कहने का आशय यह कि चाहे कोई बम फेंके या दंगे करे.बेशक अर्थव्यवस्था घाटे में हो,हजार मुश्किलें हों परन्तु लन्दन – ओलम्पिक खेलों से किये अपने वादे पर पूरी तरह अटल है. और खेलों के उद्धघाटन से एक साल पहले ही उसके स्वागत में बाहें फैलाये निश्चिन्त खड़ा है.
Thursday, September 22, 2011
Yes....we are ready..
Tuesday, September 20, 2011
कुछ पल.
रात के साये में कुछ पल
Wednesday, September 14, 2011
रोइए नहीं हाथ बढाइये.
Tuesday, September 13, 2011
मोमोस
मेरी पिछली पोस्ट पर काफी विचार विमर्श हुआ. विषय का स्त्री पुरुष के पूरक होने से , या उनके सम्मान से या फिर किसी तथाकथित नारी या पुरुष वाद से कोई लेना – देना नहीं था. एक सीधा सादा सा प्रश्न था. कि क्या स्त्री विवाह को अपने करियर के उत्थान में बाधक महसूस करती है.? सभी विचारों का यहाँ उलेल्ख संभव नहीं फिर भी कुछ उदाहरण देना चाहूंगी.और वहां आई ज्यादातर टिप्पणियों से फिर चाहे वो किसी १९ वर्षीय किशोरी की रही हो कि – “मेरे विचार से विवाह का तरक्की में बाधक ना होना सिर्फ़ एक special case है जो तभी सम्भव है जब महिला स्वंय इस बारे में aware हो। और ज़हिर है… बहुत मेहनत लगती है लीक से हटकर कुछ करने में। क्योंकि हमारे समाज में “normally” लड़कों को बिन मांगे ही और लड़कियों को ना सिर्फ़ मांगने पर ही… बल्कि बहुत लड़ने पर ही अपने अधिकार मिलते हैं। अगर लड़की खुद ये सब ना समझे और इतनी जुझारु ना हो तो लगता है जैसे presently सारा set up तो आपकी ही पोस्ट को सही साबित करने पर तुला है। और मेरे विचार से लड़ाई इस बात की नहीं कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना रह सकते हैं या नहीं… दोनों साथ तभी रहें जब एक दूसरे को एकदम बराबर सम्मान और अधिकार दे सकें… बिना किसी लाग लपेट के… एकदम बराबर। सिर्फ़ साथ रहने की रस्म निभाना, कभी समाज़, परिवार की खातिर तो कभी अपनी ही ‘ज़रुरतों‘ पर अपनी महत्वकांक्षा की बलि चढ़ाना… गलत है”… या एक परिपक्व गृहणी की. “विवाह के बाद स्त्री चाहे जितनी प्रखर हो उसकी पहली जिम्मेदारी हो जाती हैं गृहस्थी का सुचारु प्रबंध ,और सबसे बढ़ कर बच्चों का भविष्य (अपने से अधिक महत्वपूर्ण ) अगर बच्चे ही योग्य न बने तो सारा किया-धरा निरर्थक लगने लगता है.पति से कब कितनी सहायता मिलेगी इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं.समझौता विवाहित महिला को ही करना होता है”.. यही समझ में आया कि समस्या तो है .भारतीय परिवेश में स्त्री विवाह को अपने करियर में एक गति अवरोधक की तरह तो महसूस करती है.फिर इसकी वजह चाहे उसकी परवरिश रही हो,संस्कार हों या उसकी अपनी भावनाएं जिनके चलते वह अपने करियर को अपने परिवार से ऊपर प्राथमिकता नहीं दे पाती.यहाँ सोचने वाली बात यह भी है कि अगर वह अपनी गृहस्थी में खुश है.आखिर घर चलाना और बच्चों की सही परवरिश करना भी खेल नहीं. ये भी एक उपलब्धि ही है.तो बहुत अच्छा है.हमारे समाज में ज्यादातर स्त्रियाँ यह कर रही हैं और कर चुकी हैं. और कोई समस्या नहीं गृहस्थी की गाड़ी आराम से चल रही है.