Monday, January 30, 2012

मियाँ की जूती मियाँ के सिर.

अभी तक नस्लवाद का इल्जाम पश्चिमी विकसित देशों पर ही लगता रहा है.आये दिन ही नस्लवादी हमलों के शिकार होने वालों की खबरे आती रहती हैं. कभी ऑस्ट्रेलिया से, तो कभी ब्रिटेन से तो कभी अमेरिका से. पर क्या कभी आपने सुना या सोचा कि अंग्रेज़ भी कभी इस नस्लवाद का शिकार हो सकते हैं.कुछ अजीब लगता है ना ? पर आजकल यही समाचार सुर्ख़ियों में है. लन्दन में मशहूर एक सेंडविच कंपनी पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि वह ब्रिटेन वासियों को अपने यहाँ नौकरी नहीं देती.उनकी अर्जी बिना विचार के ही ख़ारिज कर दी जाती है.और ब्रिटेन में इस प्रसिद्द चैन दुकान में जहाँ पौलेंड, स्वीडन, इटली ,नेपाल हर जगह के लोग हैं वहां केवल  १ या २ ही ब्रिटिशर्स ( ब्रिटेन में पैदा होने वाले ) दिखाई देते.उस पर भी उनका कहना है कि उनके साथ वहां पक्षपात किया जाता है.बेशक वहां अंग्रेजी ही काम की भाषा है पर वह कम ही बोली जाती है.उन्हें एक बाहरी इंसान की तरह वहां महसूस होता है.
जबकि इस कम्पनी का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं है.उनके पास ब्रिटिशर्स की बहुत कम अर्जियां आती हैं.और जो आती हैं वे उनमें काम के जरुरी घंटों के प्रति लचीलापन कम होता है.

असल में समस्या यह है कि बाहर से आये लोगों में अंग्रेजो के मुकाबले काम के प्रति ज्यादा समर्पण देखने में आता है वे अपना कार्य ज्यादा निष्ठा से करते हैं और कम कीमत पर करते हैं. वहीँ अंग्रेज पहले तो इस तरह के कामों में रूचि ही नहीं रखते और यदि करना भी पड़े तो इस न्यूनतम कीमत पर तो कभी तैयार नहीं होते.पहले इस तरह की समस्या इसलिए नहीं थी कि आर्थिक हालात ठीक थे.उन्हें काम करने की जरुरत ही महसूस नहीं होती थी.और इतिहास गवाह है कि यदि काम करना ही पड़े वे सिर्फ प्रवन्धक / संचालक ही बनना चाहते हैं उससे नीचे के काम करना ही वह नहीं चाहते.और करें भी क्यों जन्म से लेकर बुढ़ापे तक सरकार उन्हें पालती है.और काम ना मिले तो घर बैठे रोजगार भत्ता भी देती है.फिर उन्हें क्या जरुरत है कि कॉफ़ी शॉप में जाकर सेंडविच बनायें.पर अब हालात बदल गए हैं आर्थिक मंदी के चलते बहुत से भत्ते बंद कर दिए गए हैं.अत: काम करना तो अब मजबूरी है परन्तु मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदलती.अत: जाहिर है बाहर के लोगों के मुकाबले ब्रिटिशर्स काम के प्रति कम जोशीले और कम निष्ठावान साबित होते हैं. 
पर भला अपनी कमजोरियों को कब कोई मानता है. यह कोई समझने को तैयार नहीं कि जब अपने लोग काम करना ही नहीं चाहते तो उन्हें काम मिलेगा कैसे.यूँ यह समस्या शायद हर देश के महानगर की भी है.जहाँ काम की तलाश में बाहर से लोग आते हैं.इसे मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में भी मैंने महसूस किया .जहाँ दिल्ली में ज्यादातर जगहों पर दूरस्थ उत्तर पूर्वी राज्यों के युवाओं को ख़ुशी से संतुष्टि पूर्वक,मेहनत और निष्ठा से काम करते देखा क्योंकि अपने घर से बाहर आकर वहां रहने के लिए काम करना उनके लिए जरुरी है .वहीँ खुद दिल्ली के युवा अपनी रंगीनियों में डूबे अपने लायक रोजगार ना मिलने की दुहाई देते दिखे और मुंबई में बाहर राज्यों से आने वालों के काम के प्रति रोज ही कुछ ना कुछ सुनने में आता ही रहता है.बहुत साधारण सी बात है, कि हर व्यापारी अपनी कंपनी में निष्ठावान, मेहनती, खुशमिजाज,फ्लेक्सिबल  और सस्ता कर्मचारी चाहता और उसे जहाँ भी यह सब कम कीमत पर मिलता है वह उसे काम देता है. ब्रिटेन और अमेरिका सरीखे देशों में भी यह बात काफी समय से सुनने में आती रही है कि दूसरे देशों से आये हुए लोग सभी नौकरियां पा जाते हैं जबकि अपने ही देश के युवक बेरोजगारी की समस्या से जूझते रहते हैं.आर्थिक मंदी के इस दौर में यह समस्या बढती ही जा रही है.और इसका सारा दोष बाहरी नागरिकों पर थोप दिया जाता है. तो क्या वाकई नस्लवादी अब खुद इसके  शिकार हो रहे हैं ? या जरुरत है उन्हें अपनी सदियों से चली आ रही मानसिकता बदलने की .वक़्त को समझने की, यह समझने की कि प्रतियोगिता के इस युग में सिर्फ इतना काफी नहीं कि आप एक विकसित देश में या महानगर में पैदा हुए हैं .जरुरी है काम करना और लगन और निष्ठा से काम करना.जरुरत है समय के अनुसार वर्क कल्चर को समझने की.

