Tuesday, July 24, 2012

लन्दन में मेले होंगे,अफ़सोस हम न होंगे :) :)."टॉर्च रिले 2012"

लन्दन में ओलम्पिक जोश अपने चरम पर है.27 जुलाई को उद्घाटन समारोह है.परन्तु अफ़सोस यह कि हमें उद्घाटन  की तो क्या पूरे खेलों में से किसी एक की भी टिकट नहीं मिली है. और हमें ही नहीं, हमारी पहुँच में जितने भी लोग हैं किसी को भी नहीं मिली है.ऐसे में हमने सोचा कि क्यों फिर ये छुट्टियां बर्बाद की जाएँ, जब घर में बैठकर टी वी पर ही देखना है तो कहीं भी देख लेंगे. इसलिए इन खेलों को इनके भरोसे पर छोड़ कर हम तो अपने देश जा रहे हैं अगले हफ्ते.
हाँ एक अफ़सोस रहेगा की आपको इन खेलों का सीधा विवरण नहीं सुना पाऊँगी. परन्तु इस रविवार यानि 22 जुलाई को ओलम्पिक टॉर्च हमारे इलाके से निकली अब रविवार को सुबह 6 बजे उसे देखने निकलना थोडा भारी पड़ता है. परन्तु हमने सोचा खेल न सही उसकी टॉर्च ही सही. कुछ तो आप लोगों को दिखा सकूँ शायद खेलों में शामिल न होने की कुछ भरपाई हो सके.तो लीजिये ये देखिये ओलम्पिक टॉर्च रिले की कुछ झांकियां।

22/7/2012- स्थान- गेंट्स हिल (रेडब्रिज ) लन्दन।
1-हम समय से काफी पहले पहुँच गए थे.क्या करें आदत से मजबूर हैं..तब माहौल कुछ यूँ था।

2-यानि ज्यादा लोग नहीं थे।

3-फिर हाल कुछ यूँ हो गया।यानि हाउस फुल 

4- पब्लिक से बतियाती पुलिस , इंतज़ार की घड़ियाँ 
5- लाफिंग और फ्रेंडली पुलिस -सिर्फ कागजों में ही नहीं असल में भी ..लोगों से हाथ मिलाते हुए। 
7-  ये सबसे पहला वाहन .
11-और अब आई यह टॉर्च जिसका था इंतज़ार …
12-और ये लोकल स्कूल की बच्चियाँ जो टॉर्च के आगमन के सम्मान में प्रतीक्षारत लोगों के लिए अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन कर रहीं थीं।खेल भावना में हमसे अच्छा कौन ??
चलिए अब आप लोग लुत्फ़ उठाइये इन तस्वीरों का और उसके बाद खेलों का. अब हम ..दिल्ली, मुंबई , भोपाल,लखनऊ आदि घूमते  हुए फिर मिलेंगे करीब 1 महीने बाद यहीं स्पंदन पर ..तब तक खुश रहिये आबाद रहिये…

Monday, July 16, 2012

देसी -विदेसी "कॉकटेल "..

 

हमारे पास रविवार शाम गुजारने के लिए दो विकल्प थे. एक बोल बच्चन और एक कॉकटेल .अब बोल बच्चन के काफी रिव्यू पढने के बाद भी हॉल पर जाकर जेब खाली करने की हिम्मत ना जाने क्यों नहीं हुई तो कॉकटेल पर ही किस्मत अजमाई का फैसला किया गया, यह सोच कर ओलम्पिक साईट में नए खुले मॉल का VUE सिनेमा  चुना गया कि फिल्म ना भी झेलने लायक हुई तो कम से कम अच्छे सिनेमा हॉल को देखकर पैसे वसूल हो जाएँ.खैर हॉल के अन्दर पहुंचे तो हम अकेले ही थे लगा .. गलत फिल्म चुन ली .पर फिर धीरे- धीरे  लगभग पूरा हॉल भर गया और फिल्म शुरू हुई.

पहले ही सीन में हीरो(सैफ अली खान ) दिल्ली से लन्दन जा रहा है. आश्चर्य नहीं हुआ. आजकल लगभग हर फिल्म में लन्दन आना जाना ऐसे दिखाया जाता है जैसे सारी उड़ान भारत से सिर्फ लन्दन की तरफ ही जाती हैं.मानो २ ही देश हैं दुनिया में.खैर दिल्ली से जहाज में चढ़ा हुआ हीरो सीधा लन्दन के “बार” में ही उतरता है और उसकी फ्लर्टिंग शुरू हो जाती है. हर सामने नजर आई लड़की को पटा लेता है. आखिर लन्दन वो आया ही क्यों है भला. फिल्म की हीरोइन (दीपिका पदुकोन)  भी लन्दन में पली बड़ी है तो जाहिर हैं वो भी ऐसी ही है.डिस्को और  बार , पीना और नाचना.यही उसकी जिन्दगी है.ऐसे ही समय में एक सिमटी सकुचाई देसी बाला(डायना पेंटी ) का भी आगमन होता है. जिसे लन्दन के ही किसी लफंगे ने नकली शादी कर के फंसा दिया है. और अब वह उसे अपनाने से मना कर देता है.और इन परिस्थितियों में रोती हुई उस देसी कन्या मीरा को मिस लन्दन वेरोनिका अपने घर ले आती है. और “what is in the house,”on the house”  ” के आधार पर दोनों सहेलियां बन जाती हैं.फिल्म के पहले हाफ में कहानी इसी तरह मस्ती में चलती है ,मौज मस्ती, चुहुल और सिनेमा हॉल में लोग हँसते रहते हैं.पर फिल्म के दूसरे भाग में हीरो की माँ ( डिम्पल) के आगमन से कहानी का रुख थोडा सा बदलता है, जब माँ को खुश करने के लिए मिस लन्दन की जगह देसी बाला को बहु के रूप में पेश कर दिया जाता है. फिर वही होता  है जिसका अंदाजा सभी लगा सकते हैं.नाटक करते करते प्यार, कशमकश,जलन . और फिर दोस्ती , प्यार , और त्याग वाले सभी मेलोड्रामा के साथ फिल्म अपने सुखद अंत तक पहुँच जाती है.

