Thursday, September 22, 2011

Yes....we are ready..

तम्बू लग चुके हैं, सजावट हो चुकी है और बस बारात का आना बाकी है.
जी हाँ लन्दन में २०१२ में  होने वाले ओलंपिक  के लिए अभी लगभग पूरा एक साल पड़ा है .परन्तु लन्दन एकदम तैयार है.लगभग सारी तैयारियां हो चुकी हैं.स्टेडियम बनकर तैयार हैं.बस अन्दर की कुछ सजावट बाकी है जो जल्दी ही पूरी कर ली जाएगी. और… और ये स्टेडियम इंतज़ार करेगा १ साल. ओलम्पिक के शुभारम्भ का, जिसमे पूरी दुनिया के २०५ देशों के १४,७०० प्रतिभागी हिस्सा लेंगे.
हालाँकि डर था कि शायद ओलम्पिक का स्थान,निर्धारित समय में पूरा ना बन पाए. परन्तु अन्तराष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी ने अब इसे हरी झंडी दे दी है कि सारे काम लगभग पूरी तरह संपन्न हो चुके हैं.
लन्दन आयोजन समिति के अनुसार इस आयोजन का बजट २ बिलियन पौंड्स बनाया गया है. जो ज्यादातर निजी क्षेत्र द्वारा उठाया जायेगा.
और तो और सारी टिकटें भी बिक चुकी हैं .जिनसे आयोजक उनकी बिक्री से होने वाली आय £५०० मिलियन पौंड्स के अपने लक्ष्य  को पूरा करने की ओर  पूरी तरह अग्रसर हैं.
बताया जाता है कि ६.६ मिलियन  टिकटों  के लिए २० मिलियन आवेदन प्राप्त हुए..हालाँकि  टिकटों की बिक्री को लेकर काफी सवाल उठे कि लोगों को इनके लिए आवेदन करने को कहा गया और उनके अकाउंट से पहले ही रकम निकाल ली गई बिना यह बताये कि उन्हें वह टिकट मिलेगा भी या नहीं.या किस आयोजन का मिलेगा.अत:यह कहने  की आवश्यकता नहीं कि बहुत से लोगों को निराशा ही हाथ लगी.
हालाँकि ट्रांसपोर्ट लन्दन के लिए सबसे बड़ी कमजोरी कही जा रही है क्योंकि वर्तमान के हिसाब से यहाँ का ट्यूब सिस्टम पुराना है .परन्तु फिर भी ओलम्पिक पार्क से जुड़े सभी रास्तों को अपग्रेड किया जा रहा है.खासकर जुबली लाइन पर  खासा काम किया जा रहा है और उसे हर तरह से ओलम्पिक पार्क से जोड़ा जा रहा है.

ओलम्पिक खेलों के मुख्य स्थान, जहाँ  उद्धघाटन  और समापन समारोह  भी होने हैं .स्टारडफोर्ड  नाम के इस स्थान को सभी विश्व स्तरीय सुविधाओं से संपन्न किया जा रहा है.वेस्ट फील्ड नाम का , शायद यूरोप  का सबसे बड़ा मॉल पहले ही बन कर चालू हो चुका है.और अभी से लोगों को आकर्षित कर रहा है.
वेस्ट फील्ड मॉल
लन्दन में हुए ७/७ बम ब्लास्ट और फिर हाल में हुए दंगों से सुरक्षा व्यवस्था एक अहम् मुद्दा बन गया है.परन्तु इन सबके वावजूद सुरक्षा के बेहतरीन प्रबंध किये गए हैं.और हाल में हुए दंगों में पाए जाने वाले दोषियों को सजा देना अभी जारी है.लन्दन के कई स्थानों पर अभी भी पुलिस की गाडी खड़ी आप देख सकते हैं जहाँ स्क्रीन पर सी सी टी वी. की मदद से जारी दोषियों की तस्वीरें जनता को दिखाई जा रही हैं और उनसे निवेदन किया जा रहा है कि जिसे भी वह पहचान सकें तुरंत पुलिस को सूचित करें.

कहने का आशय यह कि चाहे कोई बम फेंके या दंगे करे.बेशक अर्थव्यवस्था घाटे में हो,हजार मुश्किलें हों परन्तु लन्दन – ओलम्पिक खेलों से किये अपने वादे पर पूरी तरह अटल है. और खेलों के उद्धघाटन से एक साल पहले ही उसके स्वागत में बाहें फैलाये निश्चिन्त खड़ा है.

