्योंकि निभाने होते हैं
अपनी अपनी सोच के साथ
बस चलते जाने होते हैं।
अकेलेपन का एहसास शायद हो
किसी एक के बाद
या हो सकता है न भी हो
क्या फरक पड़ता है
कोई आत्मा देखने नहीं आती
की उसने मुझे समझा या नहीं
जाना या नहीं,
ये बातें है सब रूहानी
इसलिए दिखा देनी चाहिए डायरी
जीते जी
बेशक न हो कुछ असर
पर सुकून तो रहेगा कि
कोशिश की हमने समझाने की
किया अपना फ़र्ज़ पूरा
हो सकता है पूरा न सही
थोडा सा एहसास हो ही जाए।
पिछले तो गए
बचे कुछ पल ही संवर जाएँ।(शिखा वार्ष्णेय )
Monday, November 19, 2012
"जब तक है जान " यश चोपड़ा की खातिर...
हालाँकि प्रीव्यू देखकर लग रहा था की फिल्म ऐसी नहीं होगी जिसके लिए जेब हल्की की जाये। परन्तु यश चोपड़ा नाम ऐसा था कि, उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फिल्म देखना अनिवार्य सा था। आखिरकार एक रविवार यश चोपड़ा को श्रद्धांजलि देने के तौर पर हमने “जब तक है जान” के नाम कर दिया। और जैसा कि अंदाजा लगाया था कि शाहरुख़ का क्रेज तो अब रहा नहीं परन्तु फिल्म में खूबसूरत दृश्य तो कम से कम देखने को मिलेंगे ही, वैसा ही हुआ फिल्म मेरे अंदाजे पर पूरी तरह से खरी उतरी। आधी फिल्म में लन्दन और आधी में लेह लद्दाख व कश्मीर का सौंदर्य खुल कर दिखाया गया है। यश चोपड़ा की फिल्मों की खासियत के मुताबिक कोई टीम टाम नहीं। सहज , स्वाभाविक , प्राकृतिक सौन्दर्य।इसके अलावा फिल्म में यश चोपड़ा ब्रांड बहुत कम दिखाई दिया।
Saturday, November 10, 2012
ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं...
परन्तु अब सदियों बाद लग रहा है कि इस पर से महिलाओं की मोनोपोली ख़त्म होने वाली है। विश्व के सबसे ताक़तवर देश के सबसे ताक़तवर इंसान ने अपनी ख़ुशी में सबके सामने आंसू बहाकर पुरुषों के लिए भी यह रास्ता खोल दिया है। जी हाँ जब अमरीका का राष्ट्रपति अपनी भावनाओं के उबाल को आँखों के इस खारे पानी के माध्यम से जाहिर कर सकता है तो किसकी मजाल जो कहे कि यह काम मर्दों का नहीं। बल्कि उन्होंने सिद्ध कर दिया कि राष्ट्रपति के लिए भी यह गुण होना एक सकारात्मक तत्व है न कि नकारात्मक। आज के दौर में एक संवेदनशील, भावात्मक और कोमल ह्रदय नेता को जनता ज्यादा पसंद करती है।और उन्हें अपनी भावनाओं को दबाना नहीं चाहिए।
याद कीजिये इतिहास में कितने ही ऐसे महापुरुष हुए जो सार्वजनिक तौर पर भी अपनी गीली आँखें नहीं छुपाते थे, नेहरु को लता मंगेशकर के “ए मेरे वतन के लोगो ” गीत पर आंसुओं के साथ देखा गया, तो राणा प्रताप को चेतक के लिए,2006 में अपने आखिरी प्रोफेशनल खेल की समाप्ति पर आंद्रेय अगासी हारने के वावजूद दर्शकों के खड़े होकर उनके लिए ताली बजाने पर रो पड़े थे। और जोर्ज वाशिंगटन भी राष्ट्रपतिपद की शपथ लेने के बाद अपने आंसू पोंछते देखे गए थे।
तो रोना पुरुषार्थ को कम नहीं करता बल्कि उसे बढाता है, उसे महापुरुष बनाता है .पुरषों को अपने आंसुओं को ज़ब्त करने की अब कोई जरुरत नहीं। कोई जरुरी नहीं कि दुखों का पहाड़ टूटे तभी एक पुरुष को रोना चाहिए। एक इंसान को और एक अच्छे इंसान को अगर रोना आये तो जरुर रो लेना चाहिए बेशक आप विश्व के सबसे ताक़तवर व्यक्ति ही क्यों न हों।
Tuesday, November 6, 2012
हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स की एक शाम और निदा फ़ाज़ली ...
समारोह में लन्दन के सांस्कृतिक संस्थाओं के अध्यक्ष, साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े बहुत से गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे
मेरी एक सबसे बड़ी नालायकी यह है कि, हमेशा तस्वीरों के लिए औरों पर निर्भर रहती हूँ. यह तस्वीरें दीपक मशाल के कैमरे Canon 550D से साभार.
सम्मान पत्र पढते हुए मैं.