फिल्म की कहानी सैफ खान की ही एक फिल्म “लव आजकल” की ही तर्ज़ पर है, यहाँ तक कि माहौल  और परिवेश भी बिलकुल वही है.तो अगर अपने लव आजकल देखी है तो इस फिल्म में आपको कुछ हास्य एंगल की अधिकता से अलग कुछ भी नया नहीं लगेगा.

हाँ फिल्म देखने के बाद मुझे लगा जैसे फिल्म बनाने वाला कुछ पॉइंट्स पर नजर डालने को कहता है. बरसों पुराने स्लोगन एल बी सी डी (लन्दन बोर्न कन्फ्यूज देसी )को दिखाना चाहता है.जैसे –
-एक भारतीय पुरुष लन्दन पहुँच जाये या अमेरिका.वह शहर उसके लिए खुले रिश्ते बनाने की जगह तो हैं. परन्तु शादी उसे ऐसी ही लड़की से करनी है जो उसके घर लौटने पर उसे रोटी बनाकर खिला सके.
-लन्दन में पली बढ़ी एक लड़की हर काम बिंदास तरीके से करती है. किसी से भी उसका रिश्ता १ हफ्ता ,२ हफ्ता या ज्यादा से ज्यादा १ महीने रखने में विश्वास करती है. परन्तु अगर उसका पार्टनर उसकी सहेली से शादी करना चाहे तो उसके अन्दर की भारतीय नारी जाग जाती है.और अचानक वह मिस लन्दन से भारतीय बाला बनने पर उतारू हो जाती है.
-लन्दन में लोगों को तो घर में रहना ही नहीं आता. बिखरा सामान, खाली फ्रिज,अस्तव्यस्त गंदे कपडे  ..उस अपार्टमेन्ट को घर एक सुघड़ भारत से आई लड़की ही बना सकती है .वगैरह वगैरह 

यूँ फिल्म का संपादन कसा हुआ है और संवाद चुटीले हैं कहीं भी फिल्म उठ कर जाने को नहीं कहती.
सैफ इस तरह की कई भूमिकाएं कर चुके हैं अत: वो इसमें फिट लगते हैं. दीपिका ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.नई अभिनेत्री डायना पेंटी.स्क्रीन पर अच्छी लगती है.अभिनय भी ठीक कर लेती हैं हाँ संवाद अदायगी कहीं  कहीं  सपाट हो  जाती  है.वोमन इरानी और डिम्पल ने अपनी छोटी सी भूमिका में गज़ब ढाया  है.उनके हिस्से आये संवाद फिल्म में नई जान डालते हैं.
फिल्म का संगीत वैसे मुझे कान फोडू लगा. फिर भी “तुम्हीं दिन ढले ” और “दारू देसी” देखने,सुनने में अच्छे लगते हैं.
पूरी फिल्म के दौरान लन्दन की सड़कों पर शिद्दत से घुमाया गया है. और लन्दन  की नाईट लाइफ की भी अच्छी नुमाइश की गई है.

हालाँकि कुछ डिटेलिंग पर निर्देशक मुझे चुकता सा लगता है जैसे  – कार को किसी भी स्ट्रीट पर यूँ खड़ा करके चले जाना – मन  होता है कहूँ, ओये!!! पार्किंग टिकेट लगा के जा, वर्ना अभी ठुल्ला आकर भारी जुर्माना लगा जायेगा.
या फिर भारत में एक फुटपाथ पर अपना बैग और जेकेट छोड़कर हीरो जी सड़क पार हिरोईन से मिलने चले जाते हैं …तो लगता है कहूँ- बॉस !! ये इंडिया है माना हिरोईन के सामने बैग की परवाह नहीं पर उसमें  मौजूद पासपोर्ट आदि की तो चिंता कर लो.
पर ये बातें नजरअंदाज की जा सकती हैं.और कुल मिलाकर एक बार देखने लायक फिल्म तो है ही.उसपर और कुछ नहीं पर यदि आपको लन्दन के दर्शन करने हैं तो देख ही आइये साथ में थोडा हंस भी लेंगे फिल्म इतनी भी बुरी नहीं है.Not bad I would say.