Tuesday, September 20, 2011

कुछ पल.

रात के साये में कुछ पल

मन के किसी कोने में झिलमिलाते हैं

सुबह होते ही वे पल ,
कहीं खो से जाते हैं 
कभी लिहाफ के अन्दर ,
कभी बाजू के तकिये पर
कभी चादर की सिलवट पर 
वो पल सिकुड़े मिलते हैं.
भर अंजुली में उनको ,
रख देती हूँ सिरहाने की दराजों में 
कल जो न समेट पाई तो ,
निकाल इन्हें ही तक लूंगी 
बड़ी आशाओं से जब उनको 
जाती हूँ निकालने 
उस बंद दराज में मेरे सब पल 
मुरझाये मिलते हैं .

सहलाती हूँ वे पल ,
काश पा हथेली की गर्माहट.
जीवन पा सकें या 
शायद  फिर से खिल जाये.
पर पेड  से गिरे पत्ते ,
कहाँ फिर पेड पर लगते.
वो सूखे लम्हे भी 
यहाँ वहां बिखरे ही दिखते हैं.

Wednesday, September 14, 2011

रोइए नहीं हाथ बढाइये.

आज हिंदी दिवस है.और हर जगह हिंदी की ही बातें हो रही हैं .मैं आमतौर पर इस तरह के दिवस या आयोजनों पर लिखने से बचती हूँ पर आज कुछ कहे बिना रहा नहीं जा रहा.आमतौर पर हिंदी भाषा के लिए जितने भी आयोजन होते हैं उनमें हिंदी को मृत तुल्य मान कर शोक ही मनाते देखा है.एक हँसती खेलती भाषा को लाचार, अधमरी और मृतप्राय बनाकर कटघरे में ला खड़ा कर दिया जाता है और दोनों तरफ हिंदी के रखवाले वकील बन खड़े हो जाते हैं बहस करने. बहस दर बहस होती है. हिंदी के स्वरुप को लेकर, इसमें प्रयुक्त शब्दों को लेकर. मेज ठोक ठोक कर कहा जाता है कि हिंदी के शब्दों को क्यों सहज किया जाना चाहिए? क्यों उसमें किसी भी और भाषा के शब्दों को शामिल किया जाना चाहिए. तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजी भाषा के लिए तो उसे सहज करने की बात नहीं करते  हम. और इन सबके बीच भाषा हंसती हुई सोचती है. वाह रे मेरे पालनहारो! तुमने मुझे समझा ही नहीं. बस लकीर के फ़कीर बने एक लकीर को पिटे जा रहे हो. भाषा का उत्थान उसे एक सिमित दायरे में सिकोड़कर रखने में नहीं बल्कि उसे सम्रद्ध करने में है. अंग्रेजी का तर्क देने वाले क्या यह नहीं जानते कि जो अंग्रेजी आज प्रचलन में है वह किन किन रास्तों से गुजर कर आई है ? उसके शुभचिंतकों ने तो उसे समय के साथ बदलने में या उसमें दूसरी भाषाओँ के शब्द समाहित करने में कोई गुरेज नहीं की.
दूसरी  भाषा के शब्द शामिल करने से भाषा रूकती नहीं है बल्कि ज्यादा तेज़ी से चलती है. औरों की बात मैं नहीं जानती. अपनी कहती हूँ. मैं तीन अंतर्राष्ट्रीय भाषाएँ जानती हूँ और कई बार अपने किसी भाव को व्यक्त करने के लिए एकदम उपयुक्त कोई शब्द  मुझे एक भाषा में नहीं बल्कि दूसरी भाषा में मिल जाता है. कभी कभी किसी भाव को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द मुझे तीनो में से किसी भी भाषा में नहीं मिलता फिर मुझे लगता है काश कुछ और भाषाएँ भी मुझे आती होतीं तो इस भाव को एकदम सटीक शब्द मिल जाता शायद.