Tuesday, January 24, 2012

रंगीनियों का शहर "पेरिस"

फ़्रांस की राजधानी पेरिस – द सिटी ऑफ़ लव, भव्यता, संम्पन्नता, ग्लेमर का पथप्रदर्शक.बाकी दुनिया से अलग एक शहर, जिसकी चकाचौंध के आगे सब कुछ फीका लगता है. लन्दन आने वाले हर व्यक्ति के  मन में सबसे पहले इस फैशन  की इस राजधानी को देख लेने की इच्छा बलबती होने लगती है. लन्दन से कुल  ३४३ km  ( सड़क से ) दूर पेरिस तक जाने के लिए सभी यातायात के साधन मौजूद हैं. परन्तु हमने  जाना तय किया यूरो स्टार से,यह ट्रेन लगभग सवा दो घंटे में पेरिस पहुंचा देती है और आप इंग्लिश चैनल  पार करते समय ट्रेन का समुन्द्र के अन्दर बनी गुफा में से होकर जाने का भी अनुभव ले पाते हैं. हालाँकि सिवा इसके कि आपको पता है कि आप समुंदर के अन्दर से जा रहे हैं और किसी भी तरह का अलग अहसास इसमें नहीं होता.बरहाल कुछ ही समय में आप एक देश से दूसरे देश पहुँच जाते हैं. परन्तु इंग्लेंड फ़्रांस की सीमा पर पहुँचते  ही कस्टम और इमिग्रेशन के समय आपको अहसास होता है कि आप दूसरे देश में आ गए हैं और खासकर अगर आप इंग्लेंड से आये हैं तो वहां के पूछताछ अधिकारीयों के चेहरे पर अनमने भाव भी दृष्टिगोचर होने लगते हैं. आप को कुछ ज्यादा ही गौर से देखा और परखा जाने लगता है.