Friday, July 13, 2012

एक कली...

लरजती सी टहनी पर
झूल रही है एक कली
सिमटी,शरमाई सी
थोड़ी चंचल भरमाई सी  
टिक जाती है
हर एक की नज़र
हाथ बढा देते हैं
सब उसे पाने को 
पर वो नहीं खिलती
इंतज़ार करती है 
बहार के आने का
कि जब बहार आए
तो कसमसा कर 
खिल उठेगी वह 
आती है बहार भी 
खिलती है वो कली भी
पर इस हद्द तक कि 
एक एक पंखुरी झड कर 
गिर जाती है भू पर 
जुदा हो कर 
अपनी शाख से
मिल जाती है मिटटी में.
यही तो नसीब है 
एक कली का


Wednesday, July 11, 2012

कितने नैचुरल ये अननैचुरल रिश्ते.

बस काफी भरी हुई है .तभी एक जोड़ा एक बड़ी सी प्राम लेकर बस में चढ़ता है.लड़की के हाथ में एक बड़ा बेबी बैग है और उसके साथ के लड़की नुमा लड़के ने वह महँगी प्राम थामी हुई है.दोनो  प्राम को सही जगह पर टिका कर बैठ जाते हैं. प्राम में एक बच्चा सोया हुआ है खूबसूरत कम्बल से लगभग पूरा ढका हुआ. सिर्फ आँख कान मुँह ही दिख रहे हैं. तभी लड़की ने बैग खोला उसमें से इवेंट की बोतल निकाली जो आधी दूध से भरी हुई है. उसने चुपचाप बच्चे के मुँह में लगा दी और कुछ सेकेंड में ही निकाल कर बैग में रख ली , अब लड़के ने बैग खोला उसमें से एक डाइपर निकाला और बड़ी ही कुशलता से कम्बल के अन्दर ही अन्दर बदल दिया. पहला डाइपर एक थैली में रखकर बैग की पिछली जेब में रख दिया , फिर दोनों चुप चाप बैठ गए. कुछ मिनट बाद लड़की ने फिर बैग में  हाथ डाला,फिर दूध की बोतल निकाली और फिर बच्चे के मुँह में लगा दी.फिर छोटे से मोज़े निकाले और बच्चे को पहना दिए , अब लड़के ने टोपी निकाली और पहना दी.वो जोड़ा जितनी देर बस में रहा लगातार उस बच्चे के साथ उनकी यही गतिविधियाँ बारी- बारी चलती रहीं, पर बिना एक भी शब्द बोले और बच्चा भी एक दम शांत. न  जाने क्यों सब कुछ बहुत अजीब सा था फिर भी लगा कि शायद तीनी गूंगे -बहरे हैं.ये ख्याल मन में आया तो एक कुछ सहानुभूति भी हुई. फिर वह जोड़ा अगले स्टॉप पर उतर गया. उतरते ही लड़की ने बच्चे को गोद में उठा लिया और लड़का बैग को प्राम में रख चलने लगा.इत्तेफाक से हमें भी उसी जगह उतरना था.अत: तब उस बच्चे का चेहरा करीब से देख अहसास हुआ कि वह बच्चा कोई बच्चा नहीं बल्कि बच्चे के लाइफ साइज का गुड्डा है..थोड़ी देर को जहाँ खड़े थे हम वहीँ खड़े रह गए थोड़ी देर में होश आया तो समझ में आया कि क्यों वह दोनों उस बच्चे का जरुरत से अधिक ख्याल रख रहे थे.क्यों उनमें उसके काम करने की होड़ लगी हुई थी. और क्यों वह कुछ भी नहीं बोल रहे थे.ओह.. हे भगवान्  तो यह जोड़ा लिस्बियन है. उफ़ उनकी मनोदशा का अहसास वेदना से भर गया. एक बच्चे की ललक उस जोड़े में इस कदर थी कि …और आखिर एक अप्राकृतिक रिश्ते को पूर्ण करने के लिए वे एक अप्राकृतिक बच्चा भी पाल रहे थे.वह एक तथा कथित असामान्य  जीवन जरुर जी रहे थे परन्तु अपने बच्चे को पालने के आनन्द की अनुभूति उनकी एकदम सामन्य और प्राकृतिक थी.