शेक्सपियर  का साहित्य इंग्लैंड में आज भी स्कूलों में उसी भाषा में पढाया जाता है जिस में वह लिखा गया.पर आम बोलचाल में उस भाषा को उपयोग नहीं किया जाता और ना ही भाषा की शुद्धता के नाम पर ऐसा करने की जिद की जाती है.तो क्या इससे उनकी भाषा अशुद्ध हो गई? या उसके विकास में कोई बाधा आई? आज भी अग्रेजी भाषा को जानने वाला, पढने वाला एक तबका एक अलग ही अंग्रेजी भाषा का (क्लिष्ट ) उपयोग करता है और उसमें रूचि रखने वाले हम आप जैसे कई लोग उन शब्दों को समझने के लिए शब्दकोष खोलते हैं. धीरे धीरे वही शब्द हमारी भाषा में समाहित से हो जाते हैं और हमें किलिष्ट नहीं लगते.पर आम लोगों को ऐसा ना करने पर दुत्कारा नहीं जाता. साहित्य की और आम बोलचाल की भाषा हर देश स्थान में अलग होती है और शायद यही अंग्रेजी की उन्नति का राज़ है .
देखा जाये तो हमारी हिंदी में भी ऐसा होता है. हिंदी साहित्य या शिक्षण से जुड़े लोग एक अलग हिंदी का प्रयोग करते हैं और उनमे रूचि रखने वाले या उनके संपर्क में आने वालों को उन शब्दों को सीखने या समझने में कोई गुरेज नहीं होता.तो क्या बेहतर यही नहीं कि उन्हें अपना काम करने दिया जाये और आम लोगों को सीधे भाषा की क्लिष्टता पर भाषण देने की बजाय उसके सहज रूप में रूचि जगाई जाये जिससे वह उस भाषा के साहित्य को पढने में रूचि ले. जब वह ऐसा करेगा तो उन शब्दों को भी समझना चाहेगा, जब वह उन्हें जानेगा तो सहज ही वह शब्द उसकी अपनी भाषा में  जायेंगे और धीरे धीरे जुबान पर आते वक़्त वह शब्द किलिष्ट नहीं लगेंगे. परन्तु उसके लिए पहले जन साधारण की रुचियों से और उनकी क्षमताओं से भाषा को जोड़ना बहुत जरुरी है.
मुझे याद आ रहे हैं, हाल ही में हिंदी सम्मलेन में एक युवा वक्ता गगन शर्मा के कहे शब्द.कि “हम अपनी भाषा और शिक्षा के लिए आज लार्ड मेकाले को जमकर गालियाँ देते हैं परन्तु उसके जाने के बाद स्वतंत्र हुए हमें ६५ साल हो गए. फिर हमें कौन मजबूर कर रहा है कि हम उसी व्यवस्था को ढोए जाएँ? हमने परमाणु बम बना लिया पर एक मेकाले नहीं बना पाए. हम अपने ज्ञानी ध्यानी होने का अपनी भाषा के सम्रद्ध होने का दम भरते हैं तो क्या हममे क्षमता नहीं कि हममे से कोई एक हमारा अपना नया मेकाले पैदा हो सके”. 
आज जरुरत इसी सोच की है. जो हो गया उसे रोते रहने की बजाय जो हो रहा है उसे सकारात्मक रूप से देखने की है.या फिर एक गीत की यह पंक्तियाँ हमारे चरित्र पर सही बैठती हैं.?
ये ना होता तो कोई दूसरा गम होना था.
हम तो वे हैं जिन्हें हर हाल में बस रोना था.

Tuesday, September 13, 2011

मोमोस

मेरी पिछली पोस्ट पर काफी विचार विमर्श हुआ. विषय का  स्त्री पुरुष के पूरक होने से , या उनके सम्मान से या फिर किसी तथाकथित नारी या पुरुष वाद से कोई लेना – देना  नहीं था.