कहने का मतलब यह कि अपने को अंग्रेज कहलाने और अंग्रेजी जानने में गर्व से सर उठाकर चलने वालों का सारा एटीट्युट  वहां जमीं पर दिखाई देने लगता है.एक टूरिस्ट शहर होने के वावजूद राह चलते राहगीर हों या होटल का मैनेजर  कोई भी अंग्रेजी बोलने में रूचि लेता दिखाई नहीं पड़ता.अत: रेलवे स्टेशन से होटल तक का पांच मिनट का बताया हुआ रास्ता हमने आधे घंटे में बड़ी मुश्किल से तय किया.उस पर वहां पहुँचते ही “ऊंची दूकान फीके पकवान” कहावत चरितार्थ होती दिखाई दी. शहर के बीच में एक महँगा होटल होने के वावजूद बहुत ही साधारण से होटल में हम प्रवेश कर रहे थे .इंटरनेट पर देख कर होटल बुक कराने का यह एक और नुक्सान था.खैर हमारा पेरिस में कार्यक्रम सिर्फ तीन दिन का था जिसमें से आधा दिन निकल चुका था और एक पूरा दिन डिज़नी लैंड के लिए सुरक्षित था. तो बचे डेढ़ दिन में पूरा पेरिस देखने की नीयत से हम सामान रख कर तुरंत रिसेप्शन पर पहुंचे कि वहां से शहर के दर्शनीय स्थल और ट्रांसपोर्ट की जानकारी लेकर तुरंत ही निकला जाये. परन्तु शायद फ्रांसीसियों के रूखेपन के किस्से यूँ ही मशहूर नहीं हैं. होटल के रिसेप्शन पर बैठे महोदय सामने ग्राहक को देखकर भी बाकायदा फ़ोन पर अपनी सहेली से गप्पों में मशगूल थे.अब आप पूछेंगे कि वह तो फ्रेंच बोल रहा होगा हमने कैसे जाना कि वह अपनी प्रेमिका से बतिया रहा था ? तो जी प्रेम किसी भाषा में किया जाये समझ आ ही जाता है. हमारे दो  बार टोकने के वावजूद भी २०  मिनट बाद वह हमसे मुखातिब हुए और अपनी मजबूरी में बोली गई अंग्रेजी में हमें सिर्फ एक बस का नंबर समझा सके जो हमें पेरिस के मुख्य चौक तक ले जा सकती थी.