हालाँकि यहाँ यह एक टिप्पणी भी गौरतलब है. -“विवाह के बाद बहुत ही कम स्त्रियों को ऐसे मौके मिलते हैं जो अपनी योग्यता के अनुसार कैरियर को बना सकें .. माना कि स्त्रियों की पहली ज़िम्मेदारी परिवार है और बच्चे हैं ..पर कितनी पत्नियाँ हैं जो अपने मन की कर पाती हैं …स्त्रियां अपने कम्फर्ट ज़ोन में नहीं रहतीं ..बल्कि दूसरों के कम्फर्ट को देख कर अपने मन को मार लेती हैं ..मैंने तो आस पास यही देखा है या तो स्त्रियां परिवार के हिसाब से अपने कैरियर को दांव पर लगाती हैं या फिर साथ रहते हुए भी एक अलग दुनिया बना लेती हैं तभी वो अपना कैरियर बना पाती हैं ..लेकिन तब वो पति से और अपने बच्चों से भी दूर हो जाती हैं ,एक ही घर में रहते हुए “. परन्तु समस्या आती है तब, जब वह गृहस्थी से उठ कर कुछ और भी करना चाहती हैं बाहरी समाज में अपना वजूद बनाना चाहती हैं .परन्तु घर परिवार की जिम्मेदारियों में सहयोग ना मिलने के कारण अपनी इच्छाओं को दबा लेती हैं.और इसी तरह जीवन गुजार देती हैं.या फिर जो थोड़ी हिम्मती होती हैं वे हालातों से बगावत कर कुछ पाने की कोशिश करती हैं.और घरेलू संबंधों में कटुता का भाजन बनती हैं. जैसे किसी ने कहा.-और सफलता का मापदंड केवल बाहरी (अर्थार्जन) ही बच कर रह गया है…गृहस्थी की व्यवस्था कितने अच्छे ढंग से सम्हली ,इसे सफलता न स्त्री मानती है,न पुरुष… अब अगर इस समस्या के समाधान की तरफ देखें तो कुछ सकारात्मक उदाहरण देखने को मिलते हैं.और यही समझ में आता है कि वक़्त बदल रहा है और सोच भी बदल रही है.हालाँकि ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं फिर भी आशा है कि आपसी सामंजस्य से इस समस्या से निबटा जा सकता है. गया वो ज़माना जब घरेलू कामो की ट्रेंनिंग सिर्फ बेटियों को दी जाती थी.अब खुली सोच वाले घरों में बेटों को भी घर के काम सिखाये जाते हैं. और औरत के लिए यह कहने वाले “कि प्रकृति ने औरत को बच्चा पैदा करने की शक्ति दी है ,तो उसे पाल भी वही सकती है.अत: उसे यही करना चाहिए .उनसे तो यही कहा जा सकता है कि यह शक्ति औरत के पास है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे चार दिवारी में बंद कर सिर्फ यही करने को मजबूर किया जाये और इसलिए मर्दों को ही धन कमाने का हक़ है और फिर नीचा दिखाने का भी कि खुद तो कमाना नहीं पड़ता ना.इस तरह औरत को मोहताज़ बना कर रखने का एक जरिया भी मिल जाये. परन्तु जो भी हो इसके लिए दोषी सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही है.उसे खुद ही अपनी प्राथमिकता को चुनना होगा.खुद अपनी क्षमताओं ,योग्यताओं और हालातों को परखना होगा.एक टिप्पणी में बहुत अच्छी बात कही गई.कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ऐसे ही सफलता भी अपना हिस्सा मांगती है. अब ये फैसला खुद स्त्री को ही करना होगा कि वह क्या चाहती है और किस मूल्य पर. बरहाल यह विषय किसी नारी – पुरुष बहस का विषय नहीं.एक ऐसा विषय है जो बृहद विमर्श की मांग करता है. कुछ दिनों से यह पंक्तियाँ दिमाग में चल रही हैं अत: इन्हीं के साथ मैं इस विमर्श को यहाँ विराम देना चाहूंगी. इति शुभम. कोमल से आवरण में बहुत कुछ भरा हुआ. पलपल ताप में पकती पर बिना ताप का रंग लिए. उसी कोमल आवरण में दिखती औरत मोमोस हो गई है |
Thursday, September 8, 2011
क्या विवाह बाधक है???