एक सीधा सादा सा प्रश्न था. कि क्या स्त्री विवाह को अपने करियर के उत्थान में बाधक महसूस करती है.?
सभी विचारों का यहाँ उलेल्ख संभव नहीं फिर भी कुछ उदाहरण  देना चाहूंगी.और वहां आई ज्यादातर टिप्पणियों से फिर चाहे वो किसी १९ वर्षीय किशोरी की  रही हो कि मेरे विचार से विवाह का तरक्की में बाधक ना होना सिर्फ़ एक special case है जो तभी सम्भव है जब महिला स्वंय इस बारे में aware हो। और ज़हिर हैबहुत मेहनत लगती है लीक से हटकर कुछ करने में। क्योंकि हमारे समाज में “normally” लड़कों को बिन मांगे ही और लड़कियों को  ना सिर्फ़ मांगने पर हीबल्कि बहुत लड़ने पर ही अपने अधिकार मिलते हैं। अगर लड़की खुद ये सब ना समझे और इतनी जुझारु ना हो तो लगता है जैसे presently सारा set up तो आपकी ही पोस्ट को सही साबित करने पर तुला है।
और मेरे विचार से लड़ाई इस बात की नहीं कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना रह सकते हैं या नहींदोनों साथ तभी रहें जब एक दूसरे को एकदम बराबर सम्मान और अधिकार दे सकेंबिना किसी लाग लपेट केएकदम बराबर। सिर्फ़ साथ रहने की रस्म निभाना, कभी समाज़, परिवार की खातिर तो कभी अपनी ही ज़रुरतोंपर अपनी महत्वकांक्षा की बलि चढ़ानागलत है”… 
या एक परिपक्व गृहणी की. विवाह के बाद स्त्री चाहे जितनी प्रखर हो उसकी पहली जिम्मेदारी हो जाती हैं गृहस्थी का सुचारु प्रबंध ,और सबसे बढ़ कर बच्चों का भविष्य (अपने से अधिक महत्वपूर्ण ) अगर बच्चे ही योग्य न बने तो सारा किया-धरा निरर्थक लगने लगता है.पति से कब कितनी सहायता मिलेगी इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं.समझौता विवाहित महिला को ही करना होता है”..
यही समझ में आया कि समस्या तो है .भारतीय परिवेश में  स्त्री विवाह को अपने करियर में एक गति अवरोधक की तरह तो महसूस करती है.फिर इसकी वजह चाहे उसकी परवरिश  रही हो,संस्कार हों या उसकी अपनी भावनाएं जिनके चलते वह अपने करियर को अपने परिवार से ऊपर प्राथमिकता नहीं दे पाती.यहाँ सोचने वाली बात यह भी है कि अगर वह अपनी गृहस्थी में खुश है.आखिर घर चलाना और बच्चों की सही परवरिश करना भी खेल नहीं. ये भी एक उपलब्धि ही है.तो बहुत अच्छा है.हमारे समाज में ज्यादातर स्त्रियाँ यह कर रही हैं और कर चुकी हैं. और कोई समस्या नहीं गृहस्थी की गाड़ी आराम से चल रही है.हालाँकि यहाँ यह एक टिप्पणी भी गौरतलब है. -“विवाह के बाद बहुत ही कम स्त्रियों को ऐसे मौके मिलते हैं जो अपनी योग्यता के अनुसार कैरियर को बना सकें .. माना कि स्त्रियों की पहली ज़िम्मेदारी परिवार है और बच्चे हैं ..पर कितनी पत्नियाँ हैं जो अपने मन की कर पाती हैं …स्त्रियां अपने कम्फर्ट ज़ोन में नहीं रहतीं ..बल्कि दूसरों के कम्फर्ट को देख कर अपने मन को मार लेती हैं ..मैंने तो आस पास यही देखा है या तो स्त्रियां परिवार के हिसाब से अपने कैरियर को दांव पर लगाती हैं या फिर साथ रहते हुए भी एक अलग दुनिया बना लेती हैं तभी वो अपना कैरियर बना पाती हैं ..लेकिन तब वो पति से और अपने बच्चों से भी दूर हो जाती हैं ,एक ही घर में रहते हुए “.
परन्तु समस्या आती है तब, जब वह गृहस्थी से उठ कर कुछ और भी करना चाहती हैं बाहरी समाज में अपना वजूद बनाना चाहती हैं .परन्तु घर परिवार की जिम्मेदारियों  में सहयोग ना मिलने के कारण अपनी इच्छाओं को दबा लेती हैं.और इसी तरह जीवन गुजार देती हैं.या फिर जो थोड़ी हिम्मती  होती हैं वे हालातों से बगावत कर कुछ पाने की कोशिश करती हैं.और घरेलू  संबंधों में कटुता का भाजन बनती हैं.
जैसे किसी ने कहा.-और सफलता का मापदंड केवल बाहरी (अर्थार्जन) ही बच कर रह गया है…गृहस्थी की व्यवस्था कितने अच्छे ढंग से सम्हली ,इसे सफलता न स्त्री मानती है,न पुरुष…
अब अगर इस समस्या के समाधान की तरफ देखें तो कुछ सकारात्मक उदाहरण  देखने को मिलते हैं.और यही समझ में आता है कि वक़्त बदल रहा है और सोच भी बदल रही है.हालाँकि ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं फिर भी आशा है कि आपसी सामंजस्य  से इस समस्या से निबटा जा सकता है.
गया वो ज़माना जब घरेलू  कामो की ट्रेंनिंग सिर्फ बेटियों को दी जाती थी.अब खुली सोच वाले घरों में बेटों को भी घर के काम सिखाये जाते हैं.
और औरत के लिए यह कहने वाले “कि प्रकृति ने औरत को बच्चा पैदा करने की शक्ति दी है ,तो उसे पाल भी वही सकती है.अत: उसे यही करना चाहिए .उनसे तो यही कहा जा सकता है कि यह शक्ति औरत के पास है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे चार दिवारी में बंद कर सिर्फ यही करने को मजबूर किया जाये
 और इसलिए मर्दों को ही धन कमाने का हक़ है और फिर  नीचा दिखाने का भी कि खुद तो कमाना नहीं    पड़ता ना.इस तरह  औरत को मोहताज़ बना कर रखने का एक जरिया भी मिल जाये.
परन्तु जो भी हो इसके लिए दोषी सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही है.उसे खुद ही अपनी प्राथमिकता को चुनना होगा.खुद अपनी क्षमताओं ,योग्यताओं और हालातों को परखना होगा.एक टिप्पणी में बहुत अच्छी बात कही गई.कि  कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ऐसे ही सफलता भी अपना हिस्सा  मांगती है. अब ये फैसला खुद स्त्री को ही करना होगा कि वह क्या चाहती है और किस मूल्य पर.
बरहाल यह विषय किसी नारी – पुरुष बहस का विषय नहीं.एक ऐसा विषय है जो बृहद विमर्श की मांग करता है.
कुछ दिनों से यह पंक्तियाँ दिमाग में चल रही हैं अत: इन्हीं के साथ मैं इस विमर्श को यहाँ विराम देना चाहूंगी.
इति शुभम.
कोमल से आवरण में
बहुत कुछ भरा हुआ.
पलपल ताप में पकती
पर बिना ताप का रंग लिए.
उसी कोमल आवरण में दिखती
औरत मोमोस हो गई है 