अब हमारी समझ में आ चुका था कि क्यों लोग लन्दन से पेरिस का फिक्स टूर लिया करते हैं और हमने अपने बल बूते पर अपनी सुविधा के अनुसार पेरिस देखने की योजना बनाकर कितनी बड़ी भूल की थी. खैर “देर आये दुरुस्त आये” की तर्ज़ पर हमने फिर साईट सीन दिखाने वाली खुली बस के दो दिन के टिकट लिए और निकल पड़े पेरिस घूमने .सीन नदी के किनारे बसा यह शहर वाकई बेहद खूबसूरत है और ज्यादातर दर्शनीय इमारतें इसी नदी के दोनों तरफ बनी हुई हैं जिन्हें आपस में पुराने बने हुए दर्शनीय पुल जोड़ते हैं.यूँ बस से सभी स्थल दिखाई दे ही रहे थे पर सबसे पहले हमने मुख्य स्थल एफिल टावर ही देखने की ठानी .
लोहे के इस विशाल  टॉवर  का निर्माण १८८९ में वैश्विक मेले के लिए शैम्प-दे-मार्स में सीन नदी के तट पर  हुआ था. और इसे बनाने में २ साल २ महीने और पांच दिन लगे थे.।  एफ़िल टॉवर को गुस्ताव एफ़िल नाम के एक इंजिनियर ने बनाया था. यह वही व्यक्ति थे जिन्होंने स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी का बाहरी खाका भी बनाया था.और उन्हीं के नाम पर एफिल टॉवर का नामकरण हुआ है। १९३० तक एफ़िल टॉवर  दुनिया की सबसे ऊँची इमारत थी। आज की तारीख में टॉवर की ऊँचाई ३२४ मीटर है, जो की पारंपरिक ८१ मंज़िला इमारत की ऊँचाई के बराबर है। और इस तीन मंजिला टॉवर को टिकट खरीद कर देखा जा सकता है. दूसरी मंजिल तक और तीसरी मंजिल तक जाने के अलग अलग पैसे हैं.शायद उंचाई से डरने वाले लोग दूसरी मंजिल से ही वापस आ जाते होंगे पर हमने तीसरी मंजिल तक जाने के लिए टिकट लिया और पहुँच गए यह देखने कि आखिर लोहे के इस बड़े से खम्भे नुमा चीज़ में ऐसी क्या बात है कि इसे दुनिया के आश्चर्यों में गिना जाता है.
५७ मीटर की उंचाई पर बनी टॉवर की पहली मंजिल पर गुस्ताव एफ़िल की ओर से श्रद्धांजलि के रूप में १८ ओर १९ सदी के महान वैज्ञानिकों के नाम बड़े स्वर्ण अक्षरों में लिखे गए हैं. जो नीचे से दिखाई देते  है। बच्चों के लिए एक फ़ॉलॉ गस नामक प्रदर्शन है जिसमें खेल-खेल में बच्चों को एफ़िल टावर के बारे में जानकारी दी जाती है। यहीं  कांच की दीवार वाला 58 Tour Eiffel नामक रेस्टोरेंट भी है.
११५ मी. की ऊंचाई पर स्थित एफ़िल टावर की दूसरी मंज़िल से पैरिस का सबसे बेहतर नज़ारा देखने को मिलता है,हमें बताया गया कि मौसम साफ़ हो तो करीब ७० कि० मि० तक यहाँ से देखा जा सकता है.। इसी मंज़िल पर एक कैफ़े और सुविनियर खरीदने की दुकान भी है। दूसरी मंज़िल के ऊपर एक उप-मंज़िल भी है जहाँ से तीसरी मंज़िल के लिए लिफ्ट ले सकते है।
२७५ मी. की ऊँचाई पर एफ़िल टावर की तीसरी मंज़िल चारों ओर से शीशे से बंद है। यहाँ गुस्ताव एफ़िल का ऑफ़िस भी है. इसे कांच की दीवारों से ढका गया है,ताकि यात्री इसे बाहर से देख सकें। इस ऑफ़िस में गुस्ताव एफ़िल की मोम की मूर्ति रखी है। तीसरी मंज़िल के ऊपर एक उप-मंज़िल है जहाँ पर सीढ़ियों से जा सकते है। इस उप-मंज़िल की चारों ओर जाली लगी हुई है और यहाँ पैरिस की खूबसूरती का नज़ारा लेने के दूरबीनें  रखी हुई हैं । इस के ऊपर एक दूसरी उप मंज़िल है जहाँ जाना मना है । यहाँ रेडियो और टेलिविज़न की प्रसारण के लिए एंटीना  है.
तो तीसरी मंजिल से ही एक बार दूरबीन से झांककर हम नीचे उतर आये.पेट में चूहे कूद रहे थे और टॉवर के रेस्टोरेंट में उनके पैसों के एवज में खाने लायक हमें कुछ नहीं मिला था.नीचे परिसर में आये तो कुछ खाने के स्टाल थे जहाँ फ्रेंच ब्रेड के ही कुछ किस्म के सेंडविच मिल रहे थे किसी तरह उन्हीं में से कुछ लिया और पेट की आग को शांत किया. एक और बात समझ में आई कि यहाँ खाना भी आसानी से नहीं मिलने वाला सुबह होटल में नाश्ते के समय भी हालाँकि होटल के किराये में फ्रेंच नाश्ता शामिल था, जिसमें सिर्फ क्रोजंट और कॉफी था. कोई अंडा नहीं ब्रेड तक नहीं. फ्रेंच नाश्ता मतलब = क्रोजंट और कॉफी बस.खैर रात को किसी अच्छे  होटल की आशा में किसी तरह वही खाकर गुजारा कर हम लोग निकले ल्रूव म्यूजियम देखने.