कुछ समय से ( खासकर भारतीय परिवेश में )अपने आस पास जितनी भी महिलाओं को अपने क्षेत्र में सफल और चर्चित देख रही हूँ .सबको अकेला पाया है .किसी ने शादी नहीं की या कोई किसी हालातों की वजह से अलग रह रही हैं.
और इसी स्वभाव के चलते घर और कार्य क्षेत्र की जिम्मेदारियों के बीच में हमेशा फंसी रहती हैं.खुद नहीं फैसला ले पातीं कि आखिर उनके लिए क्या सही है.अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर पातीं क्योंकि उन्हें यही कहा जाता है कि उनकी पहली जिम्मेदारी घर है .अपना १०० % वह अपने काम को नहीं दे पातीं और फलस्वरूप वह मक़ाम नहीं हासिल कर पातीं जिसकी कि वो हकदार होती हैं.
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Monday, September 5, 2011
कुछ यादें, बातें, और मुलाकातें...
इसलिए मैं अब लन्दन से निकल कर चलती हूँ भारत को.जहाँ उम्मीद से परे इस बार मौसम बेहद खुशगवार था. मानसून की ठंडी बयार….गर्मी का प्रकोप कम था .हम काफी सारे काम लेकर गए थे तो शुरूआती दिन तो बारिश के पानी के साथ ही कहाँ बह गए अहसास ही नहीं हुआ.फिर बरसाती बूंदों की तरह कुछ बड़े ब्लॉगरों से छोटी छोटी मुलाकातें हुईं. गुडगाँव में प्यारी सी सोनल के साथ प्यारी सी मुलाकात हुई ,जो २ घंटा ट्रैफिक में फंसी रहीं मुलाकात पॉइंट तक पहुँचने के लिए. फिर पता चला कि जहाँ हम टिकने वाले थे उनका घर भी वहीँ था,तो मुलाकात फिर वहीं हुई.और उनसे मिलकर उतना ही मजा आया जितना कि उनकी रोचक पोस्ट्स पढ़कर आता है.फिर एक राजधानी एक्सप्रेस टाइप मुलाकात हुई आशीष राय से जिनकी आने वाली ट्रेन तो थी लेट और जाने वाली थी ऑन टाइम .उनकी ही आई बुक से डॉ अमर की दुखद खबर मिली.यकीन ही नहीं हुआ अब भी नहीं होता.उनसे सीधा संपर्क तो नहीं था परन्तु उनकी टिप्पणियों के माध्यम से एक बेहद अच्छे और जिंदादिल इंसान के रूप में उन्हें जाना था, उनका जाना यकीनन ब्लॉगजगत की अपूर्णीय क्षति है.
अब यह ब्लॉगर साथियों से मिलने का जूनून था या हमारी पुरानी आदत कि हम डेल्ही मेट्रो की मेहरबानी से (विगत वर्षों में भारत की सबसे सकारात्मक उपलब्धी )एकदम वक़्त पर खुशदीप के बताये पते पर पहुँच गए.और फिर अगले 30 मिनट बैठे हुए हमें यह एहसास सताने लगा कि यह पहली अप्रैल पर हमारी गैर मौजूदगी का प्रभाव तो नहीं.यहाँ इस विचार ने मन में प्रवेश किया वहीँ खुशदीप और सर्जना ने कक्ष में,और उनके पीछे पीछे ही राजीव और संजू तनेजा, वंदना गुप्ता ,राकेश जी सपत्नीक ने भी और हमने चैन की सांस ली, सोचा जाने क्यों ?? मैं जल्दी करती नहीं जल्दी हो जाती है….