Thursday, September 8, 2011

क्या विवाह बाधक है???

छतीस गढ़ के दैनिक  नवभारत में प्रकाशित एक आलेख.



कुछ समय से ( खासकर भारतीय परिवेश में )अपने आस पास जितनी भी महिलाओं को अपने क्षेत्र  में सफल और चर्चित देख रही हूँ .सबको अकेला पाया है .किसी ने शादी नहीं की या कोई किसी हालातों की वजह से अलग रह रही हैं.

और यह सवाल पीछा ही नहीं छोड़ रहा .कि आखिर जब हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है.और ज्यादातर वह उसकी पत्नी या माँ होती है. तो क्यों एक सफल महिला के पीछे एक पुरुष का हाथ नहीं होता क्यों एक लड़की अपने पिता या पति का सहयोग पा कर अपना मक़ाम नहीं बना  पाती.
आखिर जब एक पुरुष गृहस्थी और अपने काम में संतुलन बना कर सफल हो सकता है तो क्यों एक  महिला नहीं हो पाती?पीछे मुड़ कर भी देखती हूँ तो इंदिरा गाँधी से लेकर महाश्वेता देवी और विजल लक्ष्मी पंडित, मलिका साराभाई से लेकर अमृता प्रीतम तक.( विवाह के सन्दर्भ में ) सभी सफल चेहरे को अकेले ही पाया है. भले ही इसके कारण चाहे या अनचाहे हालात कुछ भी रहे हों  हालाँकि इनमें अपवाद के तौर  पर किरण बेदी सरीखे कुछ नाम लिए जा सकते हैं.फिर भी ..आखिर इसकी वजह क्या है?
मुझे याद आ रहा है ,
कभी  पकिस्तान की एक मशहूर लेखिका ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि हमारे मर्दों की ताज़ी रोटी खाने की आदत हमारी औरतों की तरक्की में सबसे बड़ी बाधक है.
कमेन्ट थोडा हार्श जरुर कहा जा सकता है और बहुत से लोग इससे असहमत भी हो सकते हैं, परन्तु मैंने गौर किया तो पाया कि बात काफी हद तक शायद ठीक थी हालाँकि इसके लिए जिम्मेदार भी शायद औरत ही है. इस पर बहुत से लोगों का तर्क हो सकता है कि जी आजकल रोटी बीबियाँ बनाती  ही कहाँ हैं ? सारा काम तो मेड  करती है.पर यहाँ इसपर रोटी से हट कर शायद थोड़े वृहद रूप में इस कमेन्ट को देखने की जरुरत है.
क्या यह सच नहीं कि भारतीय समाज में औरत चाह कर भी  घरेलू  जिम्मेदारियों से उऋण नहीं हो पाती. उसकी प्राथमिकताएं हमेशा चुल्ल्हे चौके से जुडी रहती हैं.और जहाँ वो इन सबसे मुँह मोड़कर अपने काम को तवज्जो देना शुरू करती है वहीँ घरेलू  संबंधों में तनाव आ जाता है. और सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टूट जाता है.
यानि विकल्प दो ही हैं ..या तो गृहस्थी में रहे और अपने कैरियर  से समझौता करे , या अकेली रहे और कैरियर  में सफल हो.
एक मित्र से इसी बाबत कुछ बात हुई तो उन्होंने कहा कि महिलायें हमेशा अपनी योग्यता को किसी की  राय का मोहताज़ बना लेती हैं.
महिलाएं क्यों अपनी योग्यता को किसी दूसरे की राय का मोहताज बना लेती हैं? क्या वे इसलिए पैदा हुईं हैं कि हमेशा दूसरों के मानदंड पर परफेक्ट साबित हों ? क्या उनकी जिन्दगी का मकसद दूसरों को खुश करना ही होना चाहिए?
बात काफी हद तक ठीक लगी मुझे .