फ्रांसीसी भाषा में – Musée du Louvre- यूरोप का सबसे पुराना और विश्व के प्रसिद्द संग्रहालयों  में से एक है.पिरामिड के आकार का प्रवेश द्वार वाले इस अद्भुत संग्रहालय में उनीसवीं सदी तक की सभ्यताओं की स्मृतियाँ रखी हुई हैं. कला के एक से बढकर एक उत्कृष्ट नमूनों के साथ मेरे लिए जो एक सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र था वह था –  मिस्र की सभ्यता का लाइव मॉडल – इतना बेहतरीन. कि लगता था उसी समय के एक शहर में विचरण कर रहे हैं. यहाँ गलियों से होते हुए निकलेंगे उन सार्वजानिक जल कुंडों में और फिर बाजार, दुछत्ती घर और ब्रेड को पकाने वाले सार्वजानिक मिट्टी के तंदूर. मुझे वहां घूमते हुए बेहद मजा आ रहा था परन्तु साथ के बाकी लोग जल्दी में थे  लिओनार्डो द बिंची (Leonardo da Vinci) की  उस कला कृति को देखने के लिए, जिसका कथित रहस्य आज तक बना हुआ है. “मोना लीसा”. विन्ची की इस रहस्यमयी छोटी सी तस्वीर में मुझे समझ में नहीं आया कि ऐसा क्या था कि सबसे ज्यादा भीड़ वहीँ लगी हुई थी पर शायद कला के पारखी समझ सके हों हमें तो  वह बहुत  ही साधारण सी एक औरत की तस्वीर भर लगी.
यूँ यह संग्रहालय इतना बड़ा है कि पूरा देखने में एक हफ्ता तो लग ही जाये पर हम दो घंटे में घूम घाम कर निकल आये उसके बाद हमारा लक्ष्य था 
नोट्रे दाम कथेड्रल – कहा जाता है कि मार्बल के इस खूबसूरत चर्च को देखे बिना पेरिस की यात्रा अधूरी है.मध्युगीन पेरिस के गोथिक वास्तुकला का यह एक अद्भुत नमूना है.और इसे बनाने में १०० से अधिक साल लगे थे.अंदाजा लगया जा सकता है कि पेरिस के दर्शनीय स्थलों में इसका क्या स्थान है .
पेरिस में देखने लायक कथेद्रल और संग्रहालय इतने हैं कि आप देखते देखते थक जाओ परन्तु वह ख़त्म ना हों. अत: हमने निश्चय किया कि अब बाकी सभी इमारतें बस में बैठ कर ही देखी जाएँ और उस सीन नदी को भी, जिसका नौका विहार काफी प्रसिद्द है पर हमारे पास समय नहीं था. 
शाम होने लगी थी और अँधेरा होते ही एफिल टॉवर रौशनी से जगमगा उठता है. सो इस “इवनिंग ऑफ़ पेरिस” को हम वहीँ बैठकर निहारना चाहते थे.जिसके लिए पूरे परिसर में लोग जमा हो उठे थे.जिसे जहाँ जगह मिली जम गया था. और इंतज़ार कर रहा था उस पल का जब वह लोहे की ईमारत एक खूबसूरत रोमांटिक ईमारत में बदल जाएगी. और वाकई रौशनी में भीगा एफिल टॉवर पूरे माहौल को जैसे देदीप्यमान  कर देता है.परिसर की सीढियों  में बैठे जोड़े अपलक उसे निहारते हुए भावुक हुए जा रहे थे.पेरिस की रंगीनियों का समय आरम्भ हो चुका था.पेरिस के नाईट क्लब अपने शबाब पर आ रहे थे परन्तु हमें अपने डेरे पर लौटना था.लौटने हुए देखी हमने वह जगह जहाँ पेपेराज्जी से भागते लेडी डायना और डोडी का एक्सीडेंट हो गया था और इस रंगीन शहर में इस प्रेमी जोड़े की कब्र भी शामिल हो गई थी.
दूसरा दिन डिज़नी  लैंड  के लिए सुनिश्चित था.अब डिज़नी लैंड  की व्याख्या करने यहाँ बैठी तो जाने कितने आलेख लिखने पड़ें अत: सिर्फ इतना बता देती हूँ कि सपनो की सी इस दुनिया में वह सब कुछ है जिसकी आप  खूबसूरत से खूबसूरत कल्पना कर सकते हैं. बच्चों के लिए स्वर्ग जैसा, यह ऐसा स्थान है जो एक अद्भुत दुनिया की सैर करता है. परन्तु फ़्रांस की इस अद्भुत दुनिया में बहुत जरुरी है कि आप आपना होश ना खोएं .वर्ना शायद अपना बटुआ, या बैग या फिर कैमरा भी भी खो सकते हैं. जैसे हमने खोया अपना बैग जो बाद में ढूंढने से हमें मिला एक कचरा पेटी में, अन्दर से एकदम खाली….
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Monday, January 9, 2012