गर्भवती रिकी और मैरी  पोर्टास लिस्बियन बाल में।
इस बात को करीब चार साल गुजर गए .कई दिनों तक उस जोड़े के बारे में सोचती रही, उनकी घरेलू  जिन्दगी का अहसास करने की कोशिश करती रही और आखिर में बात आई गई हो गई.परन्तु कल एक समाचार पत्र में पढ़ी खबर ने जैसे फिर इस किस्से को मेरे स्मृतिपटल पर साकार कर दिया. और फिर से ना जाने कितने ही सवाल मेरे मस्तिष्क में हलचल मचाने लगे.खबर थी कि लन्दन में पहली बार आयोजित  “सिर्फ महिलाओं के लिए पॉश लिस्बियन बाल” में मैरी  पोर्टास (मैरी कुईन ऑफ शॉप ,एक अंग्रेजी व्यवसायी, खुदरा विशेषज्ञ, और प्रसारक, इन्हें  खुदरा और व्यापार से संबंधित टीवी शो, हाल ही में ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा ब्रिटेन की हाई स्ट्रीट बाजार के भविष्य पर एक समीक्षा का नेतृत्व करने के लिए उनकी नियुक्ति के लिए  – सबसे अधिक जाना जाता है.) अपनी गर्भवती महिला साथी फैशन  जर्नलिस्ट मलीन रिक्की के साथ हाथ में हाथ डाले पधारीं. लगभग २०० मेहमानों और हाई क्लास सेलेब्रिटी से भरी इस हाई क्लास पार्टी का उद्देश्य हाई सोसाइटी में लिस्बिअनिज्म को सामान्य दिखाना था .और तब पहली बार  गे अधिकारों से जुड़ा इंद्र धनुषी झंडा व्हाईट हॉल पर फहराया गया.
यहाँ यह गौरतलब है कि मैरी करीब १४ सालों से एक सामान्य शादीशुदा जीवन जी रहीं थीं. उनके पति से उनके २ बच्चे भी हैं और उसके बाद करीब २ साल से वह अपनी महिला साथी रिक्की के साथ रह रही हैं और अब यह घोषणा करती हैं कि उनकी साथी गर्भवती है और इस बच्चे का वह दोनों बेसब्री से इन्तजार कर रहीं हैं.

यूँ किसी भी इंसान का  अपनी रूचि अनुसार जीवन जीने के अधिकार को लेकर मेरे मन में कोई शंका नहीं है. हर इंसान को अपने मनपसंद साथी के साथ रहने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए.परन्तु इस खबर ने मेरे मन में अजीब सी उथल पुथल मचा दी है  कि आखिर क्यों जो लोग एक विपरीत सामाजिक परिवेश में एक अप्राकृतिक कहा जाने वाला जीवन अपनी रूचि से स्वीकारते हैं, यह कहते हुए कि वह सामाजिक बन्धनों को नहीं मानते, उनकी जरूरतें और रुचियाँ अलग हैं, और उन्हें उनके अनुसार ही जीवन जीने दिया जाना चाहिए, वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए . फिर वही लोग शिशु जन्म और बच्चे की चाह को लेकर वही सामान्य इच्छा रखते हैं और वो भी उस हद  तक कि उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक तरीका अपनाते हैं. इस बारे में मैंने जब कुछ जानने की कोशिश की तो ना जाने कितने ही तरह के तथ्य सामने आये, कितने ही सवाल मैंने नेट पर देखे यह जानने के लिए, कि कैसे  लिस्बियन अपने साथी को गर्भधारण करा के बच्चा पा सकते हैं ? और मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकार कि मेडिकल साइंस इतनी आगे बढ़ गई है कि उसके लिए कितने आसान तरीके बताये और अपनाये जाते हैं. जहाँ एक ओर  स्पर्म दान लेकर यह काम किया जाता है,यहाँ तक कि उसके लिए किसी डॉक्टर या लैबोरट्रि   की भी जरुरत नहीं समझी जाती खुद ही सीरिंज से उसे इन्सर्ट कर लिया जाता है, वहीँ स्कूलों में भी सामाजिक विषय के अंतर्गत पढाया जाता है कि किस तरह सामान सेक्स वाले लोग बच्चे का सुख ले सकते हैं. उनके लिए ज्यादातर किराये  की कोख लेने का प्रावधान है जहाँ दोनों साथियों के स्पर्म/एग्ग के नमूने लिए जाते हैं और उन्हें बताया नहीं जाता कि होने वाला बच्चा उनमें से किसका है, जिससे कि बाद में कभी वह अलग हों तो कोई एक बच्चे पर अपना अधिकार ना जमा सके.और यह सब अब कानूनी तरीके से होता है.और सभी अधिकार  और मान्यता प्राप्त है.

कितना आसान लगता है ना सुनने में यह सब. कोई समस्या ही नहीं. बच्चा पैदा करने के लिए एक स्त्री एक पुरुष का होना जरुरी नहीं ..जैसे बस खाद लेकर आइये खेत में डालिए और आलू प्याज की तरह उगाइये.
सभी को अपना जीवन अपनी तरह से जीने  का और हर तरह की खुशियाँ पाने अधिकार है.पर विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण नकारने वाले को आखिर ये शिशु जन्म और पालन जैसी इच्छा हो ही क्यों ?वो भी इस हद तक कि इन सब तरीकों में मुश्किल हो तो एक बेजान गुड्डे से पूरी की जाये.?  ऐसे जोड़ों की मानसिक स्थिति मेरी समझ में नहीं आती.क्या कभी वे उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचते हैं? माना कि आज उन्हें सारे कानूनी अधिकार हासिल हैं. पर कल वह बच्चा स्कूल भी जायेगा क्या वह अपने साथियों के बीच अपने गे/लिस्बियन माता पिता को लेकर सहज हो पायेगा.? आज भी स्कूलों में समानसेक्स में रूचि रखने वाले बच्चों को अलग दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें परेशान किया जाता है , चिढाया जाता है. यहाँ तक कि कितने ही बच्चे इस सबसे तंग आकर आत्म हत्या तक कर लेते हैं.ऐसे में ऐसे मातापिता के प्रति वह मासूम बच्चा किस स्थिति से गुजरेगा क्या कभी ये लोग सोचते होंगे? 