पर क्या इस स्थिति के लिए महिलाएं खुद जिम्मेदार नहीं ? क्या खुद में आत्मविश्वास की कमी इसका कारण नहीं ?वे शायद बचपन से ही किसी आश्रय की मोहताज हो जाती हैं. यहाँ तक कि खुद की योग्यता के मापदंड भी वे दूसरों की  राय से स्थापित करती हैं. और ये शुरू से ही स्वाभाविक रूप से शुरू हो जाता है.
कुछ खाने में बनाया है तो चखायेंगी पहले ….कि देखो कैसा बना है और वह  वाकई अच्छा है या नहीं वो सामने वाले के स्वाद पर निर्भर करेगा.उसकी अपनी योग्यता पर नहीं .
कुछ पहनेंगी तो पूछेंगी ..कैसा लग रहा है ??/अब वो कैसा लग रहा है ये भी सामने वाले के मूड पर निर्भर है. कभी पिंड छुड़ाने को कह दिया अच्छा है तो अच्छा मान लिया.कभी मूड खराब है उसने कह दिया हाँ ठीक है तो परेशान कि ..अच्छा नहीं लग रहा. 
पर पुरुष ऐसा कभी नहीं करता.वह कभी कोई डिश बनाएगा भी तो कहेगा देखो क्या लाजबाब बनी है …आखिर बनाई किसने है.. और जैसी भी हो खिलाकर ही दम लेगा.कपडे कैसे भी पहने हों आजतक किसी को पूछते नहीं देखा कि देखो तो कैसा लग रहा हूँ.वे अपनी योग्यता किसी कि राय पर नहीं नापते .ना ही कोई काम महज किसी के मापदंड पर परफेक्ट होने के लिए या किसी को खुश करने के लिए करते हैं.
यानि ज्यादातर महिलायें  दूसरे की राय से अपनी योग्यता के मापदंड निर्धारित करती हैं जो राय वक़्त और इंसान पर निर्भर करती है. अत: जरुरी नहीं सही ही हो.
कभी किसी कारण वश अगर स्थान परिवर्तन करना है तो महिलाएं यही मान कर बैठी होती हैं कि समझौता उन्हें ही अपने काम से करना होगा अगर किसी को अपना काम छोडना पड़े तो वह भी घर कि महिला ही होगी. पुरुष किसी के लिए अपने काम में समझौता करते बहुत कम देखे जाते हैं.बच्चा बीमार है तो महिला ही छुट्टी लेकर घर में रुकेगी, कहीं कोई मेहमान आ गया तो उसकी जिम्मेदारी भी महिला की ही होगी. कहीं आना है जाना हैकैसे जाना है कब आना है सारे फैसले दूसरों की ख़ुशी और सहूलियत को ध्यान में रख कर लिए जाते हैं. यानि कि उसकी प्राथमिकताओं में हमेशा ही घर की जिमेदारियाँ पहले होती हैं. चाहें हम उसे संस्कार कहें या बचपन से देखा माहौल और आदत वह चाह कर भी अपने काम और घर में, अपने काम को ऊपर नहीं रख पाती. और बस इसी तरह चलता रहता है.थोडा ये ..थोडा वो..
और इसी स्वभाव के चलते घर और कार्य क्षेत्र की जिम्मेदारियों के बीच में हमेशा फंसी रहती हैं.खुद नहीं फैसला ले पातीं कि आखिर उनके लिए क्या सही है.अपनी योग्यता का पूरा उपयोग  नहीं कर पातीं क्योंकि उन्हें यही कहा जाता है कि उनकी पहली जिम्मेदारी घर है .अपना १०० % वह अपने काम को नहीं दे पातीं और फलस्वरूप वह मक़ाम नहीं हासिल कर  पातीं जिसकी कि वो हकदार होती हैं.
शायद इसलिए जैसे ही ये आश्रय और जिम्मेदारी ख़तम होती है उनका पूरा ध्यान अपनी योग्यता और कार्यक्षेत्र पर होता है.उसके बंधे  हुए परों को फैलने के लिए पूरा स्थान मिलता है और वो उड़ चलती है.