यूँ ही .....कभी कभी...

रद्दी पन्ना –

सफ़ेद कोरे पन्ने सी थी मैं 

जिस पर जैसी चाहे 
इबारत लिख सकते थे तुम
पर तुमने भी चुनी काली स्याही 

यह सोच कर कि उसी से चमकेगा पन्ना 

पर भूल गए तुम 
उन काले शब्दों को उकेरना होता है 
बेहद एहतियात से 
तनिक स्याही बिखरी नहीं कि  

शब्द बदल जाते हैं धब्बों में

और फिर वह पन्ना 
जो सज सकता था किसी पुस्तक में 
रह जाता है बस एक रद्दी बनकर 
जिसमें सिर्फ 
मूंगफलियाँ लपेटी जा सकती है.
माचिस –
दोष तुम्हारा नहीं जान 
तुमने तो वही किया 
जो दस्तूर था
चाहा अपना भला 
सोचा अपने लिए
और बन गए घी का दीया
गुनाह तो मेरा था 
जो खुद को भुला 
बन गई डिब्बी माचिस की 
और जली तीली तीली तेरे लिए.

वापसी –
यूँ चलते चलते तेरे साए में 
राह से मिटा डाले कदमो के छापे भी 
जो उन्हीं के सहारे वापस जा सकती 
अब तो ढूँढनी होंगी नई राहें 
तलाशने होंगे जरिये
जोड़ना होगा सामान 
फिर से सफ़र के लिए 
यूँ तो उसी मंजिल पर लौटना 
अब आसां ना होगा.

Tuesday, January 3, 2012

एक करुण कहानी,एक आईआईटीयन की जुबानी.

बहुत समय से भारत के प्रसिद्द आई आई टी के किसी छात्र से बातचीत करने की इच्छा थी.मन था कि जानू जिस नाम का दबाब बेचारे भारतीय बच्चे पूरा छात्र जीवन झेलते हैं उस संस्था में पढने वाले बच्चे क्या सोचते हैं.कई बार कोशिश की पर जब मैं फ्री होती तो उसके इम्तिहान चल रहे होते (गोया वहां पढाई से ज्यादा परीक्षाएं होती हैं).और जब वो थोडा फ्री (मूड ) होता तो मैं व्यस्त होती. फिर कल अचानक उसने हैलो कहा. हम दोनों ही कुछ फ्री थे तो मैंने मौके का फायदा उठाया और एक हल्का फुल्का सा साक्षात्कार उसका ले डाला. संदीप सौरभ एक आई आई टी इंस्टिट्यूट का पांचवे (फ़ाइनल ) वर्ष का छात्र है.लीजिये आप भी पढ़िए ये मजेदार सा  साक्षात्कार.(निर्मल हास्य के लिए.)

हैलो  मैम !
हैलो  संदीप .कैसे हैं आप ?


ठीक .सुबह के ३ बज रहे हैं पढने का मन नहीं कर रहा .

कैसी चल रही है पढाई .?
पढाई बस चल रही है ..कोई खास फर्क नहीं है .बस अब बोर होने लगा हूँ.समय निकलता जा रहा है .नौकरी चाहिए भी .और करने का मन भी नहीं करता.

अरे तो नौकरी क्या जरुरी है? अपनी कोई कम्पनी खोल लो या ऍफ़ बी जैसी कोई साईट बस वारे  न्यारे.
बात तो आपने बहुत सही कही है .मेरे बहुत से दोस्तों ने यही किया है ..पर वो जमाना जरा मुश्किल है  .कुछ साल नौकरी कर लूं फिर यही करूँगा.

हाँ सारे आई आई टी अन्स को यह कीड़ा होता है पहले नौकरी चाहिए फिर उससे छुटकारा. फिर कुछ और करना है.
हाँ असल में फाइनल ईयर तक आते आते सारे वो झूठ समझ में आ जाते हैं ना जो हमारे बड़ों ने हमसे बोले थे जैसे – बेटा ! आई आई टी निकाल लो बस ..फिर सब मस्त है.

अरे ये कैसी निराशा जनक बातें कर रहे हो ? उन बेचारे बच्चों का क्या जो तुम लोगों ( आई आई टी अन्स  ) के नाम पर ताने झेलते हैं ?
अरे ताने नहीं देने चाहिए ना …अब देखिये कुछ टोपर्स की जॉब ५० लाख की लगती है .और एवरेज की २५ लाख की और कुछ की नहीं भी लगती . पर माँ बाप के पास खबर उन ५० लाख वालों की ही पहुँचती है ..बड़े बड़े अखबारों में बड़ी बड़ी हैडिंग में जो छपती है.
अब घर वाले तो – बेटा ! ५० नहीं तो २५ तो फिक्स मानों एकदम ..और बेचारे हम जी जी करते ..हँसते हैं ..खैर अब तो आदत सी हो गई है.