मैं मानती हूँ कि उनकी अपनी स्थिति पर उनका कोई जोर नहीं. वह ऐसे हैं तो हैं. इसमें कोई बुराई नहीं. पर एक मासूम बच्चे को बिना उसके किसी दोष के इस स्थिति से दो चार होने पर मजबूर करने का क्या उनको हक़ है?

आज इस तरह के सम्बन्ध कानूनी तौर पर मान्य हैं.और काफी कुछ सामाजिक तौर पर भी उन्हें माना जाने लगा है. यह भी एक सामान्य व्यवस्था है. फिर क्यों ये लोग अपनी अलग ही परेड निकालते हैं? खुद को अपने पहनावे, हाव भाव से सामान्य लोगों से अलग दिखाने की कोशिश करते हैं ?अपने को अलग,बताते और होते हुए भी एक सामान्य परिवार की चाह भी रखते हैं…क्या आपको यह सब बेहद कन्फ़्यूजिंग  नहीं लगता? मैं तो बहुत कंफ्यूज हो गई हूँ. 

Monday, July 9, 2012

तिनके...

क्या दे सजा उसको 
क्या फटकारे उसे कोई ,

हिमाक़त करने की भी 
जिसने इज़ाजत ली है
*********
हमारे दिन रात का हिसाब कोई 
जो मांगे तो क्या देंगे अब हम
उसके माथे पे बल हो, तो रात 
और फैले होटों पे दिन होता है.
**************



उसकी  पलकों से गिरी बूंद
ज्यूँ ही मेरी उंगली से छुई
हुआ अहसास  
कितने गर्म ये जज़्बात होते हैं .
************



तेरे दिल  के पास जो 
खाली, बंजर जगह पड़ी  है 
देख वहीँ किनारे पर 
मेरी चाहत का झोंपडा है.
जिसकी छत पर लगाये हैं मैने 
अपनी वफ़ा के तिनके 
फर्श को जिसके मैंने नेह से लीपा है.
जिसे रोज़ जतन से मैं संवारती हूँ 
कहीं तेज़ हवाओं से 
तिनका तिनका बिखर न जाये 
*************







Monday, July 2, 2012

अलकनंदा का रोमांच

रोमांच की भी अपनी एक उम्र होती है और हर उम्र में रोमांच का एक अलग चरित्र. यूँ तो स्वभाव से  रोमांचकारी लोगों को अजीब अजीब चीजों में रोमांच महसूस होता है,स्काइडाइविंग , अंडर वाटर राफ्टिंग, यहाँ तक कि भयंकर झूलों की सवारी, जिन्हें देखकर ही मेरा दिल  धाएं  धाएं करने लगता है. मेरे ख़याल से रोमांच का अर्थ प्रसन्नता से है, आनंद से है अत: जिन चीजों से डर लगे  उसमें रोमांच का अनुभव कैसे हो सकता है ये मुझे समझ में नहीं आता. अब चूंकि हर इंसान के लिए डर की परिभाषा भिन्न- भिन्न परिस्थितियों और अवस्था में अलग अलग होती है तो इसीलिए रोमांच की परिभाषा भी हर एक के लिए बदल जाती है. अब जैसे बीच रास्ते पर फुटबॉल  खेलना एक बच्चे के लिए रोमांचकारी हो सकता है.,परन्तु जाहिर है उसके माता पिता के लिए तो डर ही होगा.और एक घुटनों चलने वाले शिशु के लिए मिट्टी में से चींटी खाना रोमांचकारी हो सकता है पर एक परिपक्व इंसान के लिए चिंताजनक ही होगा. अत: रोमांच भी अवस्था के साथ अपनी अलग परिभाषा ले लेता है.


अब इतने चिंतन मनन का कारण यह है कि एक मित्र फिलहाल बद्रीनाथ , केदारनाथ की यात्रा से लौटे और उन्होंने बताया कि उनके आने के बाद वहाँ  का रास्ता जाम हो गया. उनकी इस बात से मुझे अपनी उस मार्ग की एक यात्रा के कुछ रोमांचक पल स्मरण हो आये. 
 