Monday, September 5, 2011

कुछ यादें, बातें, और मुलाकातें...

डेढ़ महीने की  छुट्टियों के बाद भारत से लौटी हूँ. और अभी तक छुट्टियों का खुमार बाकी है.कुछ लिखने का मन है पर शब्द जैसे अब भी छुट्टी पर हैं,काम पर आने को तैयार नहीं. तो सोचा आप लोगों को तब तक इन छुट्टियों में हुई मुलाकातों का ब्यौरा ही दे दूं. भारत जाने से पहले भी कुछ जाने माने ब्लॉगरों से मुलाकात हुई थी.जिनमें से डॉ कविता वाचकनवी और दीपक मशाल से तो पहले भी मैं मिल चुकी थी .परन्तु कनाडा वाले एलियन यानि समीर लाल जी से मिलने का यह पहला मौका था. वह अपने बेटे के यहाँ, जो कि यॉर्क  में रहते हैं. आये थे अत: सुप्रसिद्ध उड़न तश्तरी के मालिक से मिलने की हमारी दिली इच्छा थी. उन्होंने भी हमें निराश नहीं किया और हमारे घर पधारे. ये और बात है कि उस दौरान हमें फ़ोन पर डराने की उन्होंने खासी कोशिश की  ( उनके अनुसार ) कभी ये कह कर कि दोपहर को आयेंगे, कभी शाम को, कभी १ बजे तो कभी यूँ ही सुबह फ़ोन करके कि डरो नहीं अभी नहीं आ रहे ११ बजे आयेंगे.पर हमने भी ब्लॉगिंग  में बाल सफ़ेद किये हैं. हम बिलकुल नहीं डरे .फिर उन्हें दीपक मशाल के साथ टैक्सी  से उतरते देखा …एंड गैस  व्हाट ? हम फिर भी नहीं डरे….अरे इसमें डरने जैसा था ही क्या??? ये एलियन तो अच्छा वाला एलियन था एकदम जादू टाइप, अपनी रचनाओं की तरह ही सहज और रोचक. यह मीटिंग शानदार रही और इस अन्तराष्ट्रीय ब्लॉगर मीट का ब्यौरा बेहद रोचक अंदाज में समीर लाल जी यहाँ दे ही चुके हैं. 