ओह …पर आई आई टी से निकलने वाले भी तो इसी जूनून में रहते हैं. और अपने बच्चे को आई आई टी ही भेजना चाहते हैं. फिर ऐसा क्यों?
वो इसलिए कि आई आई टी में टॉपर रहिये तो यह फूलों की सेज है . तो वहां से निकलने के बाद सभी यही चाहते होंगे कि मैं ना सही मेरा बेटा टॉप करेगा ही ही ही.

ओह ..मतलब कहीं भी जाओ . मानसिकता सबकी वही है कि बेटा अलादीन का चिराग है .
यप्प  … मैम !बिलकुल .वैसे अच्छा इंस्टिट्यूट है पर हायप कुछ ज्यादा ही है 


अच्छा क्या वाकई अब आई आई टी की इतनी वैल्यू नहीं रही जितनी पहले हुआ करती थी?
नहीं नहीं अब ऐसा भी नहीं है. हाँ दुसरे कॉलेज वाले भी एंटर हुए हैं तो अब बजाय यह पूछने के, कि क्या आप आई आई टी से हैं? लोगों को अब पूछना चाहिए -आप किस आई आई टी से हैं ?और किस रेंक के हैं .
वैसे आजकल भारत में एक चीज़ और मजेदार चल रही है 

वो क्या?
ढेर सारे इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गए हैं ..पर प्रोफ़ेसर हैं नहीं .तो वो क्या करते हैं .कि ताज़ा ताज़ा आई आई टी से पास हुए स्टुडेंट्स को प्रोफ़ेसर बना देते हैं .
अब जैसे मुझे ही कई ऑफर आये हैं .उनमें से एक तो मस्त लड़कियों के इंजीनियरिंग कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर का है.

अच्छा ?
हाँ वो भी खासकर आई आई टी अन्स के लिए, जहाँ प्रसिद्ध होता है कि उन्हें लड़कियों का कोई अता पता नहीं होता.क्योंकि आई आई टी में लडकियां ना के बराबर ही होती हैं.
कैसे पढ़ायेगा भला कोई?.मेरा दोस्त बोलता है .यार कहीं नहीं तो यहीं चले जायेंगे .लड़कियों को नंबर देते रहो वो भी खुश और हम भी खुश.

हा हा हा …वैसे क्या यह सच है कि आई आई टी अन्स को लड़कियों का अता पता नहीं रहता?
हाँ पहले तो ऐसा ही था ..अब नहीं है .वो इसलिए कि लड़कियां बहुत ही कम होती हैं यहाँ .अब तो सुधर रही है हालत. फिर भी दिल्ली यूनिवर्सिटी के सामने किसी आई आई टी अन की नहीं चलने वाली लड़की पटाने में .
वैसे जिससे अभी आप बात कर रही हैं. ऐसे अपवाद तो होते ही हैं.

हाँ हाँ वो तो मुझे पता है कि आप मास्टर हो ..फिर तो ऐसी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की नौकरी बुरी नहीं .
अरे नहीं मैम! बहुत रिस्की है .१००-२०० लडकियां वो भी एकदम ऑ सम   टाइप ..पढाई किसे याद रहेगी ?

अरे पढाई करनी किसे है ? देश का बंटाधार वैसे ही हो रहा है तो मस्ती से ही किया जाये.
 हाँ ..ये कॉलेज वालों तो बस यह दिखाने को चाहिए कि हमारे पास आई आई टी अन प्रोफ़ेसर हैं.मेरी समझ से तो परे हैं .
तो यहाँ से अगर किसी को नौकरी नहीं मिलती ,तो वो वहां जाते हैं, 

और वो बैक बेंचर वहां मस्त गुल खिलाते हैं.