रानीखेत से बद्रीनाथ  की यात्रा हम प्राय: हर साल ही किया करते थे. क्योंकि गर्मी की  छुट्टियों में आये मेहमानों को, घुमाने के साथ तीर्थयात्रा फ्री का ऑफर खासा लुभावना लगा करता था. और इस यात्रा के बाद पापा को अपनी मेहमान नवाजी और मेहमानों को अपनी छुट्टियां सार्थक लगा करती थीं. हाँ हम बच्चों को ( मैं और मेरी बहन )जरुर यह सब इतना आकर्षित नहीं करता था. पहाड़ो पर वर्षों रहने के कारण ना तो उन पर्वतों में हमें कोई नई बात नजर आती, ना ही उन सर्पीली सड़कों में. उस पर एक मंदिर के लिए टैक्सी का इतना लम्बा और थका देने वाला सफ़र. ऐसे में पर्यटकों का सड़क के किनारे पहाड़ों से निकलते झरने देखकर ख़ुशी से चिल्लाना हमें तो बड़ा ही हास्यप्रद लगा करता था. हाँ एक इकलौता आकर्षण था , और वह था उस पूरे रास्ते अलकनंदा  का साथ साथ चलना. जाने क्यों मुझे वो बड़ी अपनी अपनी सी लगा करती थी. जैसे वह  भी उसी रास्ते, ऐसे ही किसी के लिए बहने को मजबूर है , और अपने दिल दहला देने वाले बहाव के शोर से अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है. कल कल बहती नदियों से इतर समुंदर की लहरों के से तीव्र प्रवाह और आवाज़ वाली अलकनंदा मुझे हमेशा ही आकर्षित किया करती थी  और मेरा मन अनायास  ही कुछ दूर उसके साथ पैदल चलने को कर आता. परन्तु जाहिर था मेरा ये रोमांचक मन मेरे घरवालों को हमेशा नागवार ही लगता  था और उनके एक वाक्य ” पागल हो गई है क्या ” के साथ मेरे रोमांच का भट्टा बैठ जाता था.  
यूँ उस रास्ते पर ऊपर के पहाड़ों से बड़े बड़े पत्थरों, और मलबे  के गिरने का खतरा हमेशा ही रहता है. अब का तो पता नहीं परन्तु उस समय (करीब २०-२५ साल पहले ) जरा सी बारिश ही रोड ब्लॉक  का कारण बन जाया करती थी. उसपर एकदम तंग सड़कें और उनके असुरक्षित किनारे. हर मोड़ पर हर वाहन से “जय बद्री विशाल” के नारे सुनाई पड़ते थे.

ऐसे ही एक ट्रिप के दौरान, बद्रीनाथ  से लौटते हुए इससे पहले की अलकनंदा भागीरथी के साथ मिलकर गंगा बन जाती, देवप्रयाग से कुछ पहले, एक जगह पर अचानक पत्थरों का गिरना शुरू हो गया . और देखते ही देखते पूरी सड़क पर  पत्थर और मिट्टी का मिला जुला एक छोटा सा पहाड़ बन गया और बस.. इधर की गाड़ियाँ इधर और उधर की गाड़ियाँ उधर फंस कर रह गईं . उस वक़्त ना तो मोबाइल फ़ोन थे ना ही और कोई साधन जिससे किसी प्रकार की कोई मदद उस मलबे  को साफ़ करने के लिए बुलाई जा सकती अत: आसपास के कुछ मजदूरों और यातायात वालों के आने में खासा वक़्त लगने वाला था. सुबह का वक़्त था और दूसरे दिन शाम तक स्थिति सुधरने के कोई आसार नहीं नजर आ रहे थे. अत: सभी गाड़ियों को सड़क के किनारे से लगाया गया और कुल ४-६ घर और २-४ दुकानों वाले उस गाँव में यात्री रुपी सैलाब ने अपना डेरा डाल लिया.अब शुरू होता है मेरा रोमांचक पड़ाव .

सड़क पर लगातार गिरते पत्थर , नीचे शोर मचाती अलकनंदा, सड़क के किनारे बैठे पचासियों यात्री. ठंडी सुबह , ना खाने को कुछ ना सोने की जगह और ना आगे जाने का रास्ता. चिंता की रेखाएं सभी के माथे पर नजर आ रही थीं. अत: निश्चय किया गया कि जब तक कोई मदद प्रशासन की तरफ से नहीं आती सभी वाहनों के ड्राइवर और कुछ गाँव के मददगार मिलकर खुद ही रास्ता साफ़ करने की कोशिश करेंगे. गाँव वाले अनुभवी थे उन्होंने कहा कि इस तरह एक एक करके गाड़ी के निकलने भर का रास्ता कल तक बनाया जा सकता है. कोई और चारा ना देख यही किया गया और जिसको जो हथियार मिला वह उसे लेकर सफाई अभियान में जुट गया.पर समस्या सिर्फ इतनी नहीं थी. उस सड़क किनारे ६ खोमचे वाले गाँव में २ चाय की छोटी छोटी दूकान,जिनका कुल जमा २ लीटर दूध,कुछ ८-१० बिस्कुट के पैकेट  , कुछ गिनती के समोसे सब १० मिनट में ख़त्म  हो गया. और राशन लाने के लिए पास के एक और गाँव जाना पड़ता जो वहां से तकरीबन २० किलोमीटर होगा और पैदल जाकर वह सामान लाने  में १ दिन तो लगता. जिसके पास जितना यात्रा के लिए लाया गया खाना पीना था सब निबट गया. शाम हो गई और अब सबसे बड़ी समस्या थी रात बिताने की.कुछ पीछे की तरफ की बसों के यात्री तो बसों में अपनी गाड़ियों में सो सकते थे परन्तु मलवे के पास की गाड़ियों में सोना खतरे से खाली नहीं था ना जाने कब ऊपर से कोई पत्थर आ गिरे. ऐसे में यात्रा के दौरान धर्मशालाओं में टिकने वाले लोग जो बिस्तरबंद साथ लेकर चलते हैं उन्होंने उन दुकानों के आहते में अपना डेरा डाल लिया पर समस्या हम होटल परस्त लोगों की थी जो बिस्तर तो क्या एक चादर तक साथ लेकर चलना जरुरी नहीं समझते. हाँ पर इन विपरीत परिस्थितयों में अगर कोई सबसे ज्यादा खुश था तो वो हम बच्चे. जिन्हें ना इन परेशानियों से मतलब था ना सोने खाने की चिंता. जिन्हें इस माहौल  में वो सब करने की आजादी अनायास ही मिल गई थी जिन्हें करने की माता पिता कभी भी इजाजत नहीं देते थे. सड़क छाप  दुकानों के लेकर नमकी खाना, नीचे बहती नदी को पास जाकर देखना, वहीँ मिट्टी में बैठकर खेलना, पेड के नीचे  लोट पोट हो जाना. हमारे लिए यह यात्रा का सबसे आनंदमयी समय था. रास्ता कब साफ़ होगा इससे कोई सरोकार ना रखते हुए हम बस वहां की गतिविधियों में और कुछ अंग्रेजींदा लोगों का मजाक उड़ाने में व्यस्त थे. जिन बेचारों को वहां की दूकान की चाय अन हाइजिनिक लग रही थी और वहां जमीन पर बैठना लो क्लास, कभी एक तरफ से आवाज आती – “हनी !! आई  ऍम स्टार्विंग , कब तक ठीक होगा ये सब…फिर आवाज आती. “वेयर वी गोंना स्लीप?ओह माय गॉड यहाँ तो कोई होटल भी नहीं है”


हम इस बात से बेफिक्र थे  कि बेशक इतनी नहीं पर इसी तरह की चिंता कुछ हमारे मम्मी पापा को भी हो रही होगी कि बच्चे इतनी ठण्ड में रात को कहाँ सोयेंगे.दुकानों का सारा सामान  ख़त्म हो गया था, सब दूकान वाले अपनी अपनी दूकान बंद करके अपने घर जाने लगे थे. हम उन  लोगों की  नक़ल बनाने में व्यस्त थे जो  गलती से भारत में पैदा हो गए थे  .मम्मी हमें डांट रही थीं और पापा किसी गाँव वाले से कुंमायूनी में बतियाने की कोशिश कर रहे थे-“दाजू यो सरकारी दफ्तर याँ वटी कतु दूर छु ? हालाँकि वह गढ़वाली  था पर कुंमायूनी  भी समझ रहा था. तभी वहां एक दुकान वाला आया और पापा से कुंमायूनी  में बात करने लगा. हम लोग यूँ तो मैदानी इलाके के थे पर ७-८ सालों से पहाड़ों पर ही पोस्टिंग होने के कारण पापा गज़ब की कुंमायूनी  बोलते थे और किसी भी मजदूर तक से बात करते हुए उन्हें अफसरपना  छू तक नहीं जाता था.अचानक  पापा ने आकर कहा “चलो”… वह आदमी हमें एक घर के अन्दर ले गया जहाँ नीचे उसकी दूकान थी और ऊपर एक कमरा. जिसमें एक चारपाई पड़ी हुई थी. जहाँ वो, उसकी पत्नी और दो लड़कियां सोती थी. वह आदमी हमें यह कहकर कि, “जे वे छु ये ई छू ए ई बटी गुजर करन पड़ोल”.(जो है इसी में हमें गुजारा करना होगा), पापा के साथ बाहर चला गया. तब हमें बताया गया कि अपनी भाषा में एक अफसर को इतनी आत्मीयता से बात करते  देख वह गांववाला इतना खुश हुआ कि उसने हमें सोने के लिए अपना कमरा तो क्या अपना एकमात्र बिस्तर भी दे दिया. और वह खुद अपने बीवी बच्चों सहित नीचे दूकान में फर्श पर बिस्तर डाल कर सोया. इतना ही नहीं उसने रात को हमारे लिए, जितना भी दाल चावल उसके यहाँ था उसकी खिचड़ी बनवाई और बड़े ही मनुहार से हमें परोसी ।  मुझे आजतक मलका दाल और मोटे चावल की उस खिचड़ी का स्वाद याद है, जिसके लिए ना जाने कितनी बार हम मम्मी से लड़ा करते थे कि आप ऐसे वाले चावल और दाल क्यों नहीं  बनाती जैसे यहाँ के लोग खाते हैं. उस दिन जैसे एक सपना साकार हो गया. और उस खिचड़ी को उँगलियाँ चाट चाट कर खाने के बाद बड़े मजे से मैं और मेरी बहन उस चारपाई पर टेढ़े –  मेढ़े  होकर पसर गए. कहने को एक कोने में मम्मी भी आधी लेट गईं . पर हम यह जानते थे कि वो और पापा वहीँ पड़ी कुर्सियों पर  सारी रात गुजार देंगे.क्योंकि एक मात्र चादर भी हम बहनों को ओढाई जा चुकी थी.जाहिर था हमारे लिए जो रोमांचक समय था मम्मी पापा के लिए जरा भी नहीं था. उन्हें यह चिंता खाए  जा रही थी कि कल भी अगर रास्ता साफ़ नहीं हुआ तो क्या होगा.और यकीनन बहुत से उन लोगों के लिए भी जिन्हें वह कमरा और कुर्सी भी नसीब नहीं हुआ था और वह सड़क के किनारे ही कहीं किसी पेड़ के चबूतरे पर या अपनी कार की सीट पर ही सोने की कोशिश कर रहे थे . उस दिन एक आंचलिक भाषा से प्रेम और अपनापन काम आया था और तथाकथित पॉश अंग्रेजी भाषा मिटटी में घुटने मोड़े भूखी पड़ी थी.

 
दूसरे दिन सुबह होते ही फिर से बाहर से शोर शराबा सुनाई देने लगा. पता चला कि मदद के लिए कुछ लोग पहुँच गए थे. और सड़क साफ़ करने का काम अब सुचारू रूप से होने लगा था . परन्तु पत्थरों का लगातार  गिरना अब भी एक समस्या बना हुआ था .खैर दोपहर होते होते उस मलबे में से किसी तरह उबड़ खाबड़ एक रास्ता सा निकाला गया, जहाँ से कम से कम कारों को तो निकला जा सके. पर वो रास्ता ऐसा था कि कोई कितना भी कुशल ड्राइवर हो उसके पसीने छूट जाएँ.एक तरह से अपनी जान हथेली पर लेकर वो रास्ता पार करना था. ज़रा १ इंच भी अगर टायर फिसला तो गाड़ी सीधा नीचे बह रही अलकनंदा की गोद में गिरती. हर कार के निकलने के साथ ही वहां खड़े सबके हाथ अचानक जुड़ जाते, आँखें बंद हो जातीं और हवा में स्वर गूँज जाता “जय बद्री विशाल”. और उस गाड़ी के पार होते ही फिर सब एक गहरी सांस लेते और दूसरी गाड़ी के लिए फिर से हाथ जोड़ लेते.उसपर हमारी टैक्सी  मैदानी इलाके की थी और उसका ड्राइवर थोडा सा लंगडाता भी था. उसपर रात भर किस्से सुने थे कि  “हर सीजन में अलकनंदा कुछ लोगों की बलि तो लेती ही लेती है” उसका हौसला एकदम पस्त हो गया था. अब यह हालात देखकर अपनी बारी आने पर उसने बिलकुल हाथ खड़े कर दिए. वहां खड़े सब लोगों ने उसे बहुत समझाया , पापा ने बहुत हौसला दिया पर वो टस से मस होने को तैयार नहीं. तभी फिर वही आदमी आया , बोला “तुम फिकर झंन करिए साएब मी छु ना”   (“साहब आप चिंता मत करो मैं हूँ ना”) .और वो अपनी पैंट को घुटनों चढ़ाकर जय बद्रीविशाल के नारे के साथ कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. इससे पहले कि पापा कुछ कह पाते पीछे खड़े मददगारों ने पीछे से कार को धक्का दिया और फिर एक जयकारे के साथ कार वो बाधा पार गई.  हम उछलते कूदते अपना अपना सामान समेटे अपनी कार में जा बैठे . और खिड़की से पापा का और उस आदमी की वार्ता का नजारा देखने लगे. दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े  हुए थे और अपना सिर  हिलाए जा रहे थे. थोड़ी देर बाद उसने पापा को पायलाग किया और पापा आकर कार में बैठे और हम चल पड़े .अब पापा ने बताया कि वह उसे कुछ पैसे देने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें उस आदमी ने एकदम लेने से इंकार कर दिया, यह कहकर कि आप जैसे लोगों का हमारे घर आना ही हमारा सौभाग्य है . वह ऐसे बर्ताव  कर रहा था जैसे उसने हम पर नहीं, बल्कि हमने उस पर कुछ एहसान किया हो.

 इस तरह हमारी यह सबसे खूबसूरत  यात्रा ख़त्म   हो गई , जो मेरे लिए तो उस अवस्था में बेहद ही रोमांचकारी थी. पर मुझे यकीन है कि बाकी लोगों के लिए बिलकुल भी रोमांचक नहीं रही होगी. जिनके मन में बच्चों के खाने , रहने, सोने आदि को लेकर चिंता हो वहां रोमांच का स्थान कहाँ होगा.और शायद आज ऐसी परिस्थिति हो तो मेरे लिए भी यह रोमांच ना होकर चिंताजनक  परिस्थिति होगी. 


परिस्थिति जो भी हो यह तय है कि कुछ ना कुछ सिखा कर जरुर जाती है और इस यात्रा का सबसे महत्पूर्ण ज्ञान था कि- अपनी भाषा से ज्यादा मूल्यवान कुछ नहीं.  भाषा में वो शक्ति है जो किसी अजनबी को भी अपना बना सकती है. और किसी भी इंसान को अपनत्व भरी भाषा के दो बोल से जीता जा सकता है.