इसलिए मैं अब लन्दन से निकल कर चलती हूँ भारत को.जहाँ उम्मीद से परे इस बार मौसम बेहद खुशगवार था. मानसून की ठंडी बयार….गर्मी का प्रकोप  कम था .हम काफी सारे काम लेकर गए थे तो शुरूआती दिन तो बारिश के पानी के साथ ही कहाँ बह गए अहसास ही नहीं हुआ.फिर बरसाती बूंदों की तरह कुछ बड़े ब्लॉगरों से छोटी छोटी मुलाकातें हुईं. गुडगाँव में प्यारी सी सोनल के साथ प्यारी सी मुलाकात हुई ,जो २ घंटा ट्रैफिक  में फंसी रहीं मुलाकात पॉइंट तक पहुँचने के लिए. फिर पता चला कि जहाँ हम टिकने वाले थे उनका घर भी वहीँ था,तो मुलाकात फिर वहीं  हुई.और उनसे मिलकर उतना ही मजा आया जितना कि उनकी रोचक पोस्ट्स पढ़कर आता है.फिर एक राजधानी एक्सप्रेस टाइप मुलाकात हुई आशीष राय से जिनकी आने वाली ट्रेन तो थी लेट और जाने वाली थी ऑन टाइम .उनकी ही आई बुक से डॉ अमर की दुखद खबर मिली.यकीन ही नहीं हुआ अब भी नहीं होता.उनसे सीधा संपर्क तो नहीं था परन्तु उनकी टिप्पणियों के माध्यम से एक बेहद अच्छे और जिंदादिल इंसान के रूप में उन्हें जाना था, उनका जाना यकीनन ब्लॉगजगत की अपूर्णीय क्षति है.

फिर अचानक एक दिन खुशदीप सहगल का मैसेज  मिला तब हमारे दिल्ली में रहने के ३ दिन ही बचे थे और खुशदीप ने तुरत फुरत विमेंस प्रेस क्लब में एक छोटा सा गेट  टू गेदर आयोजित कर डाला.



अब यह ब्लॉगर साथियों से मिलने का जूनून था या हमारी पुरानी आदत कि हम डेल्ही मेट्रो की मेहरबानी से (विगत वर्षों में भारत की सबसे सकारात्मक उपलब्धी )एकदम वक़्त पर खुशदीप के बताये पते पर पहुँच गए.और फिर अगले  30 मिनट बैठे  हुए हमें यह एहसास सताने लगा कि यह पहली अप्रैल पर हमारी गैर मौजूदगी का प्रभाव तो नहीं.यहाँ इस विचार ने मन में प्रवेश किया वहीँ खुशदीप और सर्जना ने कक्ष  में,और उनके पीछे  पीछे  ही राजीव  और संजू  तनेजा, वंदना गुप्ता ,राकेश जी सपत्नीक  ने भी और हमने चैन की सांस ली, सोचा जाने क्यों ?? मैं जल्दी करती नहीं जल्दी हो जाती है….

सबसे पहले डॉ अमर को याद करते हुए २ मिनट के मौन के साथ सबने उन्हें विनम्र  श्रद्धांजलि  दी  फिर सभा को आगे बढ़ाया  गया  स्वादिष्ट पीच टी के साथ. जिसकी सफाई देते हुए खुशदीप को आप कई जगह देख सकते हैं अब गृह  स्वामिनी से तो सभी को डरना पड़ता है.फिर सर्जना ने हमारा दिल ले लिया जबरदस्त्त पापड़ी चाट और टिक्कियाँ खिलाकर. अब इसके बाद खाने गुंजाइश तो बची नहीं थी  परन्तु एक पौष थाली का आना बाकी था जैसे तैसे  उधार के पेट ( वंदना जी से साभार )मंगवाए गए और उस थाली का भी कल्याण किया गया.और इस बीच वही सब हुआ जो ब्लॉगरों  के एक जगह इकठ्ठा होने पर होने की उम्मीद की जानी चाहिए.बीच बीच में कुछ हम ब्लॉगरों की खुश मिजाजी से चिढ़े हुए और अपने काम के बोझ तले दबे हुए लोग हमें धीमे बोलने को धमका भी गए.पर ब्लॉगरों  की आवाज़ को भला कौन दबा पाया है.खैर भोजन और गप्पों के बीच ही शामिल हुईं गीता श्री तो लग गया एक और मस्त तडका.और इस तरह बेहद खूबसूरत मिजाज़ के लोगों के साथ एक बेहद खूबसूरत दोपहर का समापन हुआ.



हम जो पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के बारे में कुछ नकारात्मक और निराशा भरे अनुभवों से भरे घूम रहे थे.प्रेस क्लब के उस कक्ष से एक नई सकारात्मक ऊर्जा के साथ सभी का तहे दिल से आभार करते बाहर निकले.और मन ही मन कहा “उम्मीद अभी बाकी है दोस्त “