अच्छा ये बताओ .इन कॉलेज से निकल कर इन छात्रों का होता क्या है ?
कुछ खास तो नहीं पता. सुना है कि ये कॉलेज वाले पैसे देकर कम्पनियों को कैम्पस के लिए बुलाते हैं.फिर १०० प्लेसमेंट दिखा दिए बस .उसके बाद कम्पनी कोई एक्जाम सा लेकर एक महीने बाद इन्हें निकाल देती है .

हे राम ! फिर ?
फिर क्या ..फिर भगवान् जाने .

हाँ अब गली गली पान की दूकान की तरह इंजीनियरिंग कॉलेज खुलेंगे तो यही होगा .
पर मैम इन्हीं की वजह से कम से कम कुछ लडकियां तो आ जाती हैं इंजीनियरिंग में ..वर्ना स्कूल में सबका एक ही मोटो रहता था.मेडिकल की तैयारी करो और गणित एक्स्ट्रा में रखो.मेडिकल में आ गए तो ठीक नहीं तो इंजीनियरिंग है.

पर फिर भी वो दिल्ली यूनिवर्सिटी की आर्ट साइड जैसी तो नहीं होती हैं ना ?
हाँ हाँ वो तो है ही …अब दिल्ली आई आई टी तो फिर भी भाग्यशाली है इस मामले में. कानपूर, खड़गपुर , गौहाटी का तो ना जाने क्या हाल होता होगा.

अब यह क्या बात हुई ? आजकल छोटे शहरों की लड़कियां ज्यादा एडवांस होती हैं.
हाँ मैम सच कह रहा हूँ ..बस दिल्ली और मुंबई आई आई टी, शहर के अन्दर हैं. बाकी के शहर से काफी अलग हैं. एकदम कट ऑफ.

ओह अच्छा …फिर तो वाकई बेचारे हैं ..ये तो वही बात हो गई ..ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम.
हाँ हाँ एकदम वही.
वैसे किसी को भी अपने बच्चे पर प्रेशर नहीं डालना चाहिए यहाँ के लिए ..एकदम प्रेशर कुकर बन जाता है.
असल में क्या है कि ग्यारहवीं- बारहवीं के बाद ही समझ आ जाता है कि बच्चा आई आई टी जाने लायक है या नहीं.

यानी उस बैल में कोल्हू में जुतने की कूवत है या नहीं ?
हाँ मैम ..

और वो भी बिना लड़कियों के …नो फन ..
हाँ ..


अच्छा कपिल सिब्बल कहते हैं कि आई आई टी अन का खर्चा भारत सरकार करती है .और ये लोग जाकर काम विदेशों में करते हैं .इसपर तुम्हारा क्या कहना है?
अरे मैम बिलकुल सिंपल है ना .
आप मेवे तो खीर में ही डालोगे ना ,दाल में तो नहीं.अब जैसा कि वो खुद कहते हैं कि आई आई टी वाले टॉप क्वालिटी के होते हैं. तो उन्हें ऐसा माहौल भी तो देना चाहिए ना काम करने के लिए. पर ये नेता तो ..जो ऐसा माहौल बनाने की कोशिश भी करता है उनकी ही जान ले लेते हैं.अब देखिये सत्येन्द्र दुबे – बेचारे ने पी एम् को चिट्ठी लिखी थी भ्रष्टाचार के विरुद्ध , बेचारा अब स्वर्ग में ऐश कर रहा है.
अभी कपिल सिब्बल एक नए रूल की बात कर रहे थे .

कौन सा रूल ?
यह कि जब आई आई टी अन को नौकरी लग जाएगी तो उनकी तनख्वाह से पैसे कटेंगे .क्योंकि सरकार उनके लिए पैसे भरती है.
तो इस पर आई आई टी अन का यही कहना था .

क्या??/
ठीक है ..पर उन्हें वादा करना होगा कि हम जो चार साल बिना लड़कियों के रहते हैं. तो पास होते समय सबको एक एक गर्ल फ्रेंड मिलनी चहिये.

हम्म good point .


और इसी गुड पॉइंट के साथ संदीप पढने चला गया .और हमारी यह मजेदार सी बातचीत ख़तम हो गई .पर पीछे बेक  ग्राउंड में रह गया  चचा ग़ालिब का यह शेर.

हजारों ख्वाईशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमां,लेकिन फिर भी कम निकले. 